पानी का मूल्य तो अदा करना ही होगा

डा. भरत झुनझुनवाला

लेखक, आर्थिक विश्लेषक एवं टिप्पणीकार हैं

इसी प्रकार किसान फ्री या सस्ती बिजली उपलब्धता से किसान पानी की अधिक खपत करने वाली फसलों की खेती कर रहा है। प्रश्न उठता है कि पूर्व में ही मर रहे किसान पर पानी के दाम बढ़ाकर अतिरिक्त बोझ डालना क्या उचित होगा? इस समस्या का उपाय है कि पानी की कम खपत करने वाली फसलों का समर्थन मूल्य बढ़ा दिया जाए। तब उत्तर प्रदेश के किसान के लिए गन्ने के स्थान पर गेहूं और राजस्थान के किसान के लिए लाल मिर्च के स्थान पर बाजरे की खेती करना लाभप्रद होगा। चूंकि गन्ने और लाल मिर्च की खेती में पानी का मूल्य ज्यादा अदा करना होगा, जबकि गेहूं और बाजरे की खेती में दाम ऊंचे मिलेंगे…

नीति आयोग ने चेतावनी दी है कि दिल्ली का भूमिगत जल दो वर्ष में समाप्त हो जाएगा। तापमान बढ़ने से वर्षा का पानी भूमि में कम ही समा रहा है। साथ-साथ दिल्ली की जनसंख्या बढ़ने से पानी की खपत बढ़ रही है। भूमिगत जल का स्तर नीचे गिर रहा है और शीघ्र ही यह समाप्त हो जाएगा। यह परिस्थिति दिल्ली तक सीमित नहीं है, बंगलूर तथा हैदराबाद जैसे महानगरों में भी 2020 तक पानी समाप्त होने या उसकी उपलब्धि बहुत कम हो जाने की संभावना है। यह परिस्थिति विशेषकर चिंताजनक है, चूंकि यूरोपीय महानगरी एम्सटरडैम की तुलना में पानी की प्रति व्यक्ति उपलब्धता दिल्ली में ज्यादा है। चीन की जनसंख्या हमसे अधिक है, फिर भी वह देश हमारी तुलना में 28 प्रतिशत कम पानी का उपयोग कर रहा है। हमारे पास पर्याप्त पानी है, परंतु गलत नीतियों के कारण हम संकट में अनायास ही पड़ रहे हैं। लगभग 80 प्रतिशत पानी का उपयोग खेती में किया जाता है। बाजरा और रांगी जैसी फसलें बिना सिंचाई के ही पैदा हो जाती हैं। गेहूं और चावल जैसी फसलों को एक या दो बार पानी दे दिया जाए, तो ठीक-ठाक हो जाती हैं, लेकिन अंगूर, गन्ने और लाल मिर्च को 15 से 20 बार पानी देना होता है। इन फसलों के उत्पादन में पानी का अधिक उपयोग होने से कई राज्यों में जल संकट पैदा हो रहा है। कर्नाटक में अंगूर, उत्तर प्रदेश में गन्ना और राजस्थान में लाल मिर्च की खेती के लिए हम पानी का अधिक मात्रा में उपयोग कर रहे हैं। किसान का प्रयास रहता है कि वह अधिकाधिक लाभ कमाए। वह हिसाब करता है कि एक अतिरिक्त सिंचाई करने में उसका खर्च कितना बैठेगा और बढ़ी हुई फसल से लाभ कितना मिलेगा, जैसे-मान लीजिए 20 सिंचाई समेत लाल मिर्च के उत्पादन का खर्च 20,000 रुपए बैठता है, जबकि लाल मिर्च 25,000 रुपए में बिकती है, तो किसान लाल मिर्च का उत्पादन करेगा।

इसके विपरीत यदि पानी महंगा होने के कारण उसी उत्पादन का खर्च 30,000 रुपए बैठे, तो किसान लाल मिर्च के स्थान पर बाजरे जैसी किसी दूसरी फसल का उत्पादन करेगा, जिसे पानी की कम जरूरत पड़ती है। पानी महंगा होगा, तो किसान उसका कम उपयोग करेगा। पानी सस्ता होगा, तो किसान उसका अधिक उपयोग करेगा। अपने देश में नहर का पानी बहुत सस्ता है। किसान द्वारा क्षेत्र के हिसाब से एक बार मूल्य अदा कर दिया जाए, तो वह कितनी भी बार सिंचाई कर सकता है, जैसे-अनलिमिटेड थाली का एक बार मूल्य अदा करने के बाद आप जितनी चाहे उतनी बार रोटी खा सकते हैं। यह व्यवस्था किसान को पानी की अधिक खपत करने वाली फसलों की खेती करने के लिए प्रेरणा देती है, चूंकि उसे पानी का मूल्य उतना ही देना है, चाहे एक सिंचाई करे या 20 सिंचाई। इसी प्रकार किसान फ्री या सस्ती बिजली उपलब्धता से ट्यूबवेल से पानी निकालना सस्ता हो गया है। वह पानी की अधिक खपत करने वाली फसलों की खेती कर रहा है। प्रश्न उठता है कि पूर्व में ही मर रहे किसान पर पानी के दाम बढ़ाकर अतिरिक्त बोझ डालना क्या उचित होगा? इस समस्या का उपाय है कि पानी की कम खपत करने वाली फसलों का समर्थन मूल्य बढ़ा दिया जाए। तब उत्तर प्रदेश के किसान के लिए गन्ने के स्थान पर गेहूं और राजस्थान के किसान के लिए लाल मिर्च के स्थान पर बाजरे की खेती करना लाभप्रद हो जाएगा। चूंकि गन्ने और लाल मिर्च की खेती में पानी का मूल्य ज्यादा अदा करना होगा, जबकि गेहूं और बाजरे की खेती में दाम ऊंचे मिलेंगे। पानी के संकट का दूसरा कारण पानी का भंडारण बड़े बांधों में करने की पालिसी है।

