मंदिर मुद्दे का खिंचना शुभ नहीं

कुलदीप नैयर

लेखक, वरिष्ठ पत्रकार हैं

राम मंदिर मसले पर उच्चतम न्यायालय की पीठ ने जो सुझाव दिया उसको लेकर भाजपा में जो उत्साह देखने को मिल रहा है, उतना शायद ही किसी और दल में देखने को मिला हो। लंबे अरसे से खिंचे चले आ रहे इस मामले का अब कोई अंतिम समाधान हो ही जाना चाहिए, ताकि इससे जुड़े दोनों ही पक्षों को राहत मिल सके। सालों से यह मामला चल रहा है और कोर्ट को कानूनसम्मत अपना फैसला सुनाना ही चाहिए। लेकिन निकट भविष्य में इसकी कोई संभावना बनती नहीं दिख रही…

आज हम एक बार फिर से चौराहे पर खड़े हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने दोनों पक्षों, जो अयोध्या में भगवान श्रीराम का भव्य मंदिर बनाने के लिए संघर्षरत हैं या जो पक्ष यहां बाबरी मस्जिद के निर्माण के लिए आंदोलन कर रहा है, को एक महत्त्वपूर्ण सलाह दी है। इसके जरिए न्यायालय ने दोनों पक्षों को संवाद के जरिए मामले को सुलझा लेने को कहा है। इस सलाह में हैरान करने वाला एक बिंदु यह है कि भारत के मुख्य न्यायाधीश इस मामले को न्यायालय के बाहर सुलझाने के लिए मध्यस्थ बनने के लिए तैयार हैं। उनका कहना है, ‘कुछ पाकर और कुछ खोकर अब इस मामले को सुलझा लिया जाना चाहिए।’ अगर दोनों पक्ष चाहते हैं कि मैं उनके द्वारा चुने गए मध्यस्थों के साथ बैठूं, तो मैं इसके लिए तैयार हूं। यहां तक कि इस उद्देश्य के लिए मेरे साथी न्यायाधीशों की सेवाएं भी ली जा सकती हैं।

हिंदू हृदय सम्राट कहे जाने वाले योगी आदित्यनाथ को यूपी में विधायक दल का नेता चुनते हुए उन्हें मुख्यमंत्री पद सौंपा गया है। उत्तर प्रदेश में भाजपा को जो प्रचंड बहुमत हासिल हुआ है उसका श्रेय चाहे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को जाए या राज्य में हिंदूवादी नेता के तौर पर खासे लोकप्रिय योगी आदित्यनाथ को, लेकिन इससे एक बात तो बिलकुल स्पष्ट है कि देश में हिंदुत्व का आधार लगातार विस्तृत होता जा रहा है। निस्संदेह इस तरह की स्थिति पैदा करने में संघ का भी बड़ा योगदान है।

अतीत में संघ हमेशा से एक दूरी बनाकर रहा है, क्योंकि तब यह अंतिम विवेचक की भूमिका में था। लेकिन आज की तारीख में, विशेषकर उत्तर प्रदेश चुनावों में भाजपा को जबरदस्त जीत मिलने के बाद यह हिंदू बहुमत को लेकर आश्वस्त है और अब यह खुलकर सामने आने में भी नहीं हिचकता। इसने 2019 के लोकसभा चुनावों के लिए भी अभी से कमर कस ली है। बातों को बिना घुमाए संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत साफ कह रहे हैं कि संघ पर हमलों में बढ़ोतरी और 2019 के लोकसभा चुनावों के लिए स्वयंसेवक तैयार हैं। हाल ही में संपन्न हुए विधानसभा चुनावों के बाद जो परिदृश्य उभरकर सामने आया है, उससे संघ को भी इस बात का भान हो गया है कि इसके खिलाफ सभी विपक्षी दल एक हो सकते हैं। इस स्थिति में भाजपा नेतृत्व वाला एनडीए गठबंधन अपना आधार खो सकता है। संघ या दूसरे शब्दों में कहें, तो भाजपा इस हकीकत से भलीभांति परिचित है कि उत्तर प्रदेश में 42 फीसदी मत मिलने के बावजूद दूसरे दलों ने साझा पर्यत्नों से 55 फीसदी मत हासिल कर लिए थे। संक्षेप में इसका अर्थ यही हुआ कि भाजपा विरोधी दलों को एक छत के नीचे आ जाना चाहिए। बहरहाल मौजूदा संदर्भों में इसकी किसी तरह की कोई संभावना नहीं दिखती।

