सीधी सबसिडी ही सही समाधान

डा. भरत झुनझुनवाला

लेखक, आर्थिक विश्लेषक एवं टिप्पणीकार हैं

कृषि विषयों के जानकार देवेंदर शर्मा के अनुसार 1970 से 2015 के बीच खाद्यान्न के समर्थन मूल्य मे 20 गुना वृद्धि हुई है। इसी अवधि मे सरकारी कर्मियों के वेतन मे 120 गुणा वृद्धि हुई है। अतः किसानों की आय में वृद्धि अवश्य हो रही है, परंतु कछुए की चाल से जबकि समाज के दूसरे वर्गों की आय में वृद्धि खरगोश की चाल से हो रही है। यही समाज का किसान के प्रति अन्याय है। इस अन्याय के प्रायश्चित स्वरूप किसान ऋण माफी की मांग कर रहे हैं और समाज उनकी मांग को स्वीकार कर रहा है, परंतु यह किसानों के ऋण की समस्या का स्थायी समाधान नही है जैसे बार- बार डायलिसिस करना किडनी की समस्या का समाधान नही है…

वर्ष 2009 मे मनमोहन सिंह ने किसानों के ऋण को माफ  किया था, परंतु किसानों की आत्महत्याओं का दौर बंद नही हुआ। अब आदित्यनाथ ने उत्तर प्रदेश के किसानो का पुनः ऋण माफ  किया है। ऋण माफी की आग पूरे देश मे फैल रही है। संभवतः सभी राज्यों को मजबूरन ऋण माफ  करने होंग, लेकिन 5 वर्षों के बाद समस्या ज्यों की त्यों पुनः प्रकट हो जाएगी। जैसे 2009 की ऋण माफी के बाद आज प्रकट हो गई है। किडनी के मरीज को बार- बार डायलिसिस पर ले जाकर जीवित रखा जाता है, उसी तरह हमारी सरकारें किसान के ऋण को बार- बार माफ  करके उसे जीवित रखने के जतन में लगी हुई हैं।

ऋण माफ  करने के पीछे मूल सोच है कि समाज ने किसान के साथ अन्याय किया है। इस अन्याय के कारण किसान ऋण से दब गया है। अतः उसके ऋण को माफ  करके समाज प्रायश्चित कर रहा है। अन्यथा ऋण माफ  करने का कोई औचित्य नही बनता है। हमे किसान के साथ किए गए अन्याय का निराकरण करना होगा। समस्या जटिल है चूंकि बीते समय में किसान की आय मे वृद्धि हुई है। भारत सरकार द्वारा प्रकाशित आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार वर्ष 2005 से 2014 के बीच खाद्यान्नों के दाम का सूचकांक 100 से बढ़ कर 231 हो गया है। इसी अवधि में सभी वस्तुओं के दाम का सूचकांक 100 से बढ़ कर 180 हुआ है। अन्य तमाम माल की तुलना में खाद्यान्नों के दाम में अधिक वृद्धि हुई है। इसका अर्थ है कि किसानों की आय मे वृद्धि हुई है। हमारा प्रत्यक्ष अनुभव इस बात की पृष्टि करता है। आज गांवों में तमाम पक्के मकान दिखने लगे हैं। लोग बाइक पर शहर जा रहे हैं, इत्यादि।

लेकिन किसानों की आय में यह वृद्धि समाज के दूसरे तबकों की तुलना में बहुत कम है। कृषि विषयों के जानकार देवेंदर शर्मा के अनुसार 1970 से 2015 के बीच खाद्यान्न के समर्थन मूल्य मे 20 गुना वृद्धि हुई है। इसी अवधि मे सरकारी कर्मियों के वेतन मे 120 गुणा वृद्धि हुई है। अतः किसानों की आय में वृद्धि अवश्य हो रही है, परंतु कछुए की चाल से जबकि समाज के दूसरे वर्गों की आय में वृद्धि खरगोश की चाल से हो रही है। यही समाज का किसान के प्रति अन्याय है। इस अन्याय के प्रायश्चित स्वरूप किसान ऋण माफी की मांग कर रहे हैं और समाज उनकी मांग को स्वीकार कर रहा है, परंतु यह किसानों के ऋण की समस्या का स्थायी समाधान नही है जैसे बार- बार डायलिसिस करना किडनी की समस्या का समाधान नही है।

समस्या का सीधा समाधान यह हो सकता है कि खाद्यान्नों के दाम मे वृद्धि हासिल की जाए। खाद्यान्न के दाम में भी 120 गुना वृद्धि हो जाए, तो किसान की आय भी खरगोश की चाल से बढ़ने लगेगी। यह कार्य दुष्कर है क्योंकि कृषि उत्पादों के वैश्विक दाम गिर रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र के फूड एंड एग्रीकल्चर आर्गेनाइजेशन के अनुसार 2011 से 2016 की अवधि में खाद्य पदार्र्थों के दाम का वैश्विक सूचकांक 229 से घट कर 151 रह गया है। खाद्य पदार्थों के वैश्विक दाम गिर रहे हैं। ऐसे में देश में इनके दामों में वृद्धि हासिल करना अत्यंत कठिन है।

