बुनियादी संरचना का गहराता संकट

डा. भरत झुनझुनवाला

आर्थिक विश्लेषक

मेरा मानना है कि वित्त मंत्रालय को सूचना थी कि बुनियादी संरचना की मांग में वृद्धि नहीं हो रही है, लेकिन देश-मतदाता को बड़ी योजनाएं लागू करके प्रभावित करने के लिए वित्त मंत्रालय ने इस जानकारी को दबाए रखा और बड़ी योजनाओं को लगातार बढ़ाता गया, यद्यपि आर्थिक दृष्टि से यह सफल नहीं था। अंततः आईएलएफएस के संकट के लिए वित्त मंत्रालय जिम्मेदार बनता है…

इन्फ्रास्ट्रक्चर लीजिंग एंड फाइनेंशिअल सेर्विसेस (आईएलएफएस) एक विशालकाय वित्तीय कंपनी है, जो कि बुनियादी संरचना के निर्माण के लिए बड़े ऋण देती है। जैसे जम्मू को कश्मीर से जोड़ने के लिए नौ किलोमीटर लंबी सुरंग बनाने के लिए इस कंपनी द्वारा ही ऋण दिया गया था। इस कंपनी पर बीते समय भारी संकट आ पड़ा था। बैंकों से लिए गए ऋण की अदायगी यह कंपनी नहीं कर सकी और संकट में आ गई है। वर्तमान में इस कंपनी पर 93 हजार करोड़ रुपए की विशाल राशि बकाया है। इस राशि की विशालता का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि किंगफिशर एयरलाइन के विजय माल्या से केवल आठ हजार करोड़ रुपए ही बैंकों को वसूल करने हैं। इस कंपनी के संकट में पड़ने से देश की संपूर्ण बैंकिंग व्यवस्था ही डूबने को हो गई थी। सरकार के दखल ने इस संकट से अर्थव्यवस्था को बचाया था। संकट के समय आईएलएफएस के अधिकारियों का कहना था कि बुनियादी संरचना का निर्माण सरकारी उपक्रमों के लिए किया गया था, जैसे सड़क का निर्माण नेशनल हाई-वे अथारिटी आफ इंडिया के साथ मिल कर किया गया था। इन सरकारी उपक्रमों द्वारा समय से ऋण की आदायगी न किए जाने के कारण कंपनी संकट में पड़ गई थी, लेकिन अब सामने आ रहे तथ्यों से पता लगता है कि आईएलएफएस का संकट कंपनी में व्याप्त भ्रष्टाचार तथा अर्थव्यवस्था की मूल कमजोरी के कारण था।

