जीडी अग्रवाल का बलिदान व्यर्थ न हो

कुलभूषण उपमन्यु

लेखक, हिमालय नीति अभियान के अध्यक्ष हैं

नदी और उस पर आश्रित जीव जगत की अपरिहार्य पर्यावरणीय जरूरतों का तो ध्यान रखना ही पड़ेगा। यही तो करने के लिए प्रो. जीडी अग्रवाल कह रहे थे। गंगा तो भारतीय समाज की संस्कृति का अभिन्न अंग है, प्राण त्यागने के समय भी गंगाजल की दो बूंद मुंह में डल जाएं, तो हम जीवन धन्य मानते हैं, अपने घरों में गंगाजल हजारों मील से लाकर सहेजकर रखते हैं, भाजपा सरकार से तो इस आवाज को सुनने की और भी ज्यादा आशा थी, क्योंकि वह तो वैज्ञानिक तर्क के साथ सांस्कृतिक तर्क को भी मानने वाली कहलाती है, फिर क्यों ऐसी लापरवाही हुई…

गंगा की धारा को अविरल और स्वच्छ बनाए रखने की मांग को लेकर पिछले एक दशक से संघर्षरत स्वामी सानंद बन चुके प्रो. जीडी अग्रवाल ने 111 दिनों के अनशन के बाद अपने प्राणों की आहुति दे दी। बृहस्पतिवार को स्वामी सानंद ब्रह्मलीन हो गए। उन्हें एक दिन पहले ही प्रशासन द्वारा हरिद्वार आश्रम से बलपूर्वक उठाकर ऋषिकेश आयुर्विज्ञान संस्थान ले जाया गया, जहां उनका देहावसान हो गया। जीडी अग्रवाल पिछले एक दशक में चार-पांच बड़े आंदोलन गंगा की निर्मलता और अविरलता को बनाए रखने के लिए कर चुके थे। वे आईआईटी कानपुर के सेवानिवृत्त प्रोफेसर थे। उन्हें वैज्ञानिक सोच-समझ के आधार पर अपनी बात रखने के लिए कोई चुनौती नहीं दे सकता। वे केवल भावुकतावश ऐसा नहीं कर रहे थे, नदियां धरती की रक्तवाहिनियां हैं, उनका स्वच्छ बने रहना धरती के स्वास्थ्य और उस पर जीवनयापन कर रही तमाम जीव प्रजातियों के जीवित रहने के लिए परम आवश्यक है। बड़े-बड़े बांध बनाकर नदियों के प्रवाह को रोकने और बदलने के कारण एवं तमाम शहरी और औद्योगिक गंदगी को नदियों में बहाकर हमने उनकी ऐसी दुर्गति कर दी है कि यमुना, हिंडन, काली आदि नदियों का पानी उपयोग के योग्य नहीं रहा है। धीरे-धीरे बहुत सी नदियों की हालत ऐसी ही होती जा रही है। गंगा पर बन चुके और प्रस्तावित बांधों के कारण और शहरी एवं औद्योगिक प्रदूषित जल गंगा में डालने के कारण गंगा का जल भी अधिकांश स्थानों पर उपयोग के लिए खतरनाक हो चुका है। गंगा भारत की आत्मा है, यदि इसे ही हम स्वच्छ और अविरल नहीं बना सकते, तो अन्य नदियों का भविष्य क्या होगा, यह अनुमान लगाया जा सकता है।

पिछले दो दशकों में गंगा को शुद्ध करने के नाम पर हजारों करोड़ रुपए सरकार व्यय कर चुकी है। इससे सिद्ध होता है कि सरकारें भी इस तथ्य को स्वीकार करती हैं, फिर प्रो. जीडी अग्रवाल जो इसी उद्देश्य के लिए संघर्ष कर रहे थे, तो उनके प्रति ऐसी लापरवाही क्यों बरती गई कि 111 दिन के लंबे उपवास के दौरान कोई उनसे बात करके उन्हें आश्वस्त ही नहीं कर सका कि उनकी चिंता शासन की भी चिंता है। इसके पीछे के कारणों की पड़ताल होनी चाहिए। क्या हमारी सरकारें बड़ी निर्माण लौबी के इस कदर दबाव में काम कर रही हैं कि एक तार्किक सर्वहितकारी आवाज को सुनने का अवसर भी हमारे पास बचता नहीं है। नदी जल के प्रयोग की आवश्यकता पर कोई विवाद नहीं, किंतु कैसे और कितना प्रयोग करना, इस पर तो वैज्ञानिक दृष्टि से विचार होना ही चाहिए। नदी की अपनी और उस पर आश्रित जीव जगत की अपरिहार्य पर्यावरणीय जरूरतों का तो ध्यान रखना ही पड़ेगा। यही तो करने के लिए प्रो. जीडी अग्रवाल कह रहे थे। गंगा तो भारतीय समाज की संस्कृति का अभिन्न अंग है, प्राण त्यागने के समय भी गंगाजल की दो बूंद मुंह में डल जाएं, तो हम जीवन धन्य मानते हैं, अपने घरों में गंगाजल हजारों मील से लाकर सहेजकर रखते हैं, भाजपा सरकार से तो इस आवाज को सुनने की और भी ज्यादा आशा थी, क्योंकि वह तो वैज्ञानिक तर्क के साथ सांस्कृतिक तर्क को भी मानने वाली कहलाती है, फिर क्यों ऐसी लापरवाही हुई, इसकी जांच होनी चाहिए।

