आध्यात्मिक समानता की आस भक्‍त रविदास

By: Feb 4th, 2017 12:07 am

संत रविदास ने वाह्य आडंबरों के बजाय अंतस की श्रेष्ठता पर बल दिया। सदाचार और संयम को श्रेष्ठता का पैमाना बनाया, उसी के आधार पर जीवन जिया और लोगों को भी यही रास्ता अपनाने के लिए प्रेरित किया। जन्मजात श्रेष्ठता का उन्होंने आध्यात्मिक धरातल पर विरोध किया…

आध्यात्मिक समानता की आस भक्‍त रविदासअपनी उच्च आध्यात्मिक अनुभूति और श्रेष्ठ सामाजिक दर्शन के कारण संत रविदास का नाम भक्तिकालीन संतों में बहुत श्रद्धा के साथ लिया जाता है। उन्होंने वाह्य आडंबरों के बजाय अंतस की श्रेष्ठता पर बल दिया। सदाचार और संयम को श्रेष्ठता का पैमाना बनाया, उसी के आधार पर जीवन जिया और लोगों को भी यही रास्ता अपनाने के लिए प्रेरित किया। जन्मजात श्रेष्ठता का उन्होंने आध्यात्मिक धरातल पर विरोध किया। संत रविदास के समय का समाज जातियों के आधार पर बुरी तरह बंटा हुआ था। अछूतों के साथ बहुत बुरा व्यवहार किया जाता था और उन्हें हेय दृष्टि के साथ ही न्यून संभावनाओं वाले व्यक्ति के रूप में देखा जाता था। संत रविदास ने इस तरह के अमानवीय भेदभाव का खंडन किया। समाज में यह अलख जगाई कि आध्यात्मिक उन्नति के रास्ते सभी को समान रूप से प्राप्त हैं। संत रविदास चर्मकार जाति में पैदा हुए थे। अपनी जाति का उल्लेख उन्होंने अपने भक्तिपदों में भी किया है- नीचे से प्रभु आंच कियो है, कह रैदास चमारा। समाज काड्डे यह संदेश देने के लिए कि आध्यात्मिक पथ पर आगे बढ़ने के लिए सभी को समान अवसर उपलब्ध होते हैं,भले ही उसकी जाति और पेशा कुछ भी हो, उन्होंने आजीवन मोची का कार्य किया। इस कार्य को भी वह इतनी तल्लीनता से करते थे कि मानो कोई आध्यात्मिक साधना कर रहे हैं। उनकी इस दृष्टि से समाज बहुत प्रभावित हुआ। संत रविदास का जन्म काशी में हुआ था। उनके पिता का नाम रग्घु और माता का नाम घुरविनिया बताया जाता है। बचपन से ही सत्संग के प्रति उनमें तीव्र अभिरुचि थी। अतः रामजानकी की मूर्ति बनाकर पूजन करने लगे। पिता ने किसी कारणवश उन्हें अपने से अलग कर दिया था और वह घर के पिछवाड़े छप्पर डालकर रहने लगे। वह परम संतोषी और उदार व्यक्ति थे। रविदास ने साधु-संतों की संगति से पर्याप्त व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त किया था। नाभादास कृत भक्तमाल में रैदास के स्वभाव और उनकी चारित्रिक उच्चता का प्रतिपादन मिलता है। मीरा ने अपने अनेक पदों में रैदास का गुरु के रूप में स्मरण किया है –

गुरु रैदास मिले मोहि पूरे, धुरसे कलम भिड़ी।

सत गुरु सैन दई जब आके जोत रली।

प्रारंभ में ही रविदास बहुत परोपकारी तथा दयालु थे और दूसरों की सहायता करना उनका स्वभाव बन गया था। साधु-संतों की सहायता करने में उनको विशेष सुख का अनुभव होता था। वह उन्हें प्रायः मूल्य लिए बिना जूते भेंट कर दिया करते थे। उनके स्वभाव के कारण उनके माता-पिता उनसे अप्रसन्न रहते थे। कुछ समय बाद उन्होंने रविदास तथा उनकी पत्नी को अपने घर से अलग कर दिया। रविदास पड़ोस में ही अपने लिए एक अलग झोपड़ी बनाकर तत्परता से अपने व्यवसाय का काम करते थे और शेष समय ईश्वर-भजन तथा साधु-संतों के सत्संग में व्यतीत करते थे। संत-साहित्य के ग्रंथों और गुरु-ग्रंथ साहिब में इनके पद पाए जाते हैं। रैदास ने ऊंच-नीच की भावना तथा ईश्वर-भक्ति के नाम पर किए जाने वाले विवाद को सारहीन तथा निरर्थक बताया और सबको परस्पर मिल जुल कर प्रेमपूर्वक रहने का उपदेश दिया। वह स्वयं मधुर तथा भक्तिपूर्ण भजनों की रचना करते थे और उन्हें भाव-विभोर होकर सुनाया करते थे। उनका विश्वास था कि ईश्वर की भक्ति के लिए सदाचार, परहित भावना तथा सद्व्यवहार का पालन करना अत्यावश्यक है। अभिमान त्याग कर दूसरों के साथ व्यवहार करने और विनम्रता तथा शिष्टता के गुणों का विकास करने पर उन्होंने बहुत बल दिया। संत रविदास की विरक्ति के संबंध में एक प्रसंग मिलता है। कहते हैं कि एक बार किसी महात्मा ने उन्हें पारस पत्थर दिया और उसकी महिमा का बढ़-चढ़कर वर्णन करने लगा। पहले तो संत रविदास ने उसे लेना ही अस्वीकार कर दिया। किंतु बार-बार आग्रह करने पर उन्होंने महात्मा से कहा कि वह इसे छप्पर में खोंस दे। तेरह दिनों के बाद वह महात्मा   पारस पत्थर की महिमा को देखने फिर से उनके पास आया। उसने जब पारस पत्थर के बारे में पूछा तो संत रैदास का उत्तर था कि जहां रखा होगा, वहीं से उठा लो और सचमुच वह पारस पत्थर वहीं पड़ा मिला। इससे यह पता चलता है कि वह मोहमाया से कितने निःस्पृह थे। बड़ी से बड़ी संपत्ति भी उनके लिए कौड़ी के समान थी।  संत रविदास उस दौर में पैदा हुए थे जब ब्राह्मणों की श्रेष्ठता ग्रंथि के कारण दलित पशुवत जीवन व्यतीत करने के लिए बाध्य थे। उनकी चेतना ने भारतीय समाज में जागृति का संचार किया और उनके मौलिक चिंतन ने शोषित और उपेक्षित शूद्रों में आत्मविश्वास का संचार किया। संत रविदास की दृष्टि और प्रभाव ने समाज के एक बड़े तबके को सशक्त दर्शन प्रदान किया, हीनता के बोध से उबारा। संत रविदास की इस अहिंसक आध्यात्मिक क्रांति की अनुगूंज आज भी हमें सुनाई पड़ती है। वह देश के एक बड़े हिस्से में आराध्य के रूप में पूजे जाते हैं। उनका उद्घोष था- जन्म जात मत पूछिये, का जात अरू पात। रविदास पूत सभ प्रभ के, कोउ नहि जात कुजात॥


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