बुलंद हौसले वाली अस्मां की विदाई

कुलदीप नैयर

लेखक, वरिष्ठ पत्रकार हैं

दयालु स्वभाव की अस्मां ने ताउम्र किसी भी तरह के भय की परवाह किए बगैर कार्य किया, फिर चाहे उन्हें कट्टरपंथी समूहों की धमकियां ही क्यों न मिलती रही हों। दुनिया भर में एक कार्यकर्ता के तौर पर मशहूर अस्मां को रेमन मेगसेसे और यूनाइटेड नेशंज डिवेलपमेंट फंड के शांति पुरस्कार समेत कई बड़े सम्मानों से नवाजा गया। हालांकि अस्मां के लिए शायद ही इनका कोई महत्त्व था, क्योंकि उनका एकमात्र उद्देश्य देश में लोकतंत्र बहाल करना था…

अस्मां जहांगीर, जिनका बीते सप्ताह निधन हो गया, एक जानी-मानी मानवाधिकार अधिवक्ता और सामाजिक कार्यकर्ता थीं। उनका कार्यक्षेत्र भले पाकिस्तान तक सीमित था, लेकिन उनके उदाहरण का एक आदर्श के रूप में पूरे उपमहाद्वीप में अनुकरण किया जाता रहा है। उन्होंने वैयक्तिक मानवीय अधिकारों की रक्षा करने वाले ह्यूमन राइट्स ऑफ पाकिस्तान की सह स्थापना की और उसकी अध्यक्षता भी संभाली, वहीं उनका यह प्रयास आगे चलकर भारत-पाक रिश्तों को सामान्य बनाने की दिशा में एक सार्थक मंच साबित हुआ। मुझे बतौर सांसद जो आवास मिला था, वह अकसर वहां भारत और पाकिस्तान के लड़के-लड़कियों को एकत्रित किया करती थीं। मैंने देखा कि समाज पर मजहबी प्रभाव में बदलाव के लिए वह हरसंभव प्रयास में जुटी रहती थीं। सामाजिक समस्याओं की बेल निरंतर फल-फूल रही थी, क्योंकि मजहब और सियासत का घालमेल जो होने लगा था।

कुछ दिन पहले जब उनकी बेटी की शादी हो गई, तो उन्होंने लाहौर से ही मुझे फोन करके बताया कि भारत-पाक संबंधों को सुधारने में अब उनके पास अधिक समय होगा। हो सकता है कि यह उनका अंदाज-ए-बयां हो कि एक मजहब आधारित समाज को एक सेक्युलर समाज में परिवर्तित करने की राह में अभी मीलों लंबा सफर तय करना बाकी था। भारत-पाकिस्तान भले एक-दूसरे के करीब आने के अनिच्छुक प्रतीत होते रहे हों, लेकिन अस्मां को यहां इस बात का जरूर कुछ कुछ संतोष रहा होगा कि कई मायनों में दोनों एकमत दिखते हैं। अस्मां नई दिल्ली और इस्लामाबाद को काफी हद तक यह महसूस करवाने में सफल रहीं कि शांति बहाली के लिए दोनों के वार्ता की मेज पर आने के अलावा दूसरा कोई विकल्प उपलब्ध नहीं है। हालांकि नई दिल्ली ने भी निर्णय कर लिया है कि जब तक पाकिस्तान आतंकी गिरोहों को पनाह देने की नीति को छोड़ नहीं देता, तब तक वार्ता के लिए कोई स्पेस नहीं है। हालांकि इसके बावजूद अस्मां को विश्वास था कि दोनों में सुलह की पूरी संभावना है। हालांकि विदेश मंत्री सुषमा स्वराज आज भी इस बात को लेकर अपने स्टैंड पर अटल हैं कि नई दिल्ली और इस्लामाबाद में बातचीत नहीं हो सकती, क्योंकि आतंकवाद और वार्ता दोनों साथ-साथ नहीं चल सकते। अस्मां महसूस करती थीं कि सेना की ओर से इस्लामाबाद के समक्ष कुछ मुश्किलें पैदा की जा रही हैं और उन्हें सुलझाए बिना कोई सार्थक संवाद संभव ही नहीं है। वह इस तरह की बैठक के प्रति बेहद आशावान थीं। मैं इस बात को लेकर काफी हताश हूं कि भारत ने अस्मां के निधन पर अपेक्षित प्रतिक्रिया दर्ज नहीं करवाई, जबकि वह भारत के कट्टर दुश्मन यानी पाकिस्तानी सेना के खिलाफ साहस के साथ खड़ी रहीं। भारत-पाक रिश्तों में सुधार के उनके मकसद को लेकर उनकी आस्था दिल को छू लेने वाली थी। मैंने हमेशा ही उनके प्रयासों को सराहा है।