भारतीय संस्कृति ने नदियों को मां का दर्जा दिया है, उसके पीछे यही वैज्ञानिक समझ कार्य कर रही थी कि नदी जीव जगत के जीवन प्रवाह को बनाए रखने के लिए अपरिहार्य है। हिमालय क्षेत्र में तो नदियों की स्थिति और भी संवेदनशील होती है, हिमालय के वनों और ग्लेशियरों पर ही उत्तरी भारत की नदियों का बहाव निर्भर करता है, इसलिए वनों और ग्लेशियरों को हानि पहुंचाने वाली गतिविधियों को नियंत्रित किया जाना जरूरी है। बड़े बांध और भारी तोड़-फोड़ वाली गतिविधियां जैसे कि बड़ी चौड़ी सडकें बनाना, खनन आदि से वन विनाश के साथ इतना मलबा निकलता है, जिसका निपटारा असंभव होता है, जिससे पहाड़ी ढलानों पर मलबा फैंकने से अपार हरियाली की क्षति होती है। बांध की झीलों को मीथेन उत्सर्जन का बड़ा माध्यम माना जा रहा है। मीथेन वैश्विक तापमान में वृद्धि करने वाली गैस है, इससे स्थानीय स्तर पर तापमान में वृद्धि होती है। यही कारण है कि तापमान वृद्धि पर्वतीय क्षेत्रों में सामान्य से अधिक हुई है, इससे ग्लेशियर पिघल रहे हैं, जिससे बरसात में छोटी-छोटी झीलें ऊंचाई वाले क्षेत्रों में बनने लगी हैं। दुर्भाग्यवश ये झीलें यदि फूट जाएं, तो नीचे बाढ़ की तबाही झेलने पर मजबूर होना पड़ता है। 90 के दशक में सतलुज में आई भयानक बाढ़ पारछू नदी के स्रोत के पास ऐसी ही झीलों के फूटने से आई मानी जाती है। उत्तराखंड के केदारनाथ की त्रासदी के मूल में भी ग्लेशियरी झीलों का फटना ही कारण रहा है। इस वर्ष (मनाली) हिमाचल प्रदेश में फिर अभूतपूर्व बाढ़ आई और भारी नुकसान हुआ। इन आपदाओं को प्राकृतिक प्रकोप कहकर टालना सच नहीं है, इसके पीछे मानव निर्मित कारण बहुत हद तक जिम्मेदार हैं, इस बात का वैज्ञानिक विश्लेषण होना चाहिए। झूठे बहानों के पीछे छिपना आखिर कब तक काम आ सकता है? इसलिए जीडी अग्रवाल के प्रति हुए अन्याय के प्रायश्चित के लिए वैज्ञानिक और सांस्कृतिक पक्षों को ध्यान में रखते हुए बड़े बांधों के मोह को त्यागकर पर्यावरणीय दृष्टि से उपयुक्त विकल्पों को तलाशने का कार्य होना चाहिए। हमें यह भी समझना चाहिए कि प्रकृति के दोहन की सीमाएं बांधना जरूरी होता जा रहा है। प्रकृति के साथ मनमाना अन्यायपूर्ण दोहन वाला वर्तमान व्यवहार टिकाऊ विकास का आधार नहीं हो सकता।

हमें जरूरत और लालच के बीच भेद करना सीखना होगा। इसकी पहल सरकार की ओर से ही करनी पड़ेगी, क्योंकि अंधाधुंध शोषणपूर्ण दोहन की पहल भी सरकार की ओर से ही प्रोत्साहित की गई है और की जा रही है। जल विद्युत के लिए हाइड्रोकाईनैटिक तकनीक या वोरटेक्स तकनीक से जितना संभव है, उतना ही नए उत्पादन को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए, बाकी नए विकल्प सौर ऊर्जा, पवन उर्जा, समुद्री लहरों से उर्जा पर ध्यान दिया जाना चाहिए, वरना हमारी तरक्की प्राकृतिक आपदाओं की भेंट ही चढ़ती रहेगी और जन-धन का नुकसान अलग से झेलना पड़ेगा। अंत में प्रकृति के संरक्षण पर आधारित विकास के लिए हमें प्रकृति की सीमाओं को पहचानकर सादगी को भी एक जीवनमूल्य के रूप में प्रस्थापित करने का काम करना होगा, इसी पर मानव जाति का भविष्य टिका हुआ है।