गणतंत्र दिवस पुरस्कारों में पक्षपात

कुलदीप नैयर

लेखक, वरिष्ठ पत्रकार हैं

गणतंत्र दिवस पर विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञों, विशेषकर सैन्य कर्मियों को देश के भीतर व सीमा पर अद्भुत शौर्य प्रदर्शन के लिए सम्मानित किया जाता है। निस्संदेह ये लोग हर तरह से इस सम्मान के हकदार हैं, लेकिन पिछले कुछ वर्षों से इस संदर्भ में भी कई बड़े बदलाव महसूस किए जा रहे हैं। एक नई रिवायत के तहत इस अवसर पर सत्तासीन दल, जैसे वर्तमान में भाजपा, के  कार्यकर्ताओं को सम्मानित किया जाने लगा है। साफ तौर पर यह रिवायत संविधान निर्माताओं की बुनियादी सोच के खिलाफ मानी जाएगी…

पहले गणतंत्र दिवस के अवसर पर मुझे जिस उत्साह की अनुभूति हुआ करती थी, वह आज के दौर में नहीं हो पाती। मुझे आज भी अच्छी तरह से याद है कि इंडिया गेट के राजपथ पर थल सेना, जल सेना और वायु सेना की विभिन्न बटालियनों के लड़ाकू करतब देखने की चाह में हम सब सुबह जल्दी उठकर तैयारियां शुरू कर देते थे। पहले-पहल प्रधानमंत्री को इस दौरान सलामी देने की परंपरा थी, जबकि आज उनके स्थान पर राष्ट्रपति को यह सम्मान मिलता है। आज पूरा कार्यक्रम एक रस्म सा बनकर रह गया है। राष्ट्रपति भवन से घोड़ों द्वारा खींची जाने वाली बग्गी पर सवार होकर राष्ट्रपति मंच तक आते हैं, जहां प्रधानमंत्री उनका स्वागत करते हैं। यहां उन्हें सलामी दी जाती है। वहां जो कुछ भी होता है, उसमें एक तरह की औपचारिकता का भाव नजर आता है। सामान्य तौर पर देश के गणतंत्र दिवस के अवसर पर किसी विदेशी मेहमान को आमंत्रित करने का रिवाज है और उनके आतिथ्य सत्कार में कोई कमी नहीं रहती।

इस मर्तबा गणतंत्र दिवस के अवसर पर अतिथि चयन में सालों पुरानी चली आ रही परंपरा का त्याग किया गया। इस बार एक के स्थान पर अनेक अतिथि बुलाते हुए आसियान देशों के प्रतिनिधियों को आमंत्रित किया गया। मंच पर सभी मेहमानों के आसन की एक बेहतर व्यवस्था की गई थी। पहले जहां मंच पर करीब 35 फुट तक का आसन हुआ करता था, इस बार इसका आकार बढ़ाकर 90 फुट के करीब कर दिया गया था। लिहाजा कहा जा सकता है कि इस दौरान एक विशाल मंच सजा हुआ था। आसियान देशों के प्रमुख को इस अवसर पर आमंत्रित कर भारत सरकार ने न केवल इन देशों के साथ अपने सौहार्दपूर्ण एवं दोस्ताना रिश्तों को रेखांकित किया, बल्कि इन्हें भविष्य में और भी मजबूत करने का भाव निहित था। यह भारत की विदेश नीति का एक सुखद संकेत है।

आतिथ्य सत्कार की परंपरा से आगे बढ़कर गणतंत्र दिवस के इस लिहाज से भी काफी गहरे मायने हैं कि इसी दिन विभिन्न क्षेत्रों, विशेषकर सैन्य कर्मियों को देश के भीतर व सीमा पर अद्भुत शौर्य प्रदर्शन के लिए सम्मानित भी किया जाता है। देश की रक्षा की खातिर प्राणों की बाजी और त्याग के लिए इन्हें अवार्ड से सम्मानित किया जाता है। निस्संदेह ये लोग हर तरह से इस सम्मान के हकदार हैं, लेकिन पिछले कुछ वर्षों से इस संदर्भ में भी कई बड़े बदलाव महसूस किए जा रहे हैं। एक नई रिवायत के तहत इस अवसर पर सत्तासीन दल, जैसे वर्तमान में भाजपा, के कार्यकर्ताओं को सम्मानित किया जाने लगा है। साफ तौर पर यह रिवायत संविधान निर्माताओं की बुनियादी सोच के खिलाफ मानी जाएगी। इससे परेशान होकर एक समय इन्हें दिए जाने पर ही पाबंदी चस्पां कर दी गई थी।

