कर्नाटक की सियासत के सबक

प्रो. एनके सिंह

अंतरराष्ट्रीय प्रबंधन सलाहकार

15 विधायकों, जिनमें दस कांग्रेस और पांच जनता दल सेक्युलर के हैं, ने इस्तीफा दे दिया है और चाहते हैं कि स्पीकर इन्हें स्वीकार करे। पूरा मामला लड़खड़ाती सरकार ने लटकाए रखा, जो सदन का विश्वास खो चुकी थी, परंतु तकनीकी रूप से इसे बाहर नहीं किया जा सका। राज्य में बहुत अजीब परिस्थिति थी, जहां सरकार जेडीएस द्वारा चलाई जा रही थी, जबकि कांग्रेस बड़ी पार्टी थी और भाजपा ने चुनाव में अधिकतम सीटें हासिल की थीं। कांग्रेस की सोनिया गांधी ने चतुराई से यह दांव-पेंच लगाकर  जेडीएस को इसका प्रस्ताव रखा, जो कि तीसरे नंबर पर था और उनका मुख्यमंत्री बनाना स्वीकार कर लिया। उसने जेडीएस के नेता को मुख्यमंत्री बना दिया और जिस पार्टी के पास जेडीएस के मुकाबले ज्यादा नंबर थे, वह सदन में बहुