वित्तीय घाटे पर पुनर्विचार करें

डा. भरत झुनझुनवाला

आर्थिक विश्लेषक

 

वित्तीय घाटे के निर्धारण में यह नहीं देखा जाता कि सरकार द्वारा इन दोनों में से कौन से खर्च किए जा रहे हैं। सरकार यदि अपने कर्मियों को बढ़ाकर वेतन दे और इसके लिए ऋण ले अथवा सरकार हाई-वे बनाने के लिए ऋण लेती है, तो दोनों ही हालात में वित्तीय घाटा बढ़ता है। वित्तीय घाटे को इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि खर्च सरकारी खपत के लिए बढ़ रहे हैं अथवा निवेश के लिए, लेकिन किस प्रकार के खर्च के लिए वित्तीय घाटा बढ़ रहा है, इसका अर्थव्यवस्था पर मौलिक प्रभाव पड़ता है…

निवर्तमान सरकार के वित्त मंत्री अरुण जेटली द्वारा वित्तीय घाटे पर नियंत्रण करने की नीति को लागू किया गया था और उनके कार्यकाल के दौरान वित्तीय घाटे में कमी भी आई है, लेकिन इस सार्थक कदम के बावजूद देश की आर्थिक विकास दर 7 फीसदी के करीब सपाट रही है। नए वित्त मंत्री के सामने चुनौती है कि जेटली की इस नीति पर पुनर्विचार करें। वित्तीय घाटे के मूलमंत्र को समझना होगा। वित्तीय घाटे का अर्थ होता है कि सरकार के खर्च अधिक और आय कम है। आय से अधिक किए गए खर्च के लिए रकम जुटाने के लिए सरकार ऋण लेती है। सरकार को ऋण देने के लिए रिजर्व बैंक नोट छापता है। नोट के छापने से महंगाई बढ़ती है और अर्थव्यवस्था में अस्थिरता पैदा होती है। इसलिए वित्तीय घाटे को नियंत्रित करने की सीख दी जाती है। मान्यता है कि वित्तीय घाटा नियंत्रण में रहेगा, तो महंगाई भी नियंत्रण में रहेगी, जैसा पिछले पांच वर्षों में हमने देखा है। महंगाई के नियंत्रण में रहने से आशा की जाती थी कि अर्थव्यवस्था में स्थिरता होगी और स्वदेशी के साथ-साथ विदेशी निवेश भी भारी मात्रा में आएगा। कुल निवेश बढ़ेगा और अर्थव्यवस्था चल निकलेगी, लेकिन हम देख रहे हैं कि बीते पांच साल में यह मंत्र सफल नहीं हुआ है। वित्तीय घाटा लगातार कम होने के बावजूद अर्थव्यवस्था की विकास दर नहीं बढ़ी है। निवेश में भी वृद्धि नहीं हुई है, बल्कि हाल में प्रकाशित आंकड़े बताते हैं कि पिछले वर्ष 2018-19 कुल विदेशी निवेश में मामूली गिरावट ही आई है।

