वन संरक्षण और वनाधिकार

कुलभूषण उपमन्यु

अध्यक्ष, हिमालय नीति अभियान

 

वन धीरे-धीरे समाज की अंतर्चेतना में बसने वाली सामाजिक धरोहर के सिंहासन से उतार कर वन विभाग की संपत्ति बना दिए गए। यह भी नहीं समझा कि यह कितना बड़ा नुकसान वन व्यवस्था के लिए दीर्घकाल में साबित हो सकता है। इसी के चलते वन माफिया और वन व्यापारियों की निकल पड़ी, जो काटो और कमाओ की संस्कृति के ध्वज वाहक बन गए। वन प्रशासन व्यवस्था उनकी पोषक बन गई, क्योंकि वे सरकारी खजाने में भी आय लाने का काम करते थे और अपने वारे-न्यारे भी…

वनों से जुड़े मुद्दों की समझ और चिंता रखने वाले सभी दावेदार और प्रभावित लोग इस बात पर सहमत हैं कि वनों की सुरक्षा और संवर्द्धन के लिए वनों पर निर्भर समुदायों और वनों के पास रहने वाले लोगों का सहयोग लेना बहुत ही जरूरी है। वन विभाग पोलिसिंग के बूते पर सीमित सुरक्षा देने से आगे नहीं बढ़ सकता, क्योंकि वन एक खुली करोड़ों एकड़ में फैली संपदा है, जिसकी पहरेदारी के लिए पुलिसबल सदा अपर्याप्त ही सिद्ध होगा। हमारे देश की मूल संस्कृति को हम अरण्य संस्कृति कहते हैं और उसका गौरव भी मानते हैं, क्योंकि वृक्ष के महत्त्व को वनस्पति में जीवन होने के वैज्ञानिक सत्य को हम आधुनिक विज्ञान से भी पहले जानते थे। हमारे जीवन में वायु, जल  और मिट्टी निर्माण के द्वारा एवं फल-फूल, औषधि, छाया, भूमि कटाव से रक्षा, बाढ़ से रक्षा आदि जो अमूल्य सेवाएं वनों से हमें प्राप्त होती हैं, जिससे हमारी आजीविका भी चलती है, इसकी समझ भारतीय परंपरा में विद्यमान रही है। यह समझ सबसे ज्यादा वनों पर निर्भर और आदिवासी समाजों में सबसे ज्यादा व्यावहारिक रूप में विद्यमान है, क्योंकि उन्हें रोज आपसी निर्भरता के प्रत्यक्ष दर्शन होते हैं। यही कारण है कि यह भारतीय समाज ही है, जहां वनों और विभिन्न वृक्ष प्रजातियों की पूजा की जाती है।

इस श्रद्धा का एक मनोवैज्ञानिक उपकरण के रूप में वन संरक्षण को प्रभावी बनाने की कला के विकास में उपयोग होना अपने आप में भारतीय समाज की बड़ी उपलब्धि मानी जानी  चाहिए, जिस कला ने सभी को वनों के प्रति आत्मीय भाव रखने वाला बना दिया। ऐसे संवेदनशील समाज पर ब्रिटिश शासक वर्ग ने अपनी व्यापारिक स्वार्थ सिद्धि के लिए अविश्वास करके और  वनों पर कब्जा करने के लिए ऐसे कायदे-कानून बनाए, जिससे सामान्य समाज को यह मानने पर मजबूर कर दिया गया कि वनों को बचाने का काम तो वन विभाग का है, आप लोग उससे दूर ही रहें। वन धीरे-धीरे समाज की अंतर्चेतना में बसने वाली सामाजिक धरोहर के सिंहासन से उतार कर वन विभाग की संपत्ति बना दिए गए। यह समझने का भी प्रयास नहीं किया गया कि यह कितना बड़ा नुकसान वन व्यवस्था के लिए दीर्घकाल में साबित हो सकता है। इसी के चलते वन माफिया और वन व्यापारियों की निकल पड़ी, जो काटो और कमाओ की संस्कृति के ध्वज वाहक बन गए। वन प्रशासन व्यवस्था उनकी पोषक बन गई, क्योंकि वे सरकारी खजाने में भी आय लाने का काम करते थे और अपने वारे-न्यारे भी। एक समय तो हिमाचल में यह कहा जाने लगा था कि वन नहीं काटेंगे, तो सरकार कैसे चलाएंगे। सरकारी आय बढ़ाने के लिए वन कटान और व्यापार एक मुख्य साधन के रूप में मान्यता प्राप्त कर चुका था, जिस पर सवाल उठाने की हिम्मत तक कोई नहीं कर सकता था। 1970-80 के दशक में चिपको आंदोलन ने इस स्थिति को चुनौती दी और भारतीय मेधा की ओर ध्यान आकृष्ट करते हुए व्यापारिक आमदनी जो वनों से प्राप्त की जा रही थी, उसके अलावा जीवित वृक्ष द्वारा दिए जा रहे योगदान को आर्थिक रूप में परिभाषित करने की पहल की, जिसमें डा. तारकमोहन दास की गणना को आधार मान कर यह साबित किया गया कि टिंबर तो वृक्ष की मृत पैदावार है, जो एक 50 टन भार वाले वृक्ष की औसत 50 वर्ष की आयु में ऑक्सीजन निर्माण, जलवायु निर्माण और नियंत्रण, भू-क्षरण नियंत्रण, फल, फूल, जल संरक्षण आदि के रूप में दी जाने वाली पर्यावरणीय सेवाओं के मूल्य का केवल 1.27 प्रतिशत ही है। इसलिए पेड़ को केवल टिंबर के लिए काटना घाटे का सौदा भी है और जीवन घातक मूर्खता भी। अब ऐसी समझ रखने वाले समाज को बल प्रदान करने वाले नियम-कायदे बनाकर ही वनों की सुरक्षा की गारंटी ली जा सकती है। वन विभाग ने भी इस समझ का प्रदर्शन करने का अधूरा प्रयास तो साझा वन प्रबंध के रूप में किया, किंतु न तो उसके लिए कोई सशक्त कानून बनाया और न ही उसमें वनों से प्राप्त होने वाले उत्पादों या आय को समुदायों के साथ साझा करने के वादों को पूरा करने का प्रयास ही किया। इस कारण विश्वास का आधार तो बन ही नहीं सका। वन विभाग को जहां एक-दूसरे का सहयोगी पूरक बनना था, वह अपने आपको अंग्रेजी शासन के समय की अविश्वास की स्थिति से बाहर निकालने में सफल नहीं हो सका। वनवासी और वन निर्भर समुदायों के मन में वनों के प्रति उदासीनता के भाव, जो उपनिवेशी शासन की देन  थे, उन्हें वनों से प्रेम के मजबूत होते रिश्तों में बदलने में भी सफल नहीं हो सका। इस कार्य के लिए जिस तरह का शक्तिदाता कानून चाहिए, वह वन अधिकार कानून 2006 के रूप में वन विभाग के नियंत्रण से बाहर की परिस्थितियों में पास हो गया, किंतु वन विभाग इसकी सकारात्मक शक्ति को समझने में नाकाम रहा और सामुदायिक वन प्रबंध के सशक्त प्रावधानों की अनदेखी करके कानून को कमजोर करने की लौबी का हिस्सा बनता गया। देश भर में वन अधिकार कानून 2006 इस समय अंदर-अंदर एक महत्त्वपूर्ण मुद्दे के रूप में उभर रहा है। हिमाचल में भी वन अधिकार मंच के मंडी जिला में किए जा रहे 11 अप्रैल के जलसे की तैयारियों में यह बात सामने आती हुई दिख रही है कि यह मुद्दा अपनी जमीन बना चुका है। अब राजनीतिक दलों को जनता के मन को पढ़ना बाकी है।

सरकारों ने इस कानून की जानकारी से तो जनता को वंचित करके देख लिया है, फिर भी बात तो लोगों तक पहुंच ही रही है, तो क्यों न इस स्थिति का सकारात्मक उपयोग वन संरक्षण और जन जरूरतों को एक ही औजार से पूरा करने का कार्य कर लिया जाए। ज्यादातर सरकार और लोग इसमें वन भूमि पर कब्जे और आवास पर अधिकार देने के प्रावधानों पर ही ध्यान केंद्रित कर रह जाते हैं, जबकि असली प्रावधान तो वनों में सामुदायिक अधिकारों को कानूनी मान्यता दिया जाना है। आज जिन अधिकारों की बात राजस्व बंदोबस्त और वन बंदोबस्त के अधीन दिए गए होने की बात सरकारें उठा  रही हैं, वे अधिकार न होकर केवल छूट हैं। छूट तो कभी भी वापस ली जा सकती है। वन अधिकार कानून इन अधिकारों को कानूनी दर्जा प्रदान करता है, जिससे समुदायों का इन अधिकारों पर विश्वास बढ़ेगा और साथ में इन बर्तनदारी वनों के प्रबंधन में भी सशक्त भूमिका देने का प्रावधान करता है।

यह स्थिति साझा वन प्रबंधन को असली रूप देगी। जहां तक भूमि पर निजी दावों का प्रश्न है, उसे खारिज करने के बजाय हिमालयी क्षेत्रों के लिए अलग सीमा निर्धारित की जा सकती है, जो पर्वतीय क्षेत्रों में कृषियोग्य भूमि की सीमित उपलब्धता को ध्यान में रखकर निर्धारित की जा सकती है। इस कानून के विरोध में खड़े होने वाले दलों को चुनाव में नुकसान उठाना पड़ सकता है। सभी दल इस पर अपना पक्ष सामने रखें, यह मतदाता उम्मीद कर रहा है।