संत रविदास ने वाह्य आडंबरों के बजाय अंतस की श्रेष्ठता पर बल दिया। सदाचार और संयम को श्रेष्ठता का पैमाना बनाया, उसी के आधार पर जीवन जिया और लोगों को भी यही रास्ता अपनाने के लिए प्रेरित किया। जन्मजात श्रेष्ठता का उन्होंने आध्यात्मिक धरातल पर विरोध किया…
गुरु रैदास मिले मोहि पूरे, धुरसे कलम भिड़ी।
सत गुरु सैन दई जब आके जोत रली।
प्रारंभ में ही रविदास बहुत परोपकारी तथा दयालु थे और दूसरों की सहायता करना उनका स्वभाव बन गया था। साधु-संतों की सहायता करने में उनको विशेष सुख का अनुभव होता था। वह उन्हें प्रायः मूल्य लिए बिना जूते भेंट कर दिया करते थे। उनके स्वभाव के कारण उनके माता-पिता उनसे अप्रसन्न रहते थे। कुछ समय बाद उन्होंने रविदास तथा उनकी पत्नी को अपने घर से अलग कर दिया। रविदास पड़ोस में ही अपने लिए एक अलग झोपड़ी बनाकर तत्परता से अपने व्यवसाय का काम करते थे और शेष समय ईश्वर-भजन तथा साधु-संतों के सत्संग में व्यतीत करते थे। संत-साहित्य के ग्रंथों और गुरु-ग्रंथ साहिब में इनके पद पाए जाते हैं। रैदास ने ऊंच-नीच की भावना तथा ईश्वर-भक्ति के नाम पर किए जाने वाले विवाद को सारहीन तथा निरर्थक बताया और सबको परस्पर मिल जुल कर प्रेमपूर्वक रहने का उपदेश दिया। वह स्वयं मधुर तथा भक्तिपूर्ण भजनों की रचना करते थे और उन्हें भाव-विभोर होकर सुनाया करते थे। उनका विश्वास था कि ईश्वर की भक्ति के लिए सदाचार, परहित भावना तथा सद्व्यवहार का पालन करना अत्यावश्यक है। अभिमान त्याग कर दूसरों के साथ व्यवहार करने और विनम्रता तथा शिष्टता के गुणों का विकास करने पर उन्होंने बहुत बल दिया। संत रविदास की विरक्ति के संबंध में एक प्रसंग मिलता है। कहते हैं कि एक बार किसी महात्मा ने उन्हें पारस पत्थर दिया और उसकी महिमा का बढ़-चढ़कर वर्णन करने लगा। पहले तो संत रविदास ने उसे लेना ही अस्वीकार कर दिया। किंतु बार-बार आग्रह करने पर उन्होंने महात्मा से कहा कि वह इसे छप्पर में खोंस दे। तेरह दिनों के बाद वह महात्मा पारस पत्थर की महिमा को देखने फिर से उनके पास आया। उसने जब पारस पत्थर के बारे में पूछा तो संत रैदास का उत्तर था कि जहां रखा होगा, वहीं से उठा लो और सचमुच वह पारस पत्थर वहीं पड़ा मिला। इससे यह पता चलता है कि वह मोहमाया से कितने निःस्पृह थे। बड़ी से बड़ी संपत्ति भी उनके लिए कौड़ी के समान थी। संत रविदास उस दौर में पैदा हुए थे जब ब्राह्मणों की श्रेष्ठता ग्रंथि के कारण दलित पशुवत जीवन व्यतीत करने के लिए बाध्य थे। उनकी चेतना ने भारतीय समाज में जागृति का संचार किया और उनके मौलिक चिंतन ने शोषित और उपेक्षित शूद्रों में आत्मविश्वास का संचार किया। संत रविदास की दृष्टि और प्रभाव ने समाज के एक बड़े तबके को सशक्त दर्शन प्रदान किया, हीनता के बोध से उबारा। संत रविदास की इस अहिंसक आध्यात्मिक क्रांति की अनुगूंज आज भी हमें सुनाई पड़ती है। वह देश के एक बड़े हिस्से में आराध्य के रूप में पूजे जाते हैं। उनका उद्घोष था- जन्म जात मत पूछिये, का जात अरू पात। रविदास पूत सभ प्रभ के, कोउ नहि जात कुजात॥