किसान की संतान को शहर लाइए

डा. भरत झुनझुनवाला

लेखक, आर्थिक विश्लेषक एवं टिप्पणीकार हैं

संपूर्ण विश्व ने समझ लिया है कि कृषि कांप रही है और किसानों को वहां से निकाल लिया है। हम अनायास ही किसान को उसी दलदल मे धकेल रहे हैं। हमें कृषि में श्रम की गिरती जरूरत को देखते हुए किसानों की संतानों को शहरों में उभरते क्षेत्रों में पलायन को प्रेरित करना चाहिए। जो सबसिडी बिजली, उर्वरक और खाद्यान्नों के निर्यात पर दी जा रही है, उसे मुफ्त वाई-फाई, सड़क और सस्ते कम्प्यूटर पर देना चाहिए। इससे किसान परिवारों की भावी पीढ़ी खेती के दलदल से निकल कर शहरों में उन्नत जीवन हासिल कर सकेगी…

सरकार ने वादा किया है कि वर्ष 2022 तक देश के किसानों की आय दो गुना हो जाएगी। इस दिशा में वित्त मंत्री ने घोषणा की है कि प्रमुख फसलों के समर्थन मूल्य को इस प्रकार निर्धारित किया जाएगा कि किसान को लागत से डेढ़ गुना दाम मिले। मसलन यदि गेहूं के उत्पादन को किसान की लागत 12 रुपए प्रति किलो है, तो सरकार उसके उत्पादन को 18 रुपए यानी डेढ़ गुना दाम पर खरीद लेगी। ज्ञात हो कि सरकार ने प्रमुख फसलों के उत्पादन को खरीदने के लिए फूड कारपोरेशन स्थापित किया है। कारपोरेशन द्वारा निर्धारित दाम पर खाद्यान्न को खरीदा जाता है। निर्धारित दाम पर किसान कितना भी खाद्यान्न लाए, फूड कारपोरेशन द्वारा उसे खरीद लिया जाता है। इस नीति से किसान आश्वस्त रहते हैं कि उनके द्वारा उत्पादित खाद्यान्न को बाजार मिल जाएगा। वे उत्पादन अधिक करते हैं। इसी नीति के कारण आज खाद्यान्नों के उत्पादन में हम स्वायत्त हैं। हम अपनी जरूरत के खाद्यान्न का उत्पादन कर रहे हैं।

वर्तमान मे समर्थन मूल्य केंद्र सरकार द्वारा अपने ‘विवेक’ के आधार पर निर्धारित किया जाता है। कथित रूप से समर्थन मूल्य का निर्धारण करते समय उत्पादन की लागत का संज्ञान लिया जाता है, परंतु उत्पादन लागत की गणना को सार्वजनिक नहीं किया जाता है। लागत के आंकड़े भी दो-तीन साल पुराने होते हैं। जैसे 2018-19 में निर्धारित किए गए दाम का आधार 2016-17 में आई लागत होती है। लागत के निर्धारण में एक और पेंच यह है कि भूमि का किराया तथा घर के श्रम का मूल्य कितना जोड़ा जाए, यह सरकार के विवेक पर निर्भर करता है। जानकारों का मानना है कि समर्थन मूल्य का निर्धारण मूल रूप से राजनीतिक समीकरणों को देखते हुए किया जाता है। लागत की गणना को जरूरत के अनुसार तोड़-मरोड़ लिया जाता है। फिर भी वित्त मंत्री द्वारा लागत का डेढ़ गुना दाम देने की घोषणा का स्वागत है। यदि सरकार वास्तव में डेढ़ गुना दाम देती है तो निश्चय ही किसान की आर्थिक स्थिति में सुधार होगा। लेकिन इस सफलता के दूसरे दुष्परिणाम होंगे जैसे ड्रग्स लेकर धावक के प्रतिस्पर्धा जीतने का दुष्परिणाम होता है कि समय क्रम में उसका मेडल छीन लिया जाता है। वर्तमान समय में किसान को जो समर्थन मूल्य दिया जा रहा है उसके दो परिणाम स्पष्ट रूप से दिख रहे हैं। एक परिणाम है कि किसान को पर्याप्त आय नहीं मिल रही है। वह ऋण के दलदल में डूब रहा है और आत्महत्या कर रहा है। इसी बीमारी के इलाज को सरकार ने समर्थन मूल्य बढ़ाने की घोषणा की है। वर्तमान समर्थन मूल्य का दूसरा परिणाम है कि हम अपनी जरूरत के खाद्यान्नों का उत्पादन कर रहे हैं। हमें गेहूं और चावल आयात नहीं करना पड़ रहा है। जिस प्रकार दुकानदार घाटा खाकर भी दुकान को खोले रखता है, उसी प्रकार किसान आत्महत्या करते रह कर भी खाद्यान्न का पर्याप्त उत्पादन कर रहे हैं। इस परिस्थिति में समर्थन मूल्य बढ़ाने का सीधा परिणाम होगा कि हमारा खाद्यान्न का उत्पादन जरूरत से अधिक होगा। जैसे आलू के दाम यदि 10 रुपए से बढ़ कर 15 रुपए हो जाएं तो मंडी में आलू की आवक बढ़ जाती है। प्रश्न है कि सरकार इस अतिरिक्त उत्पादन का निस्तारण कैसे करेगी? देश की खाद्यान्न की जरूरत तो वर्तमान समर्थन मूल्य पर ही पूरी हो रही है। समर्थन मूल्य में वृद्धि से बढ़े उत्पादन का हम क्या करेंगे?