टिहरी बांध के पीछे 45 किलोमीटर लंबा तालाब बन गया है। इस पानी पर धूप की किरणें पड़ने से पानी का वाष्पीकरण होता है। अनुमान है कि 10 से 15 प्रतिशत पानी इस प्रकार हवा में उड़ जाता है। इसके बाद नहर से पानी को खेत तक पहुंचाने में वाष्पीकरण तथा रिसाव होता है। मेरा अनुमान है कि 25 प्रतिशत पानी की बर्बादी हो जाती है। इस समस्या का उपाय है कि पानी का भंडारण जमीन के ऊपर करने के स्थान पर जमीन के नीचे किया जाए। आपने ट्यूबवेल से पानी निकलता देखा होगा। जमीन के नीचे पानी के तालाब होते हैं। ट्यूबवेल से इन्हीं तालाबों से पानी निकाला जाता है। जमीन के नीचे इन तालाबों की क्षमता बहुत ज्यादा होती है। सेंट्रल ग्राउंड वाटर बोर्ड के अनुसार उत्तर प्रदेश के इन जमीनी तालाबों में 76 बिलियन क्यूबिक मीटर पानी का भंडारण किया जा सकता है, जो कि टिहरी की 2.6 बिलियन क्यूबिक मीटर की क्षमता से 30 गुणा है। जमीनी तालाबों में पड़े पानी का वाष्पीकरण नहीं होता है। इनसे पानी को मनचाहे स्थान पर ट्यूबवेल से निकाला जा सकता है। नहर बनाने की जरूरत नहीं पड़ती है। नहर से पानी को एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाने में वाष्पीकरण तथा रिसाव नहीं होता है। हां, पानी निकालने में बिजली का खर्च जरूर बढ़ता है, परंतु इस बिजली का मूल्य कम होता है और बचाए गए पानी का मूल्य बहुत अधिक होता है। इसलिए इस खर्च को हमें स्वीकार करना चाहिए। बड़े बांधों में नदी का पानी रुक जाने से बाढ़ कम आती है, जमीन पर पानी कम फैलता है, जमीनी तालाबों में पानी का पुनर्भरण कम होता है, और ट्यूबवेल से सिंचाई भी कम होती है। जैसे यदि यमुना के ऊपर हथनीकुंड आदि में बने पराज को हटा दिया जाए, तो बरसात के समय जमुना का पानी धड़धड़ाकर दिल्ली के चारों तरफ फैलेगा और आसपास के भूमिगत जल का पुनर्भरण हो जाएगा। हां प्रकृति की इस देन को लागू करने के लिए हमें शहर इस प्रकार बसाने पड़ेंगे कि बाढ़ के समय आम आदमी को परेशानी न हो। इनके मकानों का स्तर जमीन से ऊंचा करना होगा। बड़े बांधों से जनित वाष्पीकरण, नहरों से रिसाव तथा बाढ़ कम आने की समस्याओं का उपाय है कि जमीनी तालाबों में वर्षा के पानी का भंडारण किया जाए।

खेत के चारों तरफ मेढ़ बनाकर वर्षा के पानी को ठहराने में जमीनी तालाबों में पुनर्भरण होता है। इस कार्य के लिए किसानों को सहायता देनी चाहिए। मेरा अनुमान है कि टिहरी जैसे बड़े बांध की तुलना में मेढ़ बनाकर उतने ही पानी का भंडारण करने में 10 प्रतिशत खर्च आएगा। लेकिन हमारे मंत्रियों, इंजीनियरों और अधिकारियों को यह पसंद नहीं है, चूंकि मेढ़ बनाने में बड़े ठेके देने के अवसर नहीं रहते हैं। नदियों में बाढ़ के पानी को इंदिरा गांधी नहर से ले जाकर राजस्थान के जमीनी तालाबों में भंडारण भी किया जा सकता है। पानी के संकट का कारण है कि हम शहरवासी सस्ती चीनी और बड़े ठेके चाहते हैं। हमें तय करना है कि हमें सस्ती चीनी चाहिए अथवा नहाने और पीने को पर्याप्त पानी। देश में पर्याप्त पानी उपलब्ध है, परंतु गलत नीतियों को अपनाकर हमने अनायास ही आम आदमी को संकट में डाल दिया है।

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