किसान की आय में वृद्धि का दूसरा उपाय उत्पादन की मात्रा में वृद्धि हो सकता है। सरकार का प्रयास है कि कृषि उत्पादन में वृद्धि हासिल की जाए। जैसे कोल्ड स्टोरेज, सिंचाई, ग्रामीण सड़क, फर्टिलाइजर सबसिडी, सॉयल हैल्थ कार्ड आदि योजनाएं सरकार द्वारा लागू की जा रही हैं। इन योजनाओं से कृषि उत्पादन में वृद्धि हुई भी है। आज हमारी बढ़ती जनसंख्या का पेट भरने में हम सक्षम हैं, लेकिन किसान की हालत में सुधार नही हुआ है। कारण है कि उत्पादन में वृद्धि होने पर बाजार में खाद्य पदार्थों के दाम में गिरावट आती है और बढ़ा हुआ उत्पादन किसान के लिए अभिशाप बन जाता है। बीते वर्ष गुजरात तथा राजस्थान में आलू की फसल के साथ ऐसा ही हुआ था। किसानों ने आलू को मंडियों के सामने नालों में डंप कर दिया था। अतः उत्पादन बढ़ाने से किसान के ऋण की समस्या का हल नही होता है। किसान चारों तरफ  से घिरा हुआ है। उसकी आय में वृद्धि कछुए की चाल से हो रही है। कृषि उत्पादों के दाम में तीव्र वृद्धि संभव नही है चूंकि वैश्विक दाम गिर रहे हैं। कृषि उत्पादन की मात्रा में वृद्धि से भी समस्या का हल नही होता है क्योंकि दाम गिर जाते हैं।  इस परिस्थिति में किसान की समस्या का एक मात्र हल है कि उसे सीधे नकद सबसिडी दी जाए जैसा कि विकसित देशों द्वारा किया जा रहा है।

आज देश में लगभग 6 करोड़ छोटे किसान हैं, जिनके पास एक एकड़ से कम भूमि है। 4 करोड़ किसानों के पास इससे अधिक भूमि है। ऋण की समस्या मुख्यतः 6 करोड़ छोटे किसानों की है। वर्ष 2015-16 में केंद्र सरकार ने कृषि पर लगभग 103 हजार करोड़ खर्च किए थे। इसमें मनरेगा पर खर्च की गई रकम शामिल है। राज्य सरकारों द्वारा कृषि पर 263 हजार करोड़ खर्च किया गया था। कुल खर्च 366 हजार करोड़ रुपए हुआ। बीते दो वर्षों में इसमें वृद्धि हुई होगी। मेरा अनुमान है कि वर्तमान वर्ष 2017-18 में यह रकम लगभग 450 करोड़ रुपए होगी। इसमें आधी रकम को रिसर्च जैसे आवश्यक कार्यों के लिए मान लिया जाए और मनरेगा जैसे तमाम शेष कार्यक्रमों को समाप्त कर दिया जाए, तो वर्तमान बजट से ही लगभग 225 हजार करोड़ की रकम उपलब्ध हो सकती है।

 इसके अतिरिक्त बिजली तथा फर्टिलाइजर पर सबसिडी दी जा रही है। इन्हें समाप्त करके इन पर व्यय की जा रही रकम को जोड़ लें तो लगभग 400 हजार करोड़ की रकम उपलब्ध हो सकती है। इस रकम को 6 करोड़ छोटे किसानों के खातों मे सीधे डाल दिया जाए, तो प्रत्येक किसान को 66,000 रुपए प्रतिवर्ष या 5,500 रुपए प्रति माह की सबसिडी दी जा सकती है। इसके बाद किसान को बाजार के हवाले छोड़ा जा सकता है।

तब किसान ऋण माफी की मांग नहीं कर सकेगा। क्योंकि उसे 5,500 रुपए प्रति माह सीधे मिल रहे होंगे। किसानों की ऊर्जा मनरेगा के अंतर्गत दिखाऊ कार्य करने से मुक्त हो जाएगी। ऋण माफी का आंदोलन करने की भी जरूरत नही रह जाएगी। बचे हुए समय को वे कृषि में लगा सकेंगे। समय- समय पर ऋण माफी के जंजाल से सरकार और किसान दोनों को मुक्त करके किसान को सीधे सबसिडी देना एकमात्र हल है।

ई-मेल : bharatjj@gmail.com

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