प्रणब के कार्यकाल का लेखा-जोखा

कुलदीप नैयर

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं

प्रणब मुखर्जी ने वक्त का तकाजा समझ लिया और घोषणा कर दी कि वह वर्ष 2014 का चुनाव नहीं लड़ेंगे। पहले से तैयार बैठी सोनिया गांधी ने इसे स्वीकृति दे दी क्योंकि वह राहुल गांधी का रास्ता पहले ही साफ कर चुकी थीं। मुखर्जी स्पष्टीकरण देने के लिए कुछ कर चुके होते अगर कांग्रेस, जिसका उन्होंने प्रतिनिधित्व किया, के पास उनके खिलाफ यह लंबित आरोप न होता। कांग्रेस को खुद सोचना चाहिए कि वह कैसे स्वयं को पाक साबित करती है। उसे राष्ट्र को बताना चाहिए कि कैसे व क्यों बोफोर्स व राष्ट्रमंडल खेल जैसे घोटाले हुए…

अपना पांच वर्ष का कार्यकाल पूरा करके राष्ट्रपति पद के कार्यभार से मुक्त हो रहे प्रणब मुखर्जी का प्रशासक के तौर पर मूल्यांकन करना मुश्किल नहीं है। प्रथम दृष्टया वह इस पद के लिए एक गलत पसंद थे और उन्हें इस पद को सुशोभित नहीं करना चाहिए था। आपातकाल के दौरान संविधानेत्तर सत्ता के रूप में कार्य करने वाले संजय गांधी के साथ प्रणब मुखर्जी काम कर चुके हैं। यह तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा थोपा गया तानाशाही शासन था, जिसमें मौलिक अधिकार तक निलंबित कर दिए गए। प्रणब मुखर्जी तब वाणिज्य मंत्री थे, जिन्होंने संजय गांधी के कहने पर लाइसेंस जारी किए अथवा निरस्त कर दिए। लोकतांत्रिक राष्ट्र के लिए तानाशाही शासन अपमान की बात थी। प्रणब मुखर्जी ने अपना पद संविधान का उल्लंघन कर हासिल किया था और उनके इस शासन के लिए उनकी निंदा की जा सकती है।  जब सोनिया गांधी ने प्रणब मुखर्जी को इस पद के लिए उम्मीदवार घोषित किया था तो उनकी आलोचना हुई थी। इसके बावजूद उनका नामांकन उस व्यक्ति के लिए एक उपहार था, जो अपने सियासी आका के कहने पर दिन को भी रात कह देते थे। उन्हें स्वयं अपनी उपलब्धियों का मूल्यांकन करना चाहिए और निष्कर्ष निकालना चाहिए कि उनसे जो आशाएं थीं, क्या वे पूरी हुईं। मैं काफी समय पहले उस वक्त उनसे मिला था, जब वह राष्ट्रपति भवन में थे। मैं यह जानकर चिंतित हो गया कि यह एक ऐसा शासन था जिसका नकारात्मक प्रभाव था। अगर वह एक संवेदनशील व्यक्ति होते तो उन्हें आपातकाल के 17 महीनों के दौरान हुए गलत कार्यों का आभास होना चाहिए था। अगर यह भी नहीं तो उन्हें कम से कम उस आपातकाल के लगाने पर पछतावा प्रकट करना चाहिए था, जिसके दौरान बिना मुकदमा चलाए एक लाख लोग गिरफ्तार कर लिए गए थे, प्रेस पर पाबंदी लगा दी गई थी और सरकारी अफसर सही और गलत के बीच भेद करना भूल गए थे। भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने प्रेस को ठीक ही कहा था, ‘आपको नपने के लिए कहा गया था, लेकिन आपने मंद गति से चलना शुरू कर दिया।’

सोनिया गांधी ने उन्हें इसलिए नियुक्त किया था क्योंकि उन्होंने इस परिवार की वफादारी के साथ सेवा की थी। लोगों ने उन्हें तथा इंदिरा गांधी को चुनाव में हराकर ठीक ही किया था। आपातकाल हटने के बाद चुनाव में न केवल इंदिरा गांधी हरा दी गईं, बल्कि कांग्रेस पार्टी को भी सत्ता से बाहर कर दिया गया था। इस तरह लोगों ने चुनाव में बदला लिया था। प्रणब मुखर्जी की नियुक्ति राष्ट्र के चेहरे पर तमाचे जैसी थी। लोगों ने कभी भी तानाशाह का समर्थन नहीं किया और न ही उन्होंने ऐसे किसी व्यक्ति का सम्मान किया जिसने लोकतंत्र और सेकुलरिज्म जैसे आजादी के आदर्शों का उल्लंघन किया था। इस मामले में संविधान तक की अवज्ञा हुई थी। मुझे आशा थी कि राष्ट्रपति बनने के बाद कभी न कभी प्रणब मुखर्जी स्वयं इस आपातकाल को याद करेंगे। लोकतंत्र व बहुलवाद को कुचलने पर पछतावा व्यक्त करने का उन्हें कम से कम एक उदाहरण पेश करना चाहिए था। ऐसा करके उन्हें एहसास हो जाता कि उन्होंने कुछ बेहतर किया है। लोकतंत्र की दृष्टि से भी यह अच्छा हुआ होता, क्योंकि लोगों की ताकत ने ही अपना शासन कायम करने के लिए अंगे्रजों को देश से खदेड़ दिया था। मुझे विश्वास है कि अगर कभी प्रणब मुखर्जी अपने संस्मरण लिखेंगे, तो वह अपनी विफलताओं की सूची बताने में हिचकिचाएंगे नहीं। लोगों ने शायद ही कभी इतना उपेक्षित महसूस किया हो, जितना उन्होंने प्रणब मुखर्जी के राष्ट्रपति के रूप में काम करते महसूस किया। अगर अब तक लोकपाल की नियुक्ति हो गई होती, तो उसने यह बता दिया होता कि प्रणब मुखर्जी कहां विफल रहे हैं। दुख की बात है कि हमारे देश में ऐसा कोई संस्थान अभी तक नहीं है।

