चुनाव में नोट छापने का खतरा

डा. भरत झुनझुनवाला

आर्थिक विश्लेषक

अतः इस समय सही मायने में सरकार के हाथ बंधे हुए हैं। सरकार की पिछले पांच सालों की नीतियों के कारण अर्थव्यवस्था कमजोर है। तदानुसार वित्तीय और मौद्रिक दोनों नीतियों से इस कमजोरी को तोड़ना कठिन है। जैसे कैंसर के मरीज को टॉनिक देकर ठीक नहीं किया जा सकता, उसी तरह जब अर्थव्यवस्था मूलतः कमजोर हो, तो वित्तीय अथवा मुद्रा नीति दोनों ही असफल हो जाती हैं…

सरकार की आर्थिक नीतियों के दो हिस्से होते हैं – वित्तीय एवं मौद्रिक। वित्तीय नीतियों में सरकार द्वारा वसूल किए गए टैक्स और सरकार द्वारा किए गए खर्च गिने जाते हैं, जैसे सरकार ने यदि इन्कम टैक्स अथवा जीएसटी की दर में परिवर्तन किया अथवा मनरेगा या रक्षा खर्चों को बढ़ाया या घटाया, तो ये परिवर्तन वित्तीय नीति में गिने जाते हैं। वित्तीय नीति की विशेषता यह होती है कि इसका प्रभाव सीधे वर्ग विशेष पर और तत्काल पड़ता है। जैसे यदि कपड़े पर जीएसटी की दर बढ़ा दी जाए, तो उपभोक्ता को अगले दिन से ही महंगा कपड़ा खरीदना होगा। यदि इन्कम टैक्स की दर कम कर दी जाए, तो करदाता को इसी वर्ष कम टैक्स अदा करना होगा। दूसरा हिस्सा मुद्रा नीति होता है।