इसलिए वित्तीय घाटे पर नियंत्रण के मंत्र पर पुनर्विचार करना जरूरी है। जैसा ऊपर बताया गया है कि वित्तीय घाटा वह रकम होती है, जो सरकार अपनी आय से अधिक खर्च करती है और जिस खर्च को करने के लिए रिजर्व बैंक द्वारा नोट छापे जाते हैं। सरकार के खर्च दो प्रकार के होते हैं- चालू खर्च एवं पूंजी खर्च। चालू खर्च में सरकारी कर्मियों के वेतन, न्याय व्यवस्था, पुलिस व्यवस्था, मुद्रा व्यवस्था आदि जो रोजमर्रा के होते हैं, वे शामिल हैं। इसके इतर पूंजी खर्च वे होते हैं, जो नए निवेश के लिए किए जाते हैं, जैसे हाई-वे या एअरपोर्ट बनाने अथवा जनता को मुफ्त वाई-फाई उपलब्ध कराने के उपकरण लगाने इत्यादि में। वित्तीय घाटे के निर्धारण में यह नहीं देखा जाता कि सरकार द्वारा इन दोनों में से कौन से खर्च किए जा रहे हैं। सरकार यदि अपने कर्मियों को बढ़ाकर वेतन दे और इसके लिए ऋण ले अथवा सरकार हाई-वे बनाने के लिए ऋण लेती है, तो दोनों ही हालात में वित्तीय घाटा बढ़ता है। वित्तीय घाटे को इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि खर्च सरकारी खपत के लिए बढ़ रहे हैं अथवा निवेश के लिए, लेकिन किस प्रकार के खर्च के लिए वित्तीय घाटा बढ़ रहा है, इसका अर्थव्यवस्था पर मौलिक प्रभाव पड़ता है। पूंजी और चालू घाटे का अंतर एक उदाहरण से समझा जा सकता है। एक व्यक्ति यदि दुकान समय से पहुंचने के लिए बाइक खरीदने के लिए लोन लेता है, तो यह पूंजी खर्च कहा जाएगा। पूंजी खर्च से हुए लाभ से वह लिए गए ऋण का री-पेमेंट कर सकता है, लेकिन यदि विदेशी पर्यटन के लिए वही ऋण लिया जाए, तो उससे केवल खपत बढ़ती है और आय नहीं बढ़ती। ऐसे ऋण का री-पेमेंट करना कठिन हो जाता है। विदेशी पर्यटन के लिए लिया गया ऋण सरकार के चालू घाटे के समान है। अतः जिस प्रकार आम आदमी को बाइक खरीदने के लिए ऋण लेना चाहिए और विदेश यात्रा के लिए नहीं, उसी प्रकार सरकार को पूंजी घाटे के लिए ऋण लेना चाहिए, लेकिन चालू घाटे के लिए नहीं। पहले चालू खर्चों से हुई वित्तीय घाटे में वृद्धि के परिणाम पर विचार करें। मान लीजिए सरकार ने अपने कर्मियों को बढ़ा-चढ़ा कर वेतन दिए और इस कार्य के लिए ऋण लिए। ऐसा करने से महंगाई बढ़ेगी, अर्थव्यवस्था में अस्थिरता आएगी और निवेश में गिरावट आने की संभावना बनती है। इसके विपरीत यदि सरकारी कर्मियों के वेतन को फ्रीज कर दिया जाता है, सरकार का चालू घाटा कम हो जाता है, तो सरकार को नोट नहीं छापने होंगे। अर्थव्यवस्था में स्थिरता आएगी और विदेशी निवेश के साथ-साथ घरेलू निवेश में वृद्धि होगी। कुल निवेश में वृद्धि होगी और अर्थव्यवस्था के चल निकलने की संभावना बनती है। यानी चालू घाटे का बढ़ना नुकसानदेह है और चालू घाटे का घटना लाभप्रद है। पूंजी घाटे के परिणाम इससे पूर्णतया विपरीत होते हैं। मान लीजिए सरकार ने हाई-वे बनाने के लिए नोट छापे, पूंजी घाटा बढ़ा और उसके साथ-साथ वित्तीय घाटा भी बढ़ा। नोट छापने से महंगाई बढ़ी, अर्थव्यवस्था में अस्थिरता पैदा हुई। ऐसे में निवेशकों के सामने दो विपरीत प्रभाव आते हैं।

एक तरफ उन्हें यह दिखता है कि देश में हाई-वे बन रहे हैं और व्यापार करना सुगम हो रहा है, दूसरी तरफ उन्हें यह भी दिखता है कि महंगाई बढ़ रही है और अर्थव्यवस्था में अस्थिरता आ सकती है। अतः निजी निवेश पर कुल प्रभाव सकारात्मक अथवा नकारात्मक दोनों हो सकता है, लेकिन पूंजी खर्चों के लिए किए गए सरकारी खर्च का सीधा सकारात्मक प्रभाव होगा। इसलिए पूंजी खर्चों को पोषित करने के लिए पूंजी घाटे एवं तदानुसार वित्तीय घाटे के बढ़ने से कुल निवेश बढ़ता है। हमें ध्यान रखना चाहिए कि वर्ष 2014 के पहले अपना वित्तीय घाटा ज्यादा रहता था, लेकिन आर्थिक विकास दर भी ऊंची थी। कारण यह था कि वित्तीय घाटे के कारण उत्पन्न हुई अस्थिरता की तुलना में निवेशकों ने वित्तीय घाटे से पोषित हाई-वे को ज्यादा महत्त्व दिया और निवेश जारी रखा। इसके विपरीत 2014-19 में पूंजी घाटा रहा और वित्तीय घाटा भी कम होता गया। अर्थव्यवस्था स्थिर रही, महंगाई काबू में रही। आशा की जाती थी कि निवेश आएगा, लेकिन सरकारी पूंजी खर्च के अभाव में उसका आना संदिग्ध बना रहा।

इसलिए हमने देखा है कि पिछले पांच वर्षों में वित्तीय घाटे में लगातार गिरावट के बावजूद निवेश में वृद्धि नहीं हुई है और आर्थिक विकास दर सपाट है। इस विवेचन से स्पष्ट होता है कि समस्या वित्तीय घाटे की नहीं, बल्कि चालू घाटे की है। चालू घाटे के बढ़ने से अर्थव्यवस्था को नुकसान होता है, जबकि पूंजी घाटे के बढ़ने से अर्थव्यवस्था को लाभ होता है। समस्या यह है वित्तीय घाटे में दोनों को जोड़ दिया जाता है। अतः वित्तीय घाटा कम हो, लेकिन उसके नियंत्रण के पीछे पूंजी घाटे में कटौती हो, तो वह कम होता वित्तीय घाटा नुकसानदेह सिद्ध होता है, जैसा कि पिछले पांच वर्षों में होता रहा है। नई सरकार के वित्त मंत्री के सामने चुनौती है कि सरकार के खर्चों को वित्तीय घाटे के मापदंड से मापने के स्थान पर चालू घाटे के मापदंड पर नापे। चालू घाटे का नियंत्रण और पूंजी घाटे में वृद्धि ही आर्थिक विकास की सही कुंजी है, जिसे नई वित्त मंत्री को अपनाना चाहिए।

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