आतंकी लपटों में झुलसता जम्मू-कश्मीर

कुलदीप नैयर

लेखक, वरिष्ठ पत्रकार हैं

हिंसा से थक चुके आम लोग केवल विकास चाहते हैं। अगर वहां विकास हुआ होता तो कुछ युवा आतंकवाद की ओर आकर्षित न हुए होते। कश्मीरी चाहते हैं कि घाटी में फिर खूब सैलानी आएं, तभी वहां विकास आ पाएगा। आम कश्मीरी आतंकवादियों व सुरक्षा बलों की लड़ाई में पिसता जा रहा है। उसे अब केवल विकास चाहिए, राजनीति या आतंकवाद नहीं। प्रदेश सरकार अगर सुशासन दे पाई या घाटी में विकास कर पाई, तभी आम लोगों की जिंदगी में सुधार होगा…

घाटी में दो और पुलिस जवान मारे गए हैं। यह पहली बार नहीं है कि कश्मीर में इस तरह का नुकसान हुआ है। लेकिन परेशान करने वाला पहलू यह है कि इस तरह की हत्याएं एक नियमित अंतराल के बाद हो रही हैं। नई दिल्ली हिंसा को रोक पाने में अब तक सफल नहीं रही है। केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार अपने दायित्व से चालाकी से बचती रही है। अगर हिंसा को रोकना है तो सरकार को इस स्थिति का सामना करना ही होगा। दो आतंकवादियों के अस्पताल परिसर में घुसकर जेल काट रहे लश्कर-ए-तोएबा के दो पाकिस्तानी आतंकवादियों को छुड़ा ले जाना वास्तव में सचेत करने वाली घटना है। इसका मतलब यह है कि घाटी में कोई भी सुरक्षित स्थान नहीं बचा है। सबसे बुरी बात यह है कि आतंकवादियों में मरीजों के प्रति भी कोई रहम नहीं है। इसी के साथ यह बात भी प्रमाणित होती है कि हमारी सुरक्षा व्यवस्था में भी कहीं न कहीं कोई खामी है। अन्यथा यह संभव नहीं होता कि आतंकवादी दिन के उजाले में आकर सरकार की ओर से संचालित अस्पताल को निशाना बनाते और उस आतंकवादी को छुड़ाकर अपने साथ ले जाते, जिसका यहां उपचार चल रहा था। छुड़ाया गया आतंकवादी 22 वर्षीय मोहम्मद नवीद है। यह आतंकवादी हिंसा की कई घटनाओं में शामिल बताया जा रहा है। इसने कई नागरिकों के साथ-साथ सुरक्षा कर्मियों को भी निशाना बनाया था। छुड़ा ले जाने वाले आतंकवादियों की सुरक्षा में सेंध लगाने की क्षमता भी साबित होती है। गोली चलाने से पहले वे अस्पताल परिसर में डेरा जमाए बैठे रहे। जैसे ही वहां कैदी को लाया गया, उन्होंने अपनी कार्रवाई को अंजाम दे दिया।

ऐसा लगता है कि उनके पास पल-पल की खबर थी। तभी तो वे सुरक्षा में सेंध लगाने में सफल रहे। महबूबा मुफ्ती सरकार ने अपनी विफलता को स्वीकार किया है। वास्तव में पहले से ही इस तरह की खबरें आ रही थीं कि श्रीनगर में कुछ बाहरी लोग घुस आए हैं। सुरक्षा बलों पर पत्थरबाजी करने वाले सरकार ने सद्भावना पैदा करने के लिए छोड़ दिए हैं। लगता यह है कि आतंकवादियों को जनता का समर्थन मिला होगा, तभी वे इस तरह की वारदात को अंजाम दे पाए। अब स्थिति यह हो गई है कि पुराने कट्टरपंथी नेता, जैसे यासिन मलिक या शब्बीर शाह, अप्रासंगिक हो गए हैं। जो नए नेता उभर रहे हैं, वे इस गोपनीयता को नहीं बता रहे कि वे अलग इस्लामिक राज्य चाहते हैं। वे न तो पाक समर्थक हैं, न ही भारत समर्थक। वे अपने ही समर्थक लगते हैं। उन्होंने पाकिस्तान को भी बता दिया है कि वे अपने अस्तित्व के लिए लड़ रहे हैं। नई दिल्ली इस बात को समझती है, लेकिन उसके पास उन्हें पेशकश करने के लिए कोई विकल्प नहीं है। लगता है उसके लिए इसका जवाब सुरक्षा बल हैं, जो घाटी में हर दिन नुकसान झेल रहे हैं।

