आरक्षण से लूट का बंटवारा

डा. भरत झुनझुनवाला

लेखक, आर्थिक विश्लेषक एवं टिप्पणीकार हैं

पूर्व में सरकारी कर्मियों के वेतन आम जनता की आय के समकक्ष थे। संभवतः भ्रष्टाचार की आय भी कम थी। तब सरकारी नौकरी से दलित को विशेष व्यक्तिगत लाभ नहीं मिलता था। वह अपने पद का उपयोग दलितों की सेवा के लिए कर सकता था जैसे बिजली विभाग का दलित एग्जीक्यूटिव इंजीनियर पहले दलित बस्ती को बिजली पहुंचा सकता था। अब एग्जीक्यूटिव इंजीनियर के वेतन बढ़ गए हैं। घूस की आय भी प्रचुर मात्रा में है। अब उसका ध्यान दलित और सामान्य बस्तियों सभी से अधिकाधिक घूस वसूलने पर है…

जाति आधारित चुनावी तथा सरकारी नौकरियों में आरक्षण का देश को बहुत लाभ हुआ है। पूर्व में देश पर जब मुगलों तथा अंग्रेजों के आक्रमण हुए थे, तो भारत के ‘आम आदमी’ ने अपने स्वदेशी आततायी शासकों के विरोध में आक्रमणकारियों का साथ दिया था। इन ‘आम आदमी’ में दलित प्रमुख थे। हमारे राजाओं की पराजय का एक महत्त्वपूर्ण कारण दलितों का देश के शासकों के प्रति विद्रोह था। आरक्षण के कारण आज दलित देश की मुख्यधारा में जुड़ रहे हैं, लेकिन बीते समय में सरकारी नौकरियों में आरक्षण का रूप बदल गया है। अब यह एक तरह से लूट का साधन बन गया है। इसलिए आज इस आरक्षण के माध्यम से दलित कर्मी अपने जाति के भाइयों के उद्धार के स्थान पर देश की लूट में अपने हिस्से की मांग मात्र कर रहे हैं।

पूर्व में सरकारी कर्मियों के वेतन आम जनता की आय के समकक्ष थे। संभवतः भ्रष्टाचार की आय भी कम थी। तब सरकारी नौकरी से दलित को विशेष व्यक्तिगत लाभ नहीं मिलता था। वह अपने पद का उपयोग दलितों की सेवा के लिए कर सकता था जैसे बिजली बोर्ड का दलित एग्जीक्यूटिव इंजीनियर पहले दलित बस्ती को बिजली पहुंचा सकता था। अब एग्जीक्यूटिव इंजीनियर के वेतन बढ़ गए हैं। घूस की आय भी प्रचुर मात्रा में है। अब उसका ध्यान दलित और सामान्य बस्तियों सभी से अधिकाधिक घूस वसूलने पर है। उसके लिए दलित और सामान्य जनता मात्र घूस का स्रोत बनकर रह गए हैं।

लूट की जमीनी स्थिति इस प्रकार है। वित्त मंत्रालय द्वारा प्रकाशित आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार सरकारी इकाइयों के कर्मियों का वर्ष 2007-08 में औसत वेतन 4,01,000 रुपए प्रति वर्ष था। दिल्ली स्थित इंस्टीच्यूट ऑफ स्टडी इन इंडस्ट्रियल डिवेलपमेंट द्वारा किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि उसी वर्ष निजी क्षेत्र के कर्मी का औसत वेतन 46,000 रुपए प्रति वर्ष था। वित्त मंत्रालय ने हाल के वर्षों में सरकारी इकाइयों के कर्मियों के औसत वेतन का आंकड़ा प्रकाशित करना बंद कर दिया है, इसलिए मुझे 2007-08 के वेतन की तुलना करनी पड़ रही है। संभव है कि वित्त मंत्रालय नहीं चाहता हो कि सरकारी कर्मियों द्वारा की जा रही लूट को जनता के सामने लाया जाए। बहरहाल 2007-08 में सरकारी कर्मियों का वेतन निजी क्षेत्र के कर्मियों से नौ गुना था। इसके ऊपर घूस की आय है। इंडियन इंस्टीच्यूट ऑफ मैनेजमेंट बंगलूर के प्रोफेसर आर वैद्यनाथन ने आकलन किया था कि सरकारी कर्मियों की घूस से आय उनके वेतन से चार गुना है। हाल में किसी यात्रा के दौरान मैंने गलती से अपनी टिकट रद्द कर दी थी और अनजाने ही टे्रन में बैठ गया। टीटी ने 1500 रुपए लिए, टिकट नहीं काटा और मुझे गंतव्य पर पहुंचा दिया। ऐसा पांच-सात लोगों के साथ किया हो तो उसकी घूस से दैनिक आय लगभग 10,000 रुपए या मासिक आय तीन लाख रुपए हुई। वेतन लगभग 70,000 रुपए होगा। इस गणित से प्रोफेसर वैद्यनाथन का आकलन ठीक बैठता है।

