लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं
मैंने हाल में व्यर्थ में ही अपने प्रिय टेलीविजन एंकर करन थापर और बरखा दत्त को लेकर खोज की। मुझे बताया गया कि उन्हें हटा दिया गया है। यह किसने किया, यह अटकलबाजी से जुड़ा मसला है। कोई कहता है कि यह नरेंद्र मोदी सरकार का दबाव है, जबकि कुछ अन्य कहते हैं कि यह चैनल के मालिकों की कार्रवाई है। यह चाहे किसी ने भी किया हो, उसने सेंसर अथवा नियंत्रक के रूप में काम किया है। जो मुझे हैरान कर रहा है, वह है विरोध की गैर मौजूदगी। मेरे समय में ऐसा हुआ होता, तो शोर मच गया होता अथवा यह दिखाने के लिए बैठकों का दौर चल निकला होता कि प्रेस का मुंह बंद कर दिया गया है अथवा आलोचकों को चुप करवा दिया गया है। बेशक, जब आपातकाल लगा था तो यह एक अलग कहानी थी, लेकिन इसे लगाने से पहले प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने प्रेस के खिलाफ अभियान चलाने की योजना मेहनत से बनाई थी। उन्होंने पहले अपने समर्थक देखे थे और वहां कुछ समर्थक थे भी, परंतु आलोचक भी काफी संख्या में थे। वर्ष 1975-77 में जब आपातकाल लगाया गया था। उस समय को याद करते हुए मुझे स्मरण हो आता है कि उन्होंने विजयी अंदाज में कहा था कि एक कुत्ता तक नहीं भौंकना चाहिए। इस बात से मुझे और अन्य पत्रकारों को बुरा लगा। हम प्रेस क्लब में एकत्र हुए, हम तब 103 पत्रकार थे और प्रेस पर पाबंदी लगाने की निंदा करते हुए एक प्रस्ताव पारित किया। सूचना मंत्री वीसी शुक्ला, जो मुझे अच्छी तरह जानते थे, ने फोन करके चेतावनी दी कि आप में से सबको जेल की सलाखों के पीछे ठोंक दिया जाएगा। यही हुआ और मुझे भी तीन महीने तक हिरासत में रखा गया।
मेरी आंखों के सामने यह अवधि उस समय फिर उभर कर आ गई, जब एक बार तस्लीमा नसरीन ने कहा कि विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में बहुत कम विपक्षी आवाजें सुनी जाती हैं। कोलकाता छोड़ने के बाद उन्हें औरंगाबाद तक सीमित कर दिया गया था। वह बांग्लादेश से हैं और वहां के कट्टरवादियों ने उन्हें देश से इसलिए निकाल दिया था, क्योंकि उन्होंने ‘लज्जा’ नाम की एक पुस्तक लिखी थी। इस पुस्तक में बांग्लादेश में हिंदू महिलाओं से कट्टरवादियों द्वारा किए जा रहे बुरे व्यवहार का उल्लेख किया गया था। यह भारतीय लोकतंत्र पर एक धब्बा है कि वह अपनी पसंद के एक शहर में नहीं रह सकतीं। मुझे बताया गया कि कुछ दिन पहले उन्होंने दिल्ली के लिए औरंगाबाद छोड़ा, परंतु वहां उन्हें उतरने की इजाजत नहीं दी गई और वापस औरंगाबाद भेज दिया गया। इस घटनाक्रम पर मैं और कुछ नहीं बोलना चाहता हूं, लेकिन मेरे दिमाग में जो है, वह है हमारे लोकतंत्र के लिए खतरा। आपातकाल को वास्तव में लगाए बिना ही उस जैसी स्थिति आ सकती है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कई शैक्षणिक संस्थानों के उदारवादी मुखियाओं को हटाने में सफल हो चुका है। मैंने नेहरू मेमोरियल सेंटर के केस का अनुगमन किया और आश्चर्यजनक रूप से पाया कि वहां प्रसिद्ध उदारवादी लोग गैर मौजूद थे। सच है कि भारतीय जनता पार्टी और आरएसएस अंतिम शब्द हैं, लेकिन वे वोट मांगने के लिए जनता के पास नहीं गए। यह आरएसएस के एजेंडे में भी कभी नहीं रहा। अभी तक तस्लीमा नसरीन का केस है, जिसकी व्याख्या की जानी है। कोई भी भारतीय हवाई अड्डा उन्हें औरंगाबाद के निकटतम स्टेशन पुणे के अलावा इजाजत नहीं देगा। स्पष्ट रूप से सरकार ने अनिवार्यतः निर्देश दे रखे हैं कि उन्हें अन्य स्थानों पर नहीं जाने दिया जाए।