 आज विपक्षी दलों के सामने अस्तित्व का जो खतरा आ खड़ा हुआ है, वह उनको आपसी मतभेदों को भुलाकर भगवा ब्रिगेड के खिलाफ एक कर सकता है। भारत के प्रसिद्ध न्यायविद और अर्थशास्त्री नानी पालकीवाला ने एक बार कहा था, ‘जब आपका घर आग में जल रहा हो, तो उस वक्त इस उलझन में नहीं पड़ना चाहिए कि पहले ड्राइंग रूम बचाया जाए या रसोईघर को। आपको अपने पूरे घर को बचाने के लिए यत्न करना चाहिए।’ उनका इशारा संसद में जनसंघ के बहुमत के संभावित खतरों की ओर था। यह अलग विषय है कि जिस जनता पार्टी में जनसंघ के बहुत से सदस्य शामिल हो गए थे, वह आगे चलकर 1977 में केंद्र की सत्ता में आ गई थी। लेकिन यहां गौरतलब पहलू यह था कि इसके संघ से बड़े घने संबंध थे। हालांकि जनसंघ के संघटकों, जो कि अब सत्ताधारी भाजपा का हिस्सा हैं, ने संघ के साथ ज्यादा मेल-मिलाप में दिलचस्पी नहीं दिखाई। परिणामस्वरूप लालकृष्ण आडवाणी ने इसका दामन छोड़कर भाजपा की स्थापना की दी। इसके बाद अटल बिहारी वाजपेयी सरीखे उदारवादी नेताओं ने भी जनता पार्टी से किनारा कर लिया। यह वरदान साबित हुआ, क्योंकि उनके विराट व्यक्तित्व ने कट्टरपंथी ताकतों को हावी नहीं होने दिया।

इससे यही पता चलता है कि देश में अब तक पंथनिरपेक्षता अपनी जड़ें नहीं जमा पाई है। इसे दुर्भाग्यपूर्ण ही माना जाएगा कि पंथनिरपेक्ष लोकतांत्रिक देश की स्थापना के ध्येय के साथ जो आजादी का आंदोलन लड़ा गया या जिस श्रेष्ठ विचार को आगे चलकर संविधान की प्रस्तावना में भी स्थान दिया गया, वह अब तक हमारे व्यवहार में उतर नहीं सका है। हिंदूवादी तत्त्व धीरे-धीरे ही सही, लेकिन निरंतर देश में जड़ें गहरी करते जा रहे हैं। आप देख सकते हैं कि आज केरल में भी मृदु हिंदुत्व अपने पैर पसारता जा रहा है, जहां पहली मर्तबा भाजपा ने अपने लिए रास्ते खोलने शुरू कर दिए हैं। भारतीय जनता पार्टी ने जनता की कल्पनाओं पर कब्जा करते हुए देश के दर्जन भर से भी अधिक राज्यों में अपनी सत्ता कायम कर ली है। इसका एक मतलब यह भी निकलता है कि जिन राज्यों पर कभी कांग्रेस का राज हुआ करता था, आज वहां भी कांग्रेस की पकड़ कमजोर पड़ चुकी है। उत्तर प्रदेश के मामले को केंद्र में रखकर समझने की कोशिश करें, तो क्षेत्रीय दलों का आधार भी सिमटता जा रहा है। स्वाभाविक है कि भाजपा भारतीय समाज के एक बड़े तबके के मन-मस्तिष्क को प्रभावित करने में सफल रही है। राज्यसभा चुनावों में भी अब इसका पलड़ा भारी होता दिख रहा है।

गुजरात और हिमाचल प्रदेश विधानसभाओं को लेकर इस वर्ष के अंत में होने वाले चुनावों से यह बात काफी हद तक साफ हो जाएगी कि क्या भाजपा लोकसभा में अपना स्थान सुरक्षित रख पाएगी या नहीं। हालांकि भविष्य किसी बड़े अमंगल का संकेत दे रहा है। राम मंदिर निर्माण का मामला देश के भविष्य को नई सूरत दे सकता है और इससे धु्रवीय फासला और भी अधिक बढ़ सकता है। योगी आदित्यनाथ ने भी मोदी के मूल वाक्य, ‘सबका साथ, सबका विकास’ को दोहराया है, लेकिन पार्टी की प्रवृत्ति को तो एक रात में नहीं बदला जा सकता। राम मंदिर को लेकर यूपी के नए मुख्यमंत्री ने फिलहाल अपने पत्ते नहीं खोले हैं, लेकिन आज नहीं तो कल उन्हें भाजपा या संघ के एजेंडे का अनुसरण करना ही होगा। अगर भाजपा उच्च कमान इसी तरह से देश के शक्तिशाली योगियों को राज्यों के मुख्यमंत्री बनाती रही, तो इससे पार्टी की मंशा को सहज ही समझा जा सकता है।

राम मंदिर मसले पर उच्चतम न्यायालय की पीठ ने जो सुझाव दिया उसको लेकर भाजपा में जो उत्साह देखने को मिल रहा है, उतना शायद ही किसी और दल में देखने को मिला हो। लंबे अरसे से खिंचे चले आ रहे इस मामले का अब कोई अंतिम समाधान हो ही जाना चाहिए, ताकि इससे जुड़े दोनों ही पक्षों को राहत मिल सके। सालों से यह मामला चल रहा है और कोर्ट को कानूनसम्मत अपना फैसला सुनाना ही चाहिए। लेकिन निकट भविष्य में इसकी कोई संभावना बनती नहीं दिख रही।

ई-मेलः kuldipnayar09@gmail.com