2007-08 में निजी कर्मी की तुलना में सरकारी कर्मी का वेतन लगभग नौ गुना था। वेतन से चार गुना आय घूस से हो रही थी। अतः कुल आय 45 गुना थी। सातवें वेतन आयोग एवं चौतरफा बढ़ रहे भ्रष्टाचार के कारण आज यह अंतर 50 गुना से ऊपर पहुंच ही गया होगा। सरकारी नौकरी का यही आकर्षण है। आज सभी जातियों द्वारा जो आरक्षण की मांग की जा रही है, वह इस लूट में अपने हिस्से की है। दलित सरकारी कर्मी को आज अपने समाज के उत्थान से कुछ लेना-देना नहीं रह गया है। फिर भी यह सही है कि लूट की इस आय से दलित सरकारी कर्मी की संतानें फाइव स्टार होटल में भोजन करने जा रही हैं और उनका मनोबल बढ़ रहा है-चाहे गलत दिशा में ही क्यों न हो। इस दुरूह परिस्थिति में हमारे सामने दो रास्ते हैं। एक रास्ता है कि सरकारी नौकरियों में आरक्षण को ही समाप्त कर दें।

जब सरकारी कर्मी का मुख्य ध्येय जनता को लूटना है तो इससे क्या अंतर पड़ता है कि सामान्य लूटे, दलित लूटे अथवा पिछड़ा लूटे। लेकिन इस कदम को उठाने को संपूर्ण समाज को निर्णय लेना होगा कि अतीत में सामान्य वर्ग द्वारा दलितों के प्रति किए गए अन्याय का प्रायश्चित पूरा हो गया है-जैसे किसी चोर को तीन साल के बाद प्रायश्चित पूरा होने पर जेल से छोड़ दिया जाता है। आरक्षण समाप्त करने का लाभ होगा कि सरकारी कर्मी कुशल होंगे। लूट की समस्या पूर्ववत बनी रहेगी। दूसरा उपाय है कि सरकारी कर्मियों द्वारा की जा रही लूट पर ही विराम लगा दिया जाए। इनकी आय का पहला स्रोत नौ गुना वेतन है। इस रोग का कारण है कि वेतन आयोगों के सदस्य वही सरकारी कर्मी होते हैं, जिन्हें आयोग की सिफारिशों से व्यक्तिगत लाभ होता है। जैसे वेतन आयोग ने यदि वेतन दो गुना कर दिया तो आयोग के प्रोफेसर सदस्य महोदय का व्यक्तिगत वेतन भी दो गुना हो जाएगा। अतः सरकार को चाहिए कि वेतन आयोग के सदस्य ऐसे व्यक्ति नियुक्त हों, जिन्हें सरकारी वेतन नहीं मिलता है जैसे मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, इंस्टीच्यूट ऑफ चार्टर्ड अकाउंटेंट, देश के सबसे बड़े किसान संगठन के अध्यक्ष आदि। एक विशेष वेतन आयोग तत्काल गठित किया जाए, जिसका उद्देश्य हो कि सरकारी कर्मी और निजी क्षेत्र के वेतन में संतुलन बनाए। इस आयोग की सिफारिशों को लागू करने को यदि जरूरी हो तो सरकारी कर्मियों के वेतन को घटा दिया जाए।

सरकारी कर्मियों की लूट का दूसरा स्रोत घूस है। इसका उपाय कौटिल्य ने बताया था कि एक जासूस व्यवस्था बनाई जाए जो भ्रष्ट कर्मियों को टै्रप करे। इस जासूस व्यवस्था के भ्रष्टाचार को रोकने के लिए एक और जासूस व्यवस्था बनाई जाए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ईमानदार अधिकारियों को कई महत्त्वपूर्ण पदों पर नियुक्त किया है। इन जासूस व्यवस्थाओं पर ईमानदार अधिकारियों को नियुक्त कर दें तो भ्रष्टाचार पर कुछ लगाम लग सकती है। सरकारी कर्मियों के वेतन तथा घूस से आय कम हो जाएगी तो सरकारी नौकरी का आकर्षण समाप्त हो जाएगा और लूट में अपने हिस्से की मांग करने को हो रहे आंदोलनों की हवा स्वतः निकल जाएगी।

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