ग्लोबलाइजेशन से पीछे हटे भारत

डा. भरत झुनझुनवाला

लेखक, आर्थिक विश्लेषक एवं टिप्पणीकार हैं

यह भी विचारणीय है कि यदि अमरीका में संरक्षणवाद को अपनाने से निवेश बढ़ा है, तो भारत में संरक्षणवाद को बढ़ाने से निवेश क्यों नहीं बढ़ेगा? मेरा मानना है कि विदेशी निवेश को आकर्षित करने का रास्ता संरक्षणवाद हो सकता है। यदि भारत में विदेशी माल के आयात पर प्रतिबंध लगा दिए जाएं, तो घरेलू पूंजी और विदेशी पूंजी दोनों को भारत में ही उत्पादन करना पड़ेगा, जिससे भारत में निवेश बढ़ेगा और हमारी विकास दर भी बढ़ेगी। हमें आधुनिक तकनीकें बिना ग्लोबलाइजेशन के भी मिल सकती थी। हो सकता है विदेशी पूंजी आने के स्थान पर हमारी पूंजी का पलायन हो रहा है…

विश्व में संरक्षणवादी नीतियां बढ़ रही हैं। इंगलैंड के लोगों ने लगभग दो वर्ष पूर्व निर्णय दिया था कि वे यूरोपियन यूनियन से बाहर आएंगे, जिसे ब्रेक्सिट नाम से जाना जा रहा है। इसी प्रकार अमरीका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने संरक्षणवादी नीतियों को बढ़ावा दिया है। आपने भारत और चीन से आयातित माल पर आयात कर बढ़ा दिए हैं। आपका मानना है कि माल सस्ता पड़े, तो भी उसका आयात नहीं करना चाहिए और अपने देश में ही उत्पादन बढ़ाना चाहिए, जिससे देश में राजस्व और रोजगार का विस्तार हो। इन नीतियों के विपरीत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आज भी वैश्वीकरण के घोर समर्थक दिख रहे हैं। अमरीका द्वारा भारतीय माल पर लगाए गए आयात करों के उत्तर में आपने भारत में अमरीका से आयातित माल पर आयात कर बढ़ाने को स्थगित कर दिया है। मोदी विदेशी निवेश को भी बढ़ाना चाह रहे हैं। ग्लोबलाइजेशन का उद्देश्य था कि हमें आधुनिक तकनीकें मिलेंगी। इस उद्देश्य को हासिल करने में हम कतिपय सफल भी हुए हैं, जैसे अस्सी के दशक में अपने देश में मुख्यतः अंबेसडर कार चलती थी। यह कार प्रति लीटर 8 किलोमीटर का न्यून एवरेज देती थी। आज देश में तमाम बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा कारें बनाई जा रही हैं, जो 25 किलोमीटर तक का एवरेज दे रही हैं, लेकिन क्या इन आधुनिक तकनीकों के आगमन को ग्लोबलाइजेशन की देन ही माना जा सकता है? आज टाटा मोटर्स तथा महिंद्रा एंड महिंद्रा द्वारा वैश्विक गुणवत्ता की कारें निर्यात की जा रही हैं। यदि ये कंपनियां आज उत्तम कारें बना सकती हैं, तो अस्सी के दशक में भी बना सकती थीं।

सच यह है कि सरकार ने अस्सी के दशक में घरेलू कार निर्माताओं के बीच प्रतिस्पर्धा को दबा रखा था। जानकार बताते हैं कि उस समय टाटा देश में कार बनाने के इच्छुक थे, परंतु उन्हें लाइसेंस नहीं दिया गया। देश के निजी क्षेत्र को प्रतिस्पर्धा का टॉनिक देने के स्थान पर बाजार को एकाधिकार की नींद की गोली दे रखी थी। फलस्वरूप कार निर्माता घटिया कार बनाते रहे। घरेलू प्रतिस्पर्धा की यह नींद तब टूटी, जब संजय गांधी ने कार बनाने की पहल की। यानी नई तकनीकों को अपनाने का श्रेय वास्तव में प्रतिस्पर्धा को जाता है। यह प्रतिस्पर्धा घरेलू है या विदेशी इससे कोई अंतर पहीं पड़ता, जैसे मिट्टी का घड़ा बनाने वाले कुम्हार को इससे कोई अंतर नहीं पड़ता है कि प्लास्टिक का घड़ा भारत में बना है या चीन में। पिछले दशक में टेलीकॉम रेगुलेटरी अथारिटी द्वारा मोबाइल फोन कंपनियों के बीच जिस प्रकार से प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा दिया गया, वह सुशासन की बेहतरीन मिसाल है। यही फार्मूला यदि हमने अस्सी के दशक में अपनाया होता, तो हम तमाम उच्च तकनीकों को बिना विदेशी निवेश के हासिल कर सकते थे। ग्लोबलाइजेशन का दूसरा उद्देश्य था कि आर्थिक विकास के लिए हमें विदेशी पूंजी उपलब्ध होगी। बीते दशक में भारी मात्रा में विदेशी पूंजी आई भी है, लेकिन उतनी ही मात्रा में या ऐसा भी हो सकता है कि उससे अधिक पूंजी बाहर गई हो। केंद्रीय राज्य मंत्री जयंत सिन्हा की मानें, तो हर वर्ष 300 से 600 अरब डालर की रकम विकासशील देशों से हवाला आदि के रास्तों से बाहर जा रही है। इस राशि का एक हिस्सा वापस अपने देश में ‘विदेशी निवेश’ के रूप में आ रहा है, जैसे आपको अपनी दुकान में एक करोड़ रुपए का निवेश करना है।