जब मैं राज्यसभा सदस्य हुआ करता था, तो मुझे लोधी एस्टेट में बंगला आबंटित किया गया था। अस्मां अकसर पाकिस्तानी लड़के-लड़कियों को यहां बुलाकर भारत के लड़के-लड़कियों से मिलाया करती थीं। अस्मां ने उस स्थान को पाकिस्तान हाउस का नाम दिया था। पाकिस्तानी लड़के-लड़कियों को जब भारत के लड़के-लड़कियां विदा करते थे, तो उस दौरान उदासी से पूरा माहौल नम हो जाता था। हालांकि यहां उन्हें पाकिस्तानी कहना भी उचित नहीं होगा, क्योंकि वे काफी हद तक भारत के सेक्युलर समाज का ही हिस्सा प्रतीत होते थे। अस्मां भारतीय युवाओं को भी पाकिस्तान ले जाकर उस सामाजिक तबके से सीख लेने की नसीहत देती थीं, जिसका धर्म विशेष की ओर झुकाव बढ़ रहा था। पाकिस्तान में मानवाधिकारों की रक्षा की प्रतीक बन चुकीं अस्मां पिछले चार दशकों के दौरान सैन्य तानाशाहों की उग्र विरोधी रहीं।

वह भारत-पाकिस्तान के दरमियान मजबूत शांतिपूर्ण संबंधों की पैरोकार रहीं और ट्रैक-2 कूटनीति का हिस्सा भी रहीं। इतना ही नहीं, जब उन्होंने वकालत के क्षेत्र में कदम रखा, तो बतौर वकील भी उनका एक उम्दा करियर रहा। इस दौरान वह पाकिस्तान के सर्वोच्च न्यायालय की बार एसोसिएशन की अध्यक्ष रहीं, जिससे उनकी लोकप्रियता का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। पाकिस्तान के मुख्य न्यायाधीश इफ्तिखार चौधरी के सम्मान की बहाली को लेकर जिस तरह से उन्होंने संघर्ष किया, उसके लिए पाकिस्तान की न्यायपालिका में आज भी उन्हें याद किया जाता है। वकीलों का वह आंदोलन अपने मकसद को हासिल करने में सफल रहा। उन्होंने उस आंदोलन का भी नेतृत्व किया, जिसमें राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ को पद से हटाया गया था। वकीलों के नेतृत्व में ही 2007 में चलाए गए आंदोलन से इस उम्मीद को बल मिला कि पाकिस्तान वास्तव में लोकतंत्र की पुनर्स्थापना के महत्त्व को समझ रहा है। लेकिन उसके बाद वहां के लगभग हर शासक ने सेना के बढ़ते प्रभाव की अनदेखी की और वही प्रवृत्ति काफी हद तक आज भी देखने को मिलती है।

अस्मां पाकिस्तान में उस दौर में महिला अधिकारों के आंदोलन की ध्वजवाहक बनीं, जब वहां मानवाधिकारों को कोई मसला ही नहीं माना जाता था। शुक्र है अस्मां का कि आज वहां लोग, विशेषकर महिलाएं अपने अधिकारों की बात करने लगी हैं। इस प्रभाव में मजहबी सियासत की रहनुमा दलों समेत तमाम राजनीतिक दलों ने महिला अधिकारों के महत्त्व को समझना शुरू कर दिया है। इस सबका श्रेय आसमां को ही जाता है। ईसाइयों द्वारा ईशनिंदा के आरोप एक अन्य मसला था, जिसके पक्ष में वह बेबाकी से खड़ी रहीं। अल्पसंख्यक समुदाय के कई लोगों को मृत्युदंड दिया गया, क्योंकि ईशनिंदा वहां एक अपराध था। गुमशुदा लोगों की तलाश के मामलों को मुफ्त में लड़कर वह बड़ी मददगार बनीं।

दयालु स्वभाव की अस्मां ने ताउम्र किसी भी तरह के भय की परवाह किए बगैर कार्य किया, फिर चाहे उन्हें कट्टरपंथी समूहों की धमकियां ही क्यों न मिलती रही हों। दुनिया भर में एक कार्यकर्ता के तौर पर मशहूर अस्मां को रेमन मेगसेसे और यूनाइटेड नेशंज डिवेलपमेंट फंड के शांति पुरस्कार समेत कई बड़े सम्मानों से नवाजा गया। हालांकि अस्मां के लिए शायद ही इनका कोई महत्त्व था, क्योंकि उनका एकमात्र उद्देश्य देश में लोकतंत्र बहाल करना था। अस्मां का यह संघर्ष केवल पाकिस्तानी अवाम तक सीमित नहीं था, बल्कि वह दुनिया के हर हिस्से में संघर्षरत लोगों के अधिकारों के पक्ष में खड़ी रहीं। उन्होंने अपने लिए जिस संघर्ष को चुना, निस्संदेह उसने उनके कई दुश्मन पैदा कर दिए, लेकिन वह हर चुनौती को एक ऐसे रूप में स्वीकार करती थीं, जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। यही खासियत उनकी कद्दावर हस्ती को बयां करती थी।

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