यह सब ईरान द्वारा सलमान रश्दी के खिलाफ जारी किए गए फतवे की तरह है। यह फतवा रश्दी की किताब ‘सेटेनिक वर्सेज’, जिसमें इस्लाम पर कुछ सवाल उठाए गए हैं, के कारण जारी किया गया था। भारतीय राष्ट्र को हर समय सतर्क रहना है क्योंकि यह पूर्व में 19 माह की सेंसरशिप झेल चुका है। जैसा कि लालकृष्ण आडवाणी ने एक बार प्रेस को कहा था कि आपको झुकने के लिए कहा गया था, परंतु आपने धीरे-धीरे चलना शुरू किया, प्रेस सतर्कता का काम पहले भी कर चुकी है। काफी हद तक आडवाणी ठीक थे। पत्रकार भयभीत थे और शंकित थे कि इंदिरा गांधी सरकार उन्हें मुकदमेबाजी में फंसा सकती है। यहां तक कि प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया, जो प्रेस की स्वतंत्रता की पक्षकार है, ने भी इंदिरा गांधी के समर्थन में झंडा उठाए उनके समर्थकों से जवाबतलबी की थी। आज यही बात दूसरे तरीके से हो रही है। प्रेस का भगवाकरण हो चुका है तथा प्रिंट तथा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में प्रेस की स्वतंत्रता को लेकर चर्चा हो रही है। अब और तब की परिस्थितियों में बहुत थोड़ा अंतर है, क्योंकि अखबारों और टेलीविजन चैनलों के मालिकों व पत्रकारों के दिमाग में अस्तित्व का प्रश्न मुख्यतः घूम रहा है। एनडीटीवी दबाव में है, क्योंकि इसके मालिक प्रणव राय ने कर्ज लिया था। लेकिन सीबीआई ने सरकार की ओर से आरआरपीआर होल्डिंग प्राइवेट लिमिटेड, प्रणव राय, उनकी पत्नी राधिका और आईसीआईसीआई बैंक के अज्ञात अधिकारियों के खिलाफ आपराधिक षड्यंत्र, धोखाधड़ी व भ्रष्टाचार का केस दर्ज किया है। सरकार को करन थापर व बरखा दत्त को तंग करने का कोई न कोई रास्ता मिल ही जाएगा क्योंकि इनके इस टीवी चैनल से वर्षों से संबंध रहे हैं। ये दोनों असंतुष्ट लोगों के मसलों को जोर-शोर से उठाते रहे हैं। जाहिर है कि सरकार को यह अच्छा नहीं लगा होगा। संभवतः चैनल पर इसी कारण इनको हटाने के लिए दबाव पड़ा होगा।
हम आजादी का वातावरण वापस कैसे ला सकते हैं? यही प्रश्न है, जिसका सामना आज देश कर रहा है। ऐसी स्थिति में लोगों को स्वतंत्र खबरें तो मिल नहीं सकतीं। अमरीका में भी एक बार ऐसी स्थिति आई थी और पत्रकारों ने इकट्ठे होकर अपना न्यूज चैनल शुरू किया था। यह साहस का एक काम था। करण थापर व बरखा दत्त दोनों को याद रखना होगा कि उनकी आगे की यात्रा लंबी व कठिन है। सरकार उन्हें अपने पक्ष में करने के लिए कोई लालच भी दे सकती है, परंतु उन्हें जंगलराज जैसी चुनौती के सामने दृढ़ता के साथ खडे़ रहना है। यह आसान काम नहीं है, लेकिन अपने चरित्र के कारण वे ऐसा कर सकते हैं। मेरा समर्थन उनके साथ है, चाहे इसकी कोई भी कीमत क्यों न चुकानी पड़े। वे शौर्य की मिसाल हैं। अब यह उनके साहस तथा प्रेस की ओर से उन्हें मिलने वाले समर्थन पर निर्भर करता है। न केवल मीडिया, बल्कि पूरा देश उनकी ओर देख रहा है। जो आपातकाल में हुआ, वह अब नहीं होना चाहिए। तब प्रेस दुर्भाग्य से फेल हुई थी, परंतु आज हम मिलकर प्रेस की आजादी को बचा सकते हैं।
ई-मेल : kuldipnayar09@gmail.com
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