भारत के बहुलतावाद को चुनौती

कुलदीप नैयर

लेखक, वरिष्ठ पत्रकार हैं

अगर विभिन्न समुदायों के धार्मिक प्रमुख राजनीतिक अखाड़े में उतर आते हैं, तो वे राजनीति से दूर नहीं माने जाएंगे, जबकि उन्हें इससे दूर रहना चाहिए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ मुख्य आलोचना यह है कि वह अपनी बाहों पर हिंदू कौमपरस्ती का बैज पहनते हैं। उन्होंने लोगों को इस हद तक बांट दिया है कि ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। यह भी एक तथ्य है कि कई ईसाई नेताओं ने भारतीय जनता पार्टी सरकार पर आरोप लगाया है कि वह अन्य धर्मों व जातीय अल्पसंख्यकों के हितों की उपेक्षा करते हुए हिंदू राष्ट्रीयता की स्थापना करने के काम में लगे समूहों का समर्थन कर रही है…

दिल्ली के आर्कबिशप अनिल जोसेफ थोमस क्यूटो का अपने समुदाय के लोगों से यह आह्वान कि वे केंद्र में सरकार में बदलाव लाने के लिए प्रार्थना करें, न्यायसंगत लगता है, किंतु वह धर्म को राजनीति से मिलाने की बड़ी गलती करने के दोषी हैं। अपने साथी पादरियों को लिखे एक पत्र में उन्होंने वर्ष 2019 के चुनाव में बदलाव के लिए प्रार्थना और व्रत करने को कहा है। इसमें उन्होंने आगाह किया है कि भारत का राजनीतिक भविष्य कलहकारी लगता है जो कि देश के लोकतांत्रिक आदर्श के लिए एक चुनौती है। आज जबकि भारत एक राष्ट्र के रूप में फासीवादी व संकीर्णतावादी संगठनों की ओर से हमलों को झेल रहा है, धार्मिक प्रमुखों के लिए यह अनिवार्य हो गया है कि वे साहस के साथ आवाज उठाएं। भारत के स्वास्थ्य के लिए कुछ लोग इसे अच्छा नहीं मान सकते हैं। अगर विभिन्न समुदायों के धार्मिक प्रमुख राजनीतिक अखाड़े में उतर आते हैं, तो वे राजनीति से दूर नहीं माने जाएंगे, जबकि उन्हें इससे दूर रहना चाहिए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ मुख्य आलोचना यह है कि वह अपनी बाहों पर हिंदू कौमपरस्ती का बैज पहनते हैं। उन्होंने लोगों को इस हद तक बांट दिया है कि ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। यह भी एक तथ्य है कि कई ईसाई नेताओं ने भारतीय जनता पार्टी सरकार पर आरोप लगाया है कि वह अन्य धर्मों व जातीय अल्पसंख्यकों के हितों की उपेक्षा करते हुए हिंदू राष्ट्रीयता की स्थापना करने के काम में लगे समूहों का समर्थन कर रही है। उन्होंने यह आरोप भी लगाया है कि मोदी के सत्ता में आने के बाद ईसाइयों पर हमले बढ़ गए हैं। वर्ष 2016 के 348 हमलों की तुलना में वर्ष 2017 में ईसाइयों पर 736 हमले रिकार्ड किए गए। ईसाइयों पर उत्पीड़न का रिकार्ड रखने वाले एक फोरम की रिपोर्ट में यह बात कही गई है। यह फोरम प्रभावितों की मदद भी करता है। इस फोरम ने कहा है कि भारत का राजनीतिक वातावरण कलहकारी होता जा रहा है जो कि संविधान की ओर से स्थापित लोकतंत्र के सिद्धांतों के खिलाफ है। इसने इस बात पर भी चिंता प्रकट की है कि भारत का धर्मनिरपेक्ष स्वरूप खतरे में पड़ गया है। इसीलिए अगले आम चुनाव में सरकार बदलने का आह्वान किया गया है।  पादरी की ओर से लिखे पत्र में एक विशेष प्रार्थना भी ऐजाद की गई है जो  कि राष्ट्र की सुरक्षा के लिए है। इसमें धार्मिक संस्थानों व कैथोलिक संगठनों से आह्वान किया गया है कि वे हर शुक्रवार को राष्ट्र के लिए प्रार्थना भी करें। प्रार्थना में कहा गया है कि सच्चे लोकतंत्र का लोकाचार हमारे चुनावों को आच्छादित कर ले तथा ईमानदार राष्ट्रभक्ति की ज्वाला हमारे राजनीतिक नेताओं में फिर से जगे अन्यथा संकट के इस समय में सत्य, न्याय व स्वतंत्रता का उजाला मद्धम हो रहा है तथा संकट के बादल छाए हुए हैं। दिल्ली के आर्कबिशप के इस आह्वान का भारत के कैथोलिक व ईसाई नेताओं ने स्वागत किया है।