आपने इस रकम को पहले हवाला से विदेश भेजा, फिर बैंकों के माध्यम से इसे वापस लाकर अपनी दुकान में ‘विदेशी निवेश’ दिखा दिया। ऐसा करने से इस निवेश पर अर्जित रकम पर इनकम टैक्स आपको उस देश में अदा करना होगा, जहां से आपने ‘विदेशी निवेश’ को भेजा था। कई देशों में इनकम टैक्स की दर कम है। इसलिए भारतीय उद्यमी अपनी पूंजी का सीधा निवेश करने के स्थान पर विदेश से घुमाकर ‘विदेशी’ निवेश कर रहे हैं। बीते समय में सरकार ने भारतीय नागरिकों द्वारा विदेशों में निवेश के लिए पूंजी को बाहर भेजना भी आसान बना दिया है। हाल ही में प्रस्तुत बजट में वित्त मंत्री ने इस रास्ते अपनी पूंजी के पलायन पर चिंता जताई थी। अतः ग्लोबलाइजेशन की चाल उल्टी भी हो सकती है। जितनी पूंजी अपने देश में आ रही है, हो सकता है उससे अधिक पूंजी हवाला तथा कानूनी रास्तों से देश से बाहर जा रही हो। वर्तमान समय में विदेशी पूंजी का आना और ज्यादा संदिग्ध है, चूंकि अमरीका में संरक्षणवादी नीतियां अपनाई जाने के कारण अमरीका में उद्योग ज्यादा लग रहे हैं और विश्व पूंजी का बहाव अमरीका की तरफ हो रहा है। सभी विकासशील देशों से विदेशी निवेश वापस जा रहा है। ऐसी स्थिति में भारत द्वारा भारी मात्रा में विदेशी निवेश का आकर्षण करने में सफल होना संदिग्ध बना रहता है। यह भी विचारणीय है कि यदि अमरीका में संरक्षणवाद को अपनाने से निवेश बढ़ा है, तो भारत में संरक्षणवाद को बढ़ाने से निवेश क्यों नहीं बढ़ेगा? मेरा मानना है कि विदेशी निवेश को आकर्षित करने का रास्ता संरक्षणवाद हो सकता है। यदि भारत में विदेशी माल के आयात पर प्रतिबंध लगा दिए जाएं, तो घरेलू पूंजी और विदेशी पूंजी दोनों को भारत में ही उत्पादन करना पड़ेगा, जिससे भारत में निवेश बढ़ेगा और हमारी विकास दर भी बढ़ेगी। ग्लोबलाइजेशन से तीसरा अपेक्षित लाभ निर्यातों, विशेषकर कृषि निर्यातों में वृद्धि का था। 1995 में विश्व व्यापार संगठन (डब्लूटीओ) की संधि पर हस्ताक्षर करते समय हमें भरोसा दिया गया था कि हमारे किसानों को अपना माल विश्व बाजार में बेचने का अवसर मिलेगा, लेकिन विकासशील देशों ने चतुराई से अपने किसानों को दी जाने वाली सबसिडी को जारी रखा है। फलस्वरूप हमारे कृषि निर्यातों को विशेष सहूलियत नहीं मिली हैं। उल्टा विदेशी माल के आयात में वृद्धि हुई है, जैसे आज देश में गणेशजी की मूर्तियां एवं खिलौने चीन से आ रहे हैं। हमारे निर्यात धक्का खा रहे हैं। ग्लोबलाइजेशन के तीनों उद्देश्य असफल हैं। हमें आधुनिक तकनीकें बिना ग्लोबलाइजेशन के भी मिल सकती थी। हो सकता है विदेशी पूंजी आने के स्थान पर हमारी पूंजी का पलायन हो रहा है। हमारे निर्यातों में वृद्धि के स्थान पर आयातों में वृद्धि हो रही है। बीते दो दशक के अपने इन अनुभवों को देखते हुए, हमें इंगलैंड व अमरीका की तर्ज पर ग्लोबलाइजेशन से पीछे हटना चाहिए। चिंता का विषय है कि प्रधानमंत्री विदेशी कंपनियों के लिए देश को खोलने की बात कह रहे हैं। प्रधानमंत्री द्वारा विदेशी निवेश को आकर्षित करते रहने का एक प्रमाण यह है कि दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति के साथ उन्होंने हाल में भारत में एक विदेशी निवेशक द्वारा निर्मित स्मार्टफोन की फैक्टरी का उद्घाटन किया, लेकिन हम यह भूल रहे हैं कि यह ऊंट के मुंह में जीरा के समान है। आज के दिन मूलतः विदेशी निवेश का संकुचन हो रहा है। आगे की पालिसी इस प्रकार होनी चाहिए कि हमें अपने पैरों पर नई तकनीकें बनानी चाहिए, अपनी पूंजी का अपने देश में ही निवेश बढ़ाना चाहिए तथा अपने उद्योगों को सस्ते आयातों से संरक्षण देकर रोजगार बनाने चाहिए।

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