भारत में गरीबी बनाम असमानता

डा. भरत झुनझुनवाला

लेखक, आर्थिक विश्लेषक एवं टिप्पणी

लोग बेरोजगारी भत्ते को लेकर मस्त हैं। उनकी श्रम करने की चाहत समाप्त हो गई है और समाज कुंठित हो रहा है। यदि समाज का एक बड़ा वर्ग इस प्रकार निष्क्रिय हो जाएगा, तो समाज के स्थिर रहने में भारी संदेह है। इन कारणों से बढ़ती असमानता के साथ गरीबी उन्मूलन हो जाए, तो भी वह सफल नहीं होगा। हमारे सामने विकट समस्या उपलब्ध है, विकास की प्रक्रिया में असमानता में वृद्धि होती ही है। गरीबी उन्मूलन हो जाए, तो भी यह असमानता विस्फोट बन जाती है, जैसा कि बढ़ती नक्सलवादी गतिविधियों में देखा जा रहा है। मोदी सरकार को अपनी नीति पर पुनर्विचार करना चाहिए…

मोदी सरकार ने उज्ज्वला योजना के अंतर्गत गरीबों को गैस के सिलेंडर वितरित किए हैं, मुद्रा योजना के अंतर्गत किसानों को सस्ते ब्याज पर ऋण दिए हैं और आयुष्मान भारत योजना के अंतर्गत स्वास्थ्य बीमा उपलब्ध कराया है। इन नीतियों का निश्चित रूप से गरीबी उन्मूलन पर सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा, लेकिन इसके साथ-साथ असमानता में वृद्धि भी हो सकती है। बड़ी कंपनियों द्वारा अरबों रुपए कमाए जाएं, उनके अधिकारी ऐशो-आराम का जीवन व्यतीत करें, तो असमानता बढ़ती है। इन्हीं बड़ी कंपनियों से टैक्स वसूल करके गरीब को रोटी, कपड़ा, मकान उपलब्ध कराया जा सकता है, जिससे गरीबी दूर होगी। इस प्रकार असमानता से गरीबी उन्मूलन हो सकता है। असमानता में वृद्धि अनिवार्य है। जब सृष्टि ब्लैक होल से निकल कर प्रकट हुई, तो वह ‘समान’ रही होगी। समय क्रम में अलग-2 तत्त्व प्रकट हुए और तत्त्वों के बीच असमानता उत्पन्न हो गई। इसके बाद जीव और निर्जीव तथा चेतन एवं अचेतन का अंतर उत्पन्न हुआ। असमानता बढ़ती गई। एक ही परिवार में एक बेटा बहुत आगे बढ़ जाता है, जबकि दूसरा पीछे रह जाता है। कारण यह कि हर व्यक्ति बराबर श्रम नहीं करता है। जैसे एक किसान टिशू कल्चर के पौधे लगाकर अच्छी रकम कमाता है और दूसरा इस लाभ को हासिल नहीं कर पाता है। वर्तमान समय में असमानता में वृद्धि होने का एक और कारण है कि नई तकनीकों द्वारा उत्पादन में श्रम का न्यून उपयोग होता है। एक कुशल कर्मचारी 10-20 आटोमेटिक लूम का संचालन कर लेता है। ऐसे कर्मचारी का वेतन ऊंचा होना स्वाभाविक है। साथ-साथ आटोमेटिक लूम के उपयोग के कारण अकुशल श्रमिकों की मांग कम हो जाती है और उनके वेतन कम हो जाते हैं। इसके अलावा आर्थिक विकास के प्रारंभिक समय में आम आदमी की खपत को घटाकर निवेश किया जाता है, जिससे अमसानता बढ़ती है। जैसे अठारहवीं सदी के इंग्लैंड में श्रमिकों के वेतन न्यून से भी कम कर दिए गए और बची रकम को फैक्टरियों में निवेश किया गया।

एक तरफ स्टीम इंजन से चलने वाली कपड़ा मिलें लगाई जा रही थीं और दूसरी तरफ श्रमिक भूखों मर रहे थे। इन फैक्टरियों से भारी मात्रा में उत्पादन हुआ और उद्यमी अमीर हो गए। श्रमिक के वेतन में कटौती और उद्यमी की आय में वृद्धि साथ-साथ हुई। भारत एवं चीन आज इसी प्रक्रिया से गुजर रहे हैं। दोनों देशों में असमानता में भारी वृद्धि हो रही है और साथ-साथ आर्थिक विकास दर चरम पर है। भारत में नक्सलवादी गतिविधियों का बढ़ना एवं आर्थिक विकास दर का नौ प्रतिशत तक पहुंचना साथ-साथ हासिल हुआ है। इन कारणों से असमानता में उत्तरोत्तर वृद्धि होना अनिवार्य दिखता है। असमानता में वृद्धि के साथ-साथ गरीबी उन्मूलन संभव है। जैसे जमींदार बंधुआ मजदूर को रोटी, कपड़ा, मकान उपलब्ध कराए, तो गरीबी दूर हो जाएगी, परंतु असमानता बनी रहेगी। लेकिन असमानता में वृद्धि के साथ-साथ गरीबी में वृद्धि भी संभव है, जैसे अंग्रेजों के शासन काल में भारत में असमानता के साथ-साथ गरीबी का भी विस्तार हुआ था। अथवा अफ्रीका के रुआंडा एवं सोमालिया आदि देशों में असमानता के साथ-साथ भुखमरी व्याप्त है। अतः असमानता में वृद्धि के साथ-साथ गरीबी उन्मूलन हो सकता है और नहीं भी। मेरी दृष्टि से मोदी सरकार ने उज्ज्वला, मुद्रा और आयुष्मान भारत के अंतर्गत असमानता में वृद्धि के साथ-साथ गरीबी उन्मूलन की नीति को अपनाया है। जैसा कि यूपीए सरकार ने रोजगार गारंटी, बीपीएल को सस्ता अनाज एवं किसानों की ऋण माफी आदि कार्यक्रमों के अंतर्गत किया था। सोच है कि बढ़ती असमानता की अनदेखी की जाए और ध्यान गरीबी उन्मूलन पर केंद्रित किया जाए। गरीबी दूर होने से आम आदमी को राहत मिलेगी और वह बढ़ती असमानता से उद्वेलित नहीं होगा। मेरी समझ से यह सोच टिकाऊ नहीं है।