इसमें ब्याज दर का निर्धारण एवं नोट छापना शामिल होता है। ब्याज दर और नोट छापने का आपसी संबंध होता है, जैसे यदि रिजर्व बैंक ब्याज दर कम कर दे, तो लोगों द्वारा ऋण अधिक लिए जाते हैं, जिसकी पूर्ति के लिए रिजर्व बैंक बड़ी मात्रा में नोट छापता है। मुद्रा नीति का प्रभाव सर्वव्यापी एवं देर से पड़ता है। जैसे यदि आज सरकार रिजर्व बैंक ने ब्याज दर कम की, तो लोगों द्वारा कम ब्याज दर की लालच में ऋण लेने में कुछ समय लगता है और जब लोगों द्वारा ऋण लिए जाते हैं, तब ही रिजर्व बैंक द्वारा नोट छापे जाते हैं और अर्थव्यवस्था में तरलता बढ़ती है। ऋण की मांग बढ़ने के बाद नोट छापने में और समय लगता है। इसके बाद नोटों को छापने का महंगाई पर असर आने में और समय लगता है। जैसे यदि आज अर्थव्यवस्था में सौ किलो गेहूं उपलब्ध है और दो हजार रुपए की मुद्रा है, तो गेहूं का दाम 20 रुपया प्रति किलो होगा। यदि सरकार ने नोट छापे और मुद्रा की मात्रा 2000 से बढ़ा कर 2200 रुपए कर दी, तो महंगाई बढ़ेगी, चूंकि उसी सौ किलो गेहूं के पीछे आज 2000 के स्थान पर 2200 रुपए दौड़ रहे होंगे। लेकिन इस पूरे चक्र के संपादन के कारण गेहूं के दाम में वृद्धि होने में समय लगेगा। इसके अलावा मुद्रा नीति का प्रभाव देश के सभी नागरिकों पर समान पड़ता है। महंगाई बढ़ती है, तो गरीब से अमीर सभी की क्रय शक्ति का हृस होता है। तदानुसार उन्हें अप्रत्यक्ष रूप से अधिक मात्रा में टैक्स देना पड़ता है। महंगाई बढ़ने से यदि आपको 100 रुपए में पांच के स्थान पर केवल चार किलो गेहूं मिला, तो समझिए कि एक किलो गेहूं आपने टैक्स के रूप में दे दिया। वैश्विक स्तर पर पाया गया कि सरकारों द्वारा चुनावों के पूर्व मुद्रा नीति का दुरुपयोग करने की संभावना रहती है। मुद्रा नीति के नर्म होने यानी ब्याज दर कम होने से लोगों द्वारा ऋण पहले लिया जाता है, जबकि महंगाई पर उसका असर कुछ समय बाद दिखता है। इसलिए सरकारें चाहती हैं कि चुनाव के पहले मुद्रा नीति को नरम कर दिया जाए, जिससे लोग ऋण लें और उन्हें चुनाव जीतने में सहूलियत हो। इस नर्म मुद्रा नीति का दुष्प्रभाव बाद में पड़ता है, जिस समय तक चुनाव पूरे हो चुके होते हैं। इसलिए विश्व के तमाम देशों में मुद्रा नीति को सरकार के सीधे अधिकारों से बाहर कर दिया गया है। अमरीका में फेडरल रिजर्व बोर्ड के सदस्यों की नियुक्ति 14 वर्ष के कार्यकाल के लिए होती है और सरकार को इन्हें हटाने का अधिकार नहीं होता है। इंगलैंड के बैंक ऑफ इंगलैंड को पूर्ण स्वायत्तता है कि वह कितने नोट छापेगा। यूरोप के केंद्रीय बैंक ‘यूरोपियन सेंट्रल बैंक’ के सदस्य देशों की सरकारों का एक ही प्रतिनिधि होता है। सदस्य देशों के केंद्रीय बैंकों के प्रमुख को व्यक्तिगत रूप से सेंट्रल बैंक का सदस्य बनाया जाता है। इन प्रावधानों का उद्देश्य यह है कि सरकार द्वारा मुद्रा नीति का चुनाव के लिए दुरुपयोग न किया जाए, जिससे दीर्घकाल में देश को हानि न हो। इसलिए इन देशों की सरकारों ने निर्णय लिया कि चुनावी राजनीति से उठकर मुद्रा नीति को स्वायत्त केंद्रीय बैंक को सौंप दिया जाए। इस अंतरराष्ट्रीय मान्यता के विपरीत वर्तमान सरकार ने रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की स्वायत्तता को कम करने का प्रयास किया है। पूर्व में रिजर्व बैंक स्वयं तय करता था कि ब्याज दर क्या होगी और तदानुसार नोट कितने छापे जाएंगे। अब सरकार ने मोनेटरी पालिसी कमेटी बनाई है, जिसमें तीन सदस्य सरकार द्वारा नामित हैं और तीन सदस्य रिजर्व बैंक के अधिकारी होते हैं। इस प्रकार मुद्रा नीति को निर्धारित करने में सरकार की सीधी दखल हो गई है। इसी क्रम में सरकार द्वारा वर्तमान में रिजर्व बैंक पर दबाव डाला जा रहा है कि ब्याज दरों को कम किया जाए और अर्थव्यवस्था में तरलता बढ़ाई जाए, जिससे अर्थव्यवस्था को गति मिले। इस नरम नीति के दुष्प्रभाव चुनाव के बाद होंगे। रिजर्व बैंक ने हाल ही में अर्थशास्त्रियों की एक बैठक बुलाई थी और उनसे सलाह की कि मुद्रा नीति की दिशा क्या होनी चाहिए। खबरों के अनुसार अर्थशास्त्रियों ने बताया कि वतर्मान में देश की आर्थिक विकास दर 6.6 प्रतिशत पर बीते दो सालों के न्यूनतम स्तर पर है। अर्थव्यवस्था की मंद गति के कारण सरकार को टैक्स की वसूली कम हो रही है और सरकार वांछित खर्च नहीं कर पा रही है। अतः सरकार के पास वित्तीय नीति के माध्यम से अपनी चुनावी नीतियों को बढ़ाना संभव नहीं है। इसलिए सरकार रिजर्व बैंक पर दबाव डाल रही है कि ब्याज दरों को घटाया जाए। इस परिस्थिति में दोनों तरफ ही खतरा है। सरकार की आय कम है।

यदि सरकार ऋण लेकर खर्च बढ़ाती है, तो जनता पर टैक्स बढे़गा और उससे त्राहि-त्राहि मचेगी। इसके विपरीत यदि सरकार ब्याज दर घटाकर नोट ज्यादा छपाती है, तो उससे भी महंगाई बढ़ेगी और त्राहि-त्राहि मचेगी। अतः इस समय सही मायने में सरकार के हाथ बंधे हुए हैं। सरकार की पिछले पांच सालों की नीतियों के कारण अर्थव्यवस्था कमजोर है। तदानुसार वित्तीय और मौद्रिक दोनों नीतियों से इस कमजोरी को तोड़ना कठिन है। जैसे कैंसर के मरीज को टॉनिक देकर ठीक नहीं किया जा सकता, उसी तरह जब अर्थव्यवस्था मूलतः कमजोर हो, तो वित्तीय अथवा मुद्रा नीति दोनों ही असफल हो जाती हैं। ऐसी परिस्थिति में रिजर्व बैंक को ब्याज दर घटाने और नोट छापने से बचना चाहिए। यह नीति वर्तमान सरकार के लिए लाभप्रद हो सकती है, परंतु आने वाले समय में देश के लिए हानिप्रद ही रहेगी।

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