शायद अन्य अल्पसंख्यक समुदाय इसे अपनी शिकायतों को दूर करने के लिए एक अवसर के रूप में प्रयोग कर सकते हैं। विशेषकर मुस्लिम नेता भारत की संवैधानिक विश्वसनीयता को चुनौती दे सकते हैं। हैदराबाद से लोकसभा सदस्य असद्दुदीन ओवैसी पहले ही विभाजन से पूर्व के मुसलमान नेताओं की तरह उसी भाषा में बात करते हैं। उनका विश्वास है कि संकीर्णतावादी राजनीति उन्हें देश भर में महत्त्व दिलाएगी तथा हिंदुओं व मुसलमानों के बीच संघर्ष का वातावरण फिर से बनेगा। हाल ही में मैं जब अलीगढ़ गया, तो मैंने मुस्लिम यूनिवर्सिटी को ऐसे ही विश्वास निर्माण संसार में पाया। उन्हें एहसास नहीं है कि भारत के अलावा कोई अन्य ‘उम्माह’ नहीं है। कुछ साल पहले वहां अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में परंपरागत समाधानों पर फिर से विचार के लिए एक सम्मेलन का आयोजन किया गया। इसका फोकस इस्लामी एकता के लिए भविष्य का एक्शन प्लान बनाना था। इस दो दिवसीय सम्मेलन के परिणामस्वरूप जो रोचक सार सामने आया, वह था कि तब मुसलमान अपने को कैसे देखते थे तथा भविष्य में वे किस तरह देखा जाना पसंद करेंगे। मिस्र से आए एक वक्ता की चाहत थी कि सभी वर्ग एक छत के नीचे होने चाहिए तथा उन्होंने विश्व के लिए एकीकृत इस्लाम पेश किया। हिंदू कौमपरस्ती का मुकाबला मुस्लिम कौमपरस्ती अथवा ईसाई कौमपरस्ती से नहीं किया जा सकता। कोई सोच सकता है कि आर्कबिशप का केंद्र सरकार में बदलाव लाने का प्रयास, उनके हिंदू समुदाय, जो कि देश में 80 फीसदी आबादी की रचना करता है, से समीकरण पर निर्भर करेगा।

किसी विशेष समुदाय से समीकरण पर यह निर्भर नहीं है। पादरी के इस वक्तव्य ने देश को यह सोचने का मौका दिया है कि वह भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के प्रमुख सिद्धांत धर्मनिरपेक्षता से कितना खिसका है। आर्कबिशप को इस नजरिए से नहीं देखना चाहिए कि उन्होंने सांप्रदायिक विभाजन की आग को हवा दी है। यह उनका लक्ष्य नहीं रहा है। यह परिदृश्य ठीक उसी तरह का है जिस तरह अमरीका में हाल के चुनाव से पहले पोप की मैक्सिको यात्रा से उपजा था। अपनी इस यात्रा के दौरान पोप ने अब तक का पहला कैथोलिक जन संबोधन दिया, जिसने दोनों देशों के बीच सीमा के मसले को पुनर्जीवित किया। सीमा की मैक्सिकन साइड की ओर से दो लाख लोगों, जबकि अमरीका की ओर से 50 हजार लोगों ने इसे देखा। उनकी इस यात्रा से सर्वाधिक आइकानिक दृष्टि मिली। यह खुल्लमखुल्ला राजनीतिक भी था, जिसका प्रत्यक्ष लक्ष्य अमरीकी राजनीति को प्रभावित करना था। वास्तव में अमरीका अपने अगले राष्ट्रपति को चुनने की प्रक्रिया में था। मुझे याद है देशांतर उस चर्चा के हृदय में ठीक था। यदि कोई ऐसा संदेह था कि पोप अमरीका-मैक्सिको सीमा पर अप्रवासियों के साथ प्रार्थना करके अमरीका के चुनाव को प्रभावित करना चाहते हैं, तो उन्होंने इसे घर वापसी की अपनी यात्रा पर छोड़ दिया। राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रंप अपनी अप्रवासी नीति को लेकर बिल्कुल स्पष्ट थे, उन्होंने जब कहा, ‘अगर मैं चुना जाता हूं, तो मैं सीमा पर 2500 किलोमीटर लंबी दीवार बना दूंगा।’

वह 11 मिलियन अवैध आव्रजकों को वापस अपने देश भेजना चाहते थे। पोप की टिप्पणी भी सख्त थी। उन्होंने कहा, ‘एक ऐसा व्यक्ति जो कि दीवार बनाने की सोचता है तथा पुल बनाने की नहीं सोचता, वह ईसाई नहीं है।’ हालांकि बाद में पोप ने कहा कि वह यह सलाह नहीं देंगे कि वोट किया जाए अथवा नहीं। उन्होंने कहा कि वह इसमें संलिप्त नहीं होना चाहते हैं। मैं केवल यह कहना चाहूंगा कि अगर इस आदमी (डोनाल्ड) ने यह बात कही है तो वह ईसाई नहीं हैं।

पोप ने यह स्पष्ट कर दिया था कि वह ट्रंप व उनकी नीति के बारे में क्या सोचते हैं। उन्होंने राष्ट्रपति पद के लिए इस दौड़ को प्रभावित करने का स्पष्ट प्रयास किया था। वास्तव में पोप ने उन्हें राजनीतिक जानवर कहा था। वर्ष 2013 में उन्होंने एक और बात कही थी जो रिकार्ड में दर्ज है। उन्होंने कहा था कि एक अच्छा कैथोलिक राजनीति में हस्तक्षेप रखता है। उन्होंने इसे अपने धार्मिक कर्त्तव्य के रूप में देखा। शायद दिल्ली के आर्कबिशप ने पोप की किताब से एक पन्ना फाड़ लिया। किंतु दुर्भाग्य से यह वह नहीं है जो भारत अपनी धर्मनिरपेक्ष राजनीति को मजबूत करने के लिए चाहता है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ कट्टरवादियों के अनुसरण की कोशिश कर सकता है तथा भारत में हिंदू राष्ट्र का अपना एजेंडा आगे कर सकता है।

ई-मेल : kuldipnayar09@gmail.com

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