गांधीवादी विचारधारा के वाहक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में लोकप्रिय आंदोलन के परिणामस्वरूप जब जनता पार्टी की सरकार सत्ता में आई, तो उसने इस परंपरा पर रोक लगा दी। इन अवार्ड की शुरुआत स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू द्वारा की गई थी। इनके मार्फत वह उन लोगों के प्रयासों की शिनाख्त करना चाहते थे, जिन्होंने शिक्षा, अर्थशास्त्र या विज्ञान के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान दिया हो। इन पुरस्कारों के रूप में कभी धनराशि नहीं बांटी जाती, क्योंकि ये पुरस्कार इतने महत्त्वपूर्ण हैं कि धन के किसी भी पैमाने पर इनका मूल्यांकन संभव नहीं। नेहरू ने भी कभी यह नहीं चाहा कि पुरस्कारों को किसी तरह की राजनीति के साथ जोड़ा जाए। उन्होंने कभी कल्पना भी नहीं की होगी कि एक दिन चयन की पूरी प्रक्रिया का राजनीतिकरण हो जाएगा और इनके लिए सरकार अपने उन चमचों को चुनेगी, जिन्होंने सत्तासीन दल की खिदमत में किसी खास काम को अंजाम दिया हो।

मुझे याद है कि शुरू-शुरू में गणतंत्र दिवस के अवसर पर वितरित किए जाने वाले पुरस्कारों का जिम्मा विदेश मामलों के मंत्रालय के पास होता था, जिसे खुद नेहरू देख रहे थे। आगे चलकर यह जिम्मेदारी गृह मंत्रालय के कंधों पर आ गई और उसने भी यह कार्य आगे अपने एक उप सचिव को सौंप दिया। उसने भी यह कार्य आगे मंत्रालय से जुडे़ सूचना अधिकारी की तरफ बढ़ा दिया। मैंने भी तब इस कार्य के व्यावहारिक पहलुओं को समझा, जब गृह मंत्रालय में सूचना अधिकारी के पद पर सेवारत था। चयन की प्रक्रिया बेहद मनमानी थी। प्रधानमंत्री या दूसरे मंत्री अपनी पसंद के व्यक्ति का सुझाव देते थे और बतौर सूचना अधिकारी मेरा काम महज उस नाम को संबंधित फाइल में सजाने का था। गणतंत्र दिवस के आयोजन के करीब महीना भर पहले मैंने पुरस्कारों के लिए चयनित लोगों की एक अंतिम सूची बनानी होती थी। मुझे इस स्वीकारोक्ति में भी किसी तरह की हिचकिचाहट नहीं है कि अंतिम सूची बनाते वक्त तमाम नियमों को ताक पर रखना पड़ता था। यही सूची फिर उप सचिव और गृह सचिव से होते हुए अंततः गृह मंत्री के पास पहुंचती थी। पुरस्कारों के लिए जिन लोगों के नाम की घोषणा होती थी और जो सूची मैंने भेजी होती थी, मुझे उनमें शायद ही कोई बदलाव नजर आता था।

इस बीच सबसे मुश्किल कार्य पुरस्कारों के लिए चयनित लोगों के प्रशंसा विवरण तैयार करने का होता था। इसके लिए मेरे सामने शब्दकोषों का एक बड़ा भंडार मौजूद रहता था। कई मामलों में तो मेरे मार्गदर्शन के लिए बायो डाटा भी मिल जाते थे। उनमें संबंधित व्यक्ति के बारे में कुछ गुप्त रहस्यों की जानकारी रहती थी, फिर चाहे वह कोई वैज्ञानिक हो, अर्थशास्त्री हो या कोई अकादमिक शख्सियत। बेशक इस सबसे मेरे कार्य में मुझे कुछ मदद मिलती थी, लेकिन इसी के आधार पर प्रशंसा-पत्र तैयार करना मेरे लिए वास्तव में एक चुनौतीपूर्ण कार्य था।

इस पूरी व्याख्या का मकसद बस इसी हकीकत को बयां करना था कि ये पुरस्कार कभी मैरिट के आधार पर नहीं बांटे जाते। ऐसे आरोप आगे भी बरकरार रहेंगे, क्योंकि हम अब भी चयनित लोगों की सूची में उन्हीं को पाते हैं, जो सरकार द्वारा नामजद किए जाते हैं। पुरस्कारों के लिए चयन करने वाले पैनल में विपक्ष के नेता को भी शामिल किया जाना चाहिए, लेकिन तब भी अल्पमत में होने के कारण वह ज्यादा निष्पक्षता नहीं ला सकता। इन पुरस्कारों के महत्त्व के विषय में अब देश भर में एक व्यापक चर्चा की जरूरत है। आज इन पुरस्कारों का अस्तित्व उस महत्त्व पर टिका हुआ है, जो इनकी शुरुआत के वक्त था ही नहीं। जब संविधान में ही पुरस्कारों पर प्रतिबंध की व्याख्या है, तो फिर इन्हें जारी रखने का क्या तुक है? इन्होंने संविधान की मूल भावना और सामान्य समझ को ही बिगाड़ा है। यहां तक कि इनकी शुरुआत का विचार ही गलत था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अब एक राष्ट्रव्यापी बहस शुरू करनी होगी कि इन पुरस्कारों को जारी रखने की जरूरत है भी या नहीं।

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