वंशवादी राजनीति की घटती शक्ति

प्रो. एनके सिंह

अंतरराष्ट्रीय प्रबंधन सलाहकार

इस परंपरा के कारण कांग्रेस में किसी अन्य को उभरने का कोई मौका नहीं मिल पाया। उधर नरेंद्र मोदी, जो कि परिवारवादी राजनीति के खात्मे के लिए कृतसंकल्प हैं, चुनाव में फिर से जीत हासिल करके दमदार नेता के रूप में उभर आए हैं। परिवारवादी राजनीति को खत्म करने के अपने लक्ष्य के करीब वह लगते हैं…

एक समय था जब भारत में राजतंत्र हुआ करता था और राज्य की सभी शक्तियों का केंद्र राजवंश हुआ करता था। बाद के समय में राज्य की शक्तियों पर कुछ परिवारों का प्रभुत्व स्थापित हो गया और वे राष्ट्र हित के नाम पर सभी फैसले लेने लगे। परंपरागत प्रणाली, चाणक्य तक, जैसा कि अर्थशास्त्र में दिखाया गया है, में लोकतांत्रिक राजतंत्र था जहां राजा का चुनाव वंशानुगत रूप से होता था किंतु उसे जनता की स्वीकृति होती थी तथा कई अवसरों पर वह राज्य का आध्यात्मिक गुरु भी होता था। रामायण की परंपरागत प्रणाली में जबकि राजा के पास सभी शक्तियां हुआ करती थीं, किंतु वह एक उत्तरदायी प्राधिकारी की तरह काम करता था। उससे अपेक्षा होती थी कि वह धर्म का पालन करेगा। इसका मतलब है कि उस समय न्याय की व्यवस्था थी और कुछ अवसरों पर राजा स्वयं को भी दंड देता था, मिसाल के तौर पर रामायण में भगवान रामचंद्र का माता सीता व लक्ष्मण के साथ वनवास पर चले जाना इसका प्रतीक है। इसके अलावा अर्थ शास्त्र कुछ ऐसे छोटे गणतंत्रों की व्याख्या करता है जो विभिन्न क्षेत्रों में फैले हुए थे तथा जिन्होंने पहचान के टै्रवल दस्तावेज के रूप में अपने पासपोर्ट की व्यवस्था कर रखी थी। 322 ईसा पूर्व में मौर्य राजशाही तथा ईस्वी सन् 750 में दक्षिण में पल्लव राजशाही की मिसाल इन गणतंत्रों के रूप में दी जा सकती है। मुगल राज न केवल कुलीनतांत्रिक था, अपितु शक्तियों के प्रयोग के लिहाज से अपने वजीरों या उलमास काउंसिल पर निर्भर था।