गरीबी उन्मूलन के बावजूद बढ़ती असमानता समाज को विखंडित करेगी। वास्तव में गरीबी उन्मूलन से गरीब की असमानता का विरोध करने की शक्ति में वृद्धि होती है। जैसे बस्तर आदि क्षेत्रों में गरीबी पहले से कम हुई है। रोजगार गारंटी एवं शिक्षा आदि का विस्तार हुआ है, परंतु इन क्षेत्रों में पहले शांति थी और आज नक्सलवादी गतिविधियां पनप रही हैं। कारण यह कि भूखा आदमी विद्रोह करने की क्षमता नहीं रखता है। बीपीएल के सस्ते अनाज से पेट भर जाने के बाद उसे सड़क पर दौड़ती सब्जी से भरी ट्रक खटकने लगती है। बढ़ती असमानता आर्थिक विकास में भी बाधा है, बाजार में मांग उत्पन्न नहीं होती है, जैसे देश के 99 प्रतिशत लोग 250 रुपए प्रतिदिन की दिहाड़ी कमाकर अपना पेट भर रहे हों, तो रैफ्रीजरेटर, टेलीविजन एवं मोटर साइकिल की मांग कम ही उत्पन्न होगी। आर्थिक विकास के लिए जरूरी है कि आम आदमी की खपत में वृद्धि हो। यदि अमीरों द्वारा कमाए गए लाभ का वितरण नहीं होगा, तो उनकी अमीरियत स्वयं ध्वस्त हो जाएगी।  उसी तरह जैसे जमींदार के किले में लोग काम करने को न जाएं, तो वह भूत का डेरा बन जाता है। वर्तमान में जो हमारी आर्थिक विकास की दर 7 प्रतिशत पर टिकी हुई है और बढ़ नहीं रही है उसका मूल कारण यही है।

गरीबी उन्मूलन के फार्मूले में काम करने के प्रोत्साहन के अभाव की भी है। गरीब को सहज ही भोजन मिल जाए, तो श्रम करने की रुचि नहीं रह जाती है। अमरीका आदि देशों में इस समस्या ने विकराल रूप धारण कर लिया है। लोग बेरोजगारी भत्ते को लेकर मस्त हैं। उनकी श्रम करने की चाहत समाप्त हो गई है और समाज कुंठित हो रहा है। यदि समाज का एक बड़ा वर्ग इस प्रकार निष्क्रिय हो जाएगा, तो समाज के स्थिर रहने में भारी संदेह है। इन कारणों से बढ़ती असमानता के साथ गरीबी उन्मूलन हो जाए, तो भी वह सफल नहीं होगा। हमारे सामने विकट समस्या उपलब्ध है, विकास की प्रक्रिया में असमानता में वृद्धि होती ही है। गरीबी उन्मूलन हो जाए, तो भी यह असमानता विस्फोट बन जाती है, जैसा कि बढ़ती नक्सलवादी गतिविधियों में देखा जा रहा है। मोदी सरकार को अपनी नीति पर पुनर्विचार करना चाहिए। बड़ी कंपनियों पर टैक्स वसूल करने की एक सीमा है। उन्हें अंतरराष्ट्रीय बाजार में प्रतिस्पर्धा करनी पड़ती है। उनसे आप अधिक टैक्स वसूल करेंगे, तो वे यहां से पलायन कर जाएंगे, जैसा भारत के तमाम अमीर बीते दिनों में कर रहे हैं। इसके साथ-साथ जब उस टैक्स से आम आदमी को मुफ्त गैस सिलेंडर आदि वितरित किए जाते हैं, तो उससे उनकी मूल आय में वृद्धि नहीं होती है और देश की अर्थव्यवस्था की ग्रोथ रेट न्यून हो जाती है। इसलिए मोदी सरकार को चाहिए कि इस नीति को त्यागकर छोटे उद्योगों को प्रोत्साहन देने के लिए नीति लागू करे, जिससे देश की जमीनी अर्थव्यवस्था में विकास हो।

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