आश्चर्यजनक तरीके से पूर्व मुख्यमंत्री फारूख अब्दुल्ला ने धर्म को आगे कर दिया है और कहा है कि युवा ही इस्लाम की पहचान हैं। वह कहते हैं कि वे मुसलमान हैं, परंतु अल्लाह का शुक्र है कि उन्होंने श्रीनगर पर नई दिल्ली के आधिपत्य पर सवाल नहीं उठाए। पाकिस्तान जानता है कि अगर वह अस्तित्व कारक को रेखांकित करता है तो पूरा विभाजन फार्मूला सवालों के घेरे में आ जाएगा। इसलिए वह इस बात पर जोर दे रहा है कि दोनों देशों को बातचीत की मेज पर आना चाहिए तथा ऐसा समाधान निकालना चाहिए, जो दोनों पक्षों को स्वीकार्य हो। वास्तव में इसका मतलब यह है कि इस्लामाबाद तथ्य का सामना नहीं करना चाहता। वास्तविकता यह है कि पाक अधिकृत कश्मीर में भी अलग इस्लामिक देश की मांग उठ रही है। नई दिल्ली यह पहले ही स्पष्ट कर चुकी है कि पाकिस्तान के साथ तब तक कोई बातचीत नहीं होगी, जब तक वह यह भरोसा नहीं दिलाता कि वह आतंकवादियों को शरण नहीं देगा। साथ ही आतंकवादियों को एक पक्ष के रूप में भी स्वीकार नहीं किया जाएगा।

यह केवल कपोल कल्पना मात्र है। यह एक सच्चाई है कि पाकिस्तान ने भाड़े के विदेशी आतंकवादियों, आईएसआई व यहां तक कि सेना, के माध्यम से जो परोक्ष लड़ाई छेड़ रखी है, उसके कारण ही बरसों से राज्य में सामान्य स्थिति बहाल नहीं हो पाई है। इस लड़ाई को वह आतंकवादियों को अपना नैतिक व कूटनीतिक समर्थन बता रहा है। पिछले एक दशक में सीमा पार से दखल बढ़ा है। सच्चाई यह है कि भारत के पास इससे निपटने के लिए अब भी कोई नीति नहीं है और वह गलती पर गलती करता जा रहा है। कोई भी उस समय को देख सकता है, जब शेख अब्दुल्ला कश्मीर के बड़े नेता थे जिन्हें 1952 में इसलिए गिरफ्तार कर लिया गया था क्योंकि उन्होंने चाहा था कि भारत स्वायत्तता के अपने वादे को पूरा करे। इसका मतलब यह था कि भारत रक्षा, विदेश मामले व संचार को छोड़कर बाकी सभी शक्तियां श्रीनगर को सौंप दे। 1989 का उदाहरण देखें तो पता चलता है कि उस समय भी कश्मीरी युवाओं को विधानसभा चुनाव से दूर रहने के लिए कहा गया, क्योंकि उन्हें समझाया यह गया कि इससे वे सत्ता में नहीं आएंगे, बल्कि बुलेट के जोर पर वह ऐसा कर सकते हैं। पाकिस्तान केवल इस मौके की तलाश में था कि कब कश्मीरी युवा सीमा को पार करें और वहां शस्त्र चलाने की ट्रेनिंग लें। इस काम के लिए पाक सेना के प्रशिक्षित अफसर बाकायदा तैनात किए गए हैं। इसी से हिंसा बढ़ी है। हिंसा के इस दौर में जहां आतंकवादी मारे गए, वहीं जवाबी कार्रवाई में भारत के कई जवान व आम आदमी भी मारे गए। कश्मीरी नेताओं, विशेषकर युवा नेताओं को यथार्थ का सामना करना होगा। उनके सामने अगले साल लोकसभा चुनाव के रूप में एक अवसर आ रहा है। अगर चाहें तो वे देश से अपने लिए विशेष दर्जा मांग सकते हैं, जो कि अब तक नहीं मिल पाया है, हालांकि 1952 के दिल्ली समझौते में इसे स्वीकार किया गया था। वे निष्पक्ष चुनाव के लिए भी दबाव डाल सकते हैं, परंतु उन्हें इस अवसर को चूकना नहीं चाहिए। संसद के लिए निर्वाचित होकर कश्मीरी नेता सरकार के इस आरोप को झुठला सकते हैं कि उनका समर्थन मात्र इसलिए है क्योंकि वे घाटी में कट्टरवाद को फैला रहे हैं। उन्हें यह समझना चाहिए कि सरकार अब तक राज्य को यह कहकर उदारवादी तरीके से मदद करने से मुकरती रही है क्योंकि वहां सामान्य स्थिति नहीं है। पूर्व में कश्मीर के लिए कई पैकेज घोषित होते रहे हैं। यह राजीव गांधी थे, जिन्होंने पहली बार दो हजार करोड़ रुपए का पैकेज घोषित किया था। उनके बाद बने प्रधानमंत्रियों ने भी आंकड़े बढ़ाते हुए पैकेज घोषित किए, लेकिन इन पैकेज का एक अंश मात्र भी आबंटित नहीं किया गया। हिंसा से थक चुके आम लोग केवल विकास चाहते हैं। अगर वहां विकास हुआ होता तो कुछ युवा आतंकवाद की ओर आकर्षित न हुए होते। कश्मीरी चाहते हैं कि घाटी में फिर खूब सैलानी आएं, तभी वहां विकास आ पाएगा। आम कश्मीरी आतंकवादियों व सुरक्षा बलों की लड़ाई में पिसता जा रहा है। उसे अब केवल विकास चाहिए, राजनीति या आतंकवाद नहीं। प्रदेश सरकार अगर सुशासन दे पाई या घाटी में विकास कर पाई, तो इससे जहां आम लोगों की जिंदगी में सुधार होगा, वहीं नई दिल्ली को भी राहत मिलेगी और हिंसा पर लगाम लगेगी।

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