इन दोनों ही कारकों की जिम्मेदारी वित्त मंत्री की बनती है। आईएलएफएस मूलतः सरकारी कंपनी है। इसके 25 प्रतिशत शेयर लाइफ इंश्योरेंस कारपोरेशन के हाथ में हैं और छह प्रतिशत स्टेट बैंक आफ इंडिया के हाथ में हैं। ये दोनों कंपनियां सरकारी उपक्रम हैं, इसलिए इनके द्वारा नियंत्रित आईएलएफएस भी मूल रूप से सरकारी उपक्रम ही था। इस कंपनी के सरकार द्वारा निर्देशित होने का स्पष्ट प्रमाण है कि इसमें सरकारी अधिकारियों को ही प्रमुख नियुक्त किया गया है। संकट में पड़ने के कुछ माह पूर्व कंपनी के प्रमुख रवि पार्थसारथि ने इस्तीफा दे दिया था। इसके बाद लाइफ इंश्योरेंस कारपोरेशन के प्रबंध निदेशक हेमंत भार्गव को कंपनी का प्रमुख नियुक्त किया गया। उन्होंने भी इस्तीफा दे दिया। इसके बाद लाइफ इंश्योरेंस कारपोरेशन के ही पूर्व प्रमुख एसबी माथुर को आईएलएफएस का प्रमुख नियुक्त किया गया। लाइफ इंश्योरेंस कारपोरेशन के पूर्व अधिकारियों की नियुक्ति बताती है कि आईएलएफएस का मूल संचालन लाइफ इंश्योरेंस कारपोरेशन द्वारा ही किया जाता था। लाइफ इंश्योरेंस कारपोरेशन पर मालिकाना हक वित्त मंत्री का है। अतः आईएलएफएस के संकट की जिम्मेदारी लाइफ इंश्योरेंस कारपोरेशन के माध्यम से वित्त मंत्रालय की बनती है। संकट में आने के बाद वित्त मंत्रालय ने उदय कोटक के नेतृत्व में आईएलएफएस के नए बोर्ड को गठित किया। इस नए बोर्ड द्वारा आडिट में यह बात सामने आई कि आईएलएफएस के निदेशकों ने नियम विरुद्ध लोन दिए थे। आईएलएफएस की अपनी ही कमेटी ने आगाह किया था कि लोन लेने वालों की वित्तीय स्थिति कमजोर है, लेकिन अपनी ही कमेटी की संस्तुति को नजरअंदाज करते हुए आईएलएफएस के निदेशकों ने कमजोर कंपनियों को ऋण दे दिए। एक घटना में एरा ग्रुप की एक कंपनी को दिवालिया घोषित करने का वाद हाई कोर्ट में चल रहा था। इस याचिका के लंबित होने के बावजूद उस कंपनी को आईएलएफएस ने ऋण दिए, लेकिन 93 हजार करोड़ के बकाया ऋण में इस प्रकार की घपलेबाजी का हिस्सा मात्र दो हजार करोड़ रुपए का है। अतः आईएलएफएस के संकट का यह प्रमुख कारण नहीं दिखता है, यद्यपि पूरी कहानी बाहर आने में समय लग सकता है। इस घपलेबाजी का विस्तार जो भी हो, इसकी जिम्मेदारी वित्त मंत्रालय की बनती है। इस बात के पर्याप्त प्रमाण उपलब्ध हैं कि वित्तीय संसार में आईएलएफएस के संकट के पूर्वानुमान व्याप्त थे। संकट में पड़ने से पहले आईएलएफएस के पूर्व निदेशक मारुति सुजुकी कंपनी के प्रमुख आरसी भार्गव ने एक बयान में कहा था कि लोगों को वर्षों से जानकारी थी कि आईएलएफएस में संकट आएगा। मैं मानता हूं कि इस मंडराते संकट की जानकारी लाइफ इंश्योरेंस कारपोरेशन को थी और इनके माध्यम से वित्त मंत्रालय को भी थी। इस जानकारी के बावजूद आईएलएफएस पर कार्रवाई नहीं की गई, जिसकी जिम्मेदारी वित्त मंत्रालय की बनती है। दूसरा सवाल है कि आईएलएफएस द्वारा दिए गए 91 हजार करोड़ के अन्य सही ऋण संकट में क्यों पड़े? कारण यह दिखता है कि अर्थव्यवस्था कमजोर है। हमारी आर्थिक विकास दर 7 प्रतिशत पर सम्मानजनक है, लेकिन यह विकास बड़ी कंपनियों मात्र के माध्यम से हो रहा है। नोटबंदी और जीएसटी से छोटे उद्यमियों का धंधा चौपट हुआ है और वह धंधा बड़े उद्यमियों को हस्तांतरित हो गया है। इसलिए एक ओर हमारी विकास दर 7 प्रतिशत पर टिकी हुई है, लेकिन साथ-साथ शेयर बाजार उछल रहा है। विकास दर के टिके रहने का बुनियादी संरचना पर सीधा प्रभाव है। यदि सरकार ने फोर लेन राजमार्ग बनाए तो उन पर दौड़ने वाली ट्रकों की संख्या में विशेष वृद्धि नहीं हुई है, क्योंकि आर्थिक विकास दर टिकी हुई है। मूल समस्या यह है कि बुनियादी संरचना की जमीनी मांग नहीं बन रही है। छोटे उद्योगों द्वारा ही अधिकतर रोजगार बनाए जाते हैं। उन्हीं से बिजली और यातायात की मांग बढ़ती है।

छोटे उद्योगों के दबाव में आने से आम आदमी की क्रय शक्ति शिथिल पड़ी हुई है, जबकि सरकार बड़े राजमार्ग बना रही है। आम आदमी की क्रय शक्ति की शिथिलता के कारण राजमार्गों पर यातायत की मांग कम है। टोल की वसूली कम हो रही है और ये ऋण खटाई में पड़ रहे हैं। इसी प्रकार बिजली की मांग कम है और बिजली उत्पादन कंपनियों को दिए गए ऋण खटाई में पड़ रहे हैं। मेरा मानना है कि वित्त मंत्रालय को सूचना थी कि बुनियादी संरचना की मांग में वृद्धि नहीं हो रही है, लेकिन देश मतदाता को बड़ी योजनाएं लागू करके प्रभावित करने के लिए वित्त मंत्रालय ने इस जानकारी को दबाए रखा और बड़ी योजनाओं को लगातार बढ़ाता गया, यद्यपि आर्थिक दृष्टि से यह सफल नहीं था। अंततः आईएलएफएस के संकट के लिए वित्त मंत्रालय जिम्मेदार बनता है।

आईएलएफएस का मालिकाना हक लाइफ इंश्योरेंस कारपोरेशन का था, जिस पर मालिकाना हक वित्त मंत्रालय का है। अतः यदि आईएलएफएस के निदेशकों ने गलत ऋण दिए, तो इसकी जिम्मेदारी लाइफ इंश्योरेंस कारपोरेशन के माध्यम से वित्त मंत्रालय की बनती है। दूसरी तरफ यदि जमीनी अर्थव्यवस्था की मंदी के कारण बुनियादी संरचना की मांग बढ़ नहीं रही थी, लेकिन देश को बड़ी परियोजनाओं का दिखावा करने के लिए वित्त मंत्रालय ने इन्हें लगातार बढ़ाया, तो इसकी जिम्मेदारी भी वित्त मंत्रालय की ही बनती है। अतः वित्त मंत्रालय को देश को जवाब देना चाहिए कि आईएलएफएस के संकट में उसकी क्या भूमिका थी।

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