एकमात्र उत्तर है कि फूड कारपोरेशन इस बढ़े उत्पादन का निर्यात करेगा। पूर्व में जब फूड कारपोरेशन के पास जरूरत से अधिक गेहूं का भंडार हुआ है, तब उसका निर्यात किया गया है। किसी समय यह भंडार सड़ने लगा था। तब सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से पूछा था कि इस भंडार को गरीबों में मुफ्त में क्यों न बांट दिया जाए, परंतु मुफ्त बांटना भी मर्ज का इलाज नहीं है। गरीब को यदि गेहूं मुफ्त मिल जाएगा, तो वह बाजार से गेहूं नहीं खरीदेगा। देश में गेहूं की कुल खपत पूर्ववत रहेगी। मुफ्त बांटने के कारण गरीब चार के स्थान पर प्रतिदिन आठ रोटी नहीं खाने लगेगा। अतः समर्थन मूल्य डेढ़ गुना निर्धारित करने का सीधा परिणाम होगा कि हमें खाद्यान्नों का निर्यात करना होगा, लेकिन ऐसा करना आसान नहीं होगा। वस्तु स्थिति यह है कि विश्व बाजार में खाद्यान्नों के दाम निरंतर गिर रहे हैं। आधुनिक बीज एवं उर्वरक के उपयोग एवं सिंचाई के विस्तार से विश्व स्तर पर खाद्यान्नों का उत्पादन बढ़ रहा है। तुलना में खपत कम ही बढ़ रही है, चूंकि तमाम देशों में जनसंख्या स्थिर है अथवा घट रही है। इस परिस्थित में फूड कारपोरेशन को गेहूं का निर्यात खरीद मूल्य से नीचे करना होगा और यह घाटा सरकार को वहन करना होगा।

डेढ़ गुना दाम देने के कारण सरकार को दोहरा नुकसान लगेगा। बढ़े हुए उत्पादन के लिए सिंचाई, डीजल, बिजली तथा उर्वरक का उपयोग अधिक होगा। इन पर सरकार को अधिक सबसिडी देनी होगी। फिर इस बढ़े हुए उत्पादन के निर्यात में लगे घाटे को सरकार को वहन करना होगा। किसी समय मेरे खेत में अमरूद की फसल अच्छी हुई। तब इसका मित्रों को वितरण करने में श्रम करना होता, इसलिए इसे किसी मंदिर में दे दिया। पहले उत्पादन को श्रम किया, फिर उसको बांटने में श्रम का संकट खड़ा हो गया। ऐसा ही वर्तमान नीति का परिणाम होगा। इसलिए सरकार का यह मंतव्य सही दिशा में होने के बावजूद सफल नहीं हो सकता है।

सरकार और समाज दोनों को समझना चाहिए कि कृषि को लाभ का धंधा बनाया ही नहीं जा सकता है। जिस प्रकार सीमेंट के उपलब्ध होने पर चूने-गारे का धंधा सिमट गया है़ अथवा जिस प्रकार प्लास्टिक के घड़े उपलब्ध हो जाने से कुम्हार का धंधा सिकुड़ गया है अथवा जिस प्रकार जीप के चलने से तांगे का धंधा सिमट गया है, उसी प्रकार खाद्यान्न के वैश्विक उत्पादन में वृद्धि से किसान का धंधा सिकुड़ रहा है। चूने-गारे, कुम्हार के घड़े अथवा तांगे को लागत से डेढ़ गुना समर्थन मूल्य देना क्या सफल हो सकता है? कृषि की इस बुनियादी समस्या का परिणाम है कि विकसित देशों में आज एक प्रतिशत कर्मी भी कृषि में काम नहीं करते हैं। सब कृषि से पलायन करके दूसरे धंधों में लग गए हैं। किसानों को कृषि में लगाए रखना उन्हें भूकंप में खड़े रखना सरीखा है। संपूर्ण विश्व ने समझ लिया है कि कृषि कांप रही है और किसानों को वहां से निकाल लिया है। हम अनायास ही किसान को उसी दलदल मे धकेल रहे हैं। हमें कृषि में श्रम की गिरती जरूरत को देखते हुए किसानों की संतानों को शहरों में उभरते क्षेत्रों में पलायन को प्रेरित करना चाहिए। जो सबसिडी बिजली, उर्वरक और खाद्यान्नों के निर्यात पर दी जा रही है, उसे मुफ्त वाई-फाई, सड़क और सस्ते कम्प्यूटर पर देना चाहिए। इससे किसान परिवारों की भावी पीढ़ी खेती के दलदल से निकल कर शहरों में उन्नत जीवन हासिल कर सकेगी।

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