भारतीय जनता पार्टी, जो कि अकसर मूल्यों की बात करती है, को राजनीति से ऊपर उठ कर लोकपाल की नियुक्ति करनी चाहिए। तभी सही और गलत, नैतिक और अनैतिक के बीच का अंतर समझने में सुविधा होगी। हालांकि प्रणब मुखर्जी काफी देर कर चुके हैं, फिर भी उन्हें राष्ट्रपति भवन से कहना चाहिए कि वह तथा उनकी पार्टी कांग्रेस को आपातकाल लगाने का पछतावा है। यह राष्ट्र के चेहरे पर एक जख्म है, जिसका इलाज किया जाना चाहिए। इस बात का महत्त्व नहीं है कि उन्होंने पद छोड़ दिया है। महत्त्व इस बात का है कि संविधान सभा में विचारे गए तथा संविधान में स्थापित किए गए आदर्श ऐसा करके लोकतांत्रिक राष्ट्र को वापस मिल जाएंगे। संस्थानों के मुखियाओं की सामान्यतः आलोचना नहीं होती है। इस तरह के विचार के पीछे सोच यह है कि आलोचना, जो कि लोकतांत्रिक शासन के लिए जरूरी है, से संस्थानों को क्षति पहुंचेगी। इस विचार के कारण प्रणब मुखर्जी को छूट मिलती रही है। इसलिए राष्ट्रपति को उस स्थिति में भी क्षमा कर दिया जाता है, जब वह अपनी सीमाएं लांघता है। इस विचार के कारण प्रणब मुखर्जी बचते रहे हैं, जबकि समानांतर पद पर बैठे व्यक्ति को दंडित किया गया हो। हालांकि इसके कारण उसे कोई लाइसेंस नहीं मिल जाता। उसे खुद को मिले विशेषाधिकारों के कारण मूल्यों का उल्लंघन नहीं करना चाहिए। यह एक स्वदेशी रेडियो स्टेशन था जिसने सबसे पहले रिश्वत की खबर को ब्रेक किया। सूत्र एक ‘गहरा गला’ था जिसका  नाम आज तक उजागर नहीं किया गया है।

उसने इस जानकारी को पत्रकार चित्रा सुब्रह्मण्यम से साझा किया जो उस समय इंडियन एक्सप्रेस के लिए काम कर रहे थे। ‘गहरा गला’ एक भीतरी आदमी था तथा वह रिश्वत की बात सुनकर डर गया था। रिश्वत पहले 64 करोड़ रुपए रखी गई, जो कि बाद में तीन हजार करोड़ रुपए तक पहुंच गई। मुखर्जी को विश्वास था कि कांग्रेस के मुश्किल दिनों के दौरान संकटमोचक के रूप में उन्होंने जो भूमिका निभाई थी, पार्टी उसे नजरअंदाज नहीं कर सकती। लेकिन सोनिया गांधी का अपने पुत्र राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाने का निश्चय प्रणब मुखर्जी के राजनीतिक लक्ष्य में आड़े आ गया। हालांकि इससे वह थोड़े व्यथित भी हुए, लेकिन उन्होंने वक्त का तकाजा समझ लिया और घोषणा कर दी कि वह वर्ष 2014 का चुनाव नहीं लड़ेंगे। पहले से तैयार बैठी सोनिया गांधी ने इसे स्वीकृति दे दी क्योंकि वह राहुल गांधी का रास्ता पहले ही साफ कर चुकी थीं। मुखर्जी स्पष्टीकरण देने के लिए कुछ कर चुके होते अगर कांग्रेस, जिसका उन्होंने प्रतिनिधित्व किया, के पास उनके खिलाफ यह लंबित आरोप न होता। कांग्रेस को खुद सोचना चाहिए कि वह कैसे स्वयं को पाक साबित करती है। उसे राष्ट्र को बताना चाहिए कि कैसे व क्यों बोफोर्स व राष्ट्रमंडल खेल जैसे घोटाले हुए।

ई-मेल : kuldipnayar09@gmail.com

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