जब भारत में विदेशी शक्तियां आईं तो ब्रिटिश साम्राज्यवादी सरकार ने इंगलैंड के राजा से अपनी शक्ति को ग्रहण किया। उसके प्रतिनिधि भारत को आजाद होने तक शासित करते रहे। ब्रिटिश साम्राज्यवादी शासन ने अपने आप को एक वाणिज्यिक कंपनी से सम-निर्वाचित या नियुक्त प्रशासकीय प्रमुख के रूप में रूपांतरित किया। आजादी के बाद जब अंग्रेज चले गए तो भारत ने सरकार की लोकतांत्रिक प्रणाली को अपनाया जिसमें जनता के निर्वाचित प्रतिनिधि सत्ता निकाय का निर्माण करते हैं। ब्रिटेन के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो उनके लिए सीमित राजतंत्र के साथ लोकतांत्रिक व्यवस्था उनके हित में थी, इसलिए उन्होंने इसे अपनाया। कई अन्य राज्यों ने भी इसी तरह के सीमित राजतंत्र के  साथ लोकतांत्रिक प्रणाली को अपनाया, किंतु भारत ने पूरी तरह लोकतांत्रिक शासन को अपनी आजादी के बाद अपनाया। लोकतांत्रिक प्रणाली अमरीका की तरह की अध्यक्षात्मक प्रणाली अथवा इंगलैंड की तरह की संसदीय प्रणाली में हो सकती है। चूंकि भारतीय संविधान के निर्माताओं पर ब्रिटिश संसदीय प्रणाली का काफी प्रभाव था, इसलिए हमने उस प्रणाली को अपनाया जो आज भी कायम है। हमने सोचा कि अगर हम हूबहू सीमित राजतंत्र वाली ब्रिटिश व्यवस्था को अपनाते हैं, तो यहां भी राजतंत्रीय तत्त्व शासन व्यवस्था में आ जाएंगे। इसलिए हमने ब्रिटिश संसदीय प्रणाली की हूबहू नकल नहीं की, हमने उसके राजतंत्रीय तत्त्व को हटा दिया। इसके बावजूद धन बल, भ्रष्टाचार व पैतृक संरक्षण के कारण यहां पार्टी संचालन में वंशवादी तत्त्व उभर आए। पार्टी स्तर पर पहले से सत्तारूढ़ रहे नेताओं के बच्चों का चयन होता रहा, बगैर यह विचार किए कि बच्चे सक्षम हैं भी या नहीं। इस परिवारवादी शासन का सबसे बुरा परिणाम यह रहा कि कुछ लोगों को अपने परिवार की परंपरागत स्थिति का लाभ मिलता रहा और योग्यता को दरकिनार कर दिया गया। वास्तव में सच्चे अर्थों में किसी देश का विकास इस बात पर निर्भर करता है कि उस देश के नेतृत्व की योग्यता क्या है तथा लोगों का कौशल विकास भी इसका आधार है। इस तरह के परिवारवादी शासन ने जहां भ्रष्टाचार को बढ़ावा दिया है, वहीं योग्यता को अधिमान नहीं मिल पाया है। कुछ लोगों को विशेषाधिकार मिल गए हैं, जबकि योग्यता रखने वाले लोगों के सामने समान अवसरों का अभाव पैदा हो गया है। आजादी के बाद हालांकि भारत ने लोकतांत्रिक प्रणाली को अपनाया, इसके बावजूद नेहरू-गांधी परिवार की वंशवादी के रूप में हम यहां परिवारवादी प्रणाली को उभरता देख सकते हैं। नेहरू-गांधी परिवार भारत में परिवारवादी राजनीति की पहली मिसाल है। गांधी पारसी थे, जिनका नाम फिरोज था और उन्होंने प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की पुत्री इंदिरा नेहरू से शादी कर ली। नेहरू के बाद उनकी पुत्री का चयन वंशानुगत आधार पर हुआ और उन्होंने कई वर्षों तक भारत पर शासन चलाया। इसके बाद इंदिरा गांधी के पुत्र राजीव गांधी सत्ता में आ गए और पार्टी के पास वंश से बाहर जाने का कोई विचार तक नहीं आया।

इस परंपरा के कारण कांग्रेस में किसी अन्य को उभरने का कोई मौका नहीं मिल पाया। उधर नरेंद्र मोदी, जो कि परिवारवादी राजनीति के खात्मे के लिए कृतसंकल्प हैं, चुनाव में फिर से जीत हासिल करके दमदार नेता के रूप में उभर आए हैं। परिवारवादी राजनीति को खत्म करने के अपने लक्ष्य के करीब वह लगते हैं। मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने 23 राज्यों में सत्ता हासिल कर ली है और वंशवादी शक्ति यानी कांग्रेस अब केवल छह राज्यों तक सीमित होकर रह गई है। मोदी की जीत से वंशवादी शक्ति का खात्मा होता जा रहा है। जबकि गांधी परिवार केेंद्र में उभरा, राज्यों ने इसी लाइन पर अपने माडल विकसित करने शुरू कर दिए। समाजवादी पार्टी में इसी तर्ज पर मुलायम सिंह परिवार का वर्चस्व देखा जाता है। चौटाला परिवार भी वंशवादी राजनीति की मिसाल है जिसमें अब टूट देखी जा रही है। उधर लालू परिवार में भी अब फूट उभरकर सामने आ गई है। दक्षिण में देवेगौड़ा परिवार ने इस माडल को अपनाया, करुणानिधि ने भी परिवार के इस माडल को अपनाया। राजनीति में पदार्पण करवाने के लिए जिन नेताओं के पास अपने बेटे-बेटियां नहीं थीं, उन्होंने अपने भतीजों आदि को मैदान में उतार दिया। मिसाल के तौर पर पश्चिम बंगाल में ममता बैनर्जी और यूपी में मायावती ने ऐसा ही किया। वे अपने भतीजों को आगे लेकर आई हैं। लेकिन अब वंशवादी शक्ति को चुनौती मिलने लगी है और उसके अस्तित्व पर संकट पैदा हो गया है। वंशवादी राजनीति की परंपरा अब भारत से उखड़ने लगी है। गरीबी व जातीय व्यवस्था वाले देश भारत में शक्ति का जो शून्य उभर रहा है, उससे पार पाने के उपायों पर राष्ट्रीय बहस होनी चाहिए। मैं अकसर कहता रहा हूं कि अगर सभ्य देशों में भारत को विश्व में टॉप स्थिति प्राप्त करनी है, तो योग्यता को अधिमान देना ही होगा। कुछ तबके, ऐसी स्थिति आए, इसको कमजोर करने में लगे रहते हैं, किंतु यह वह समय है जब योग्यता को अधिमान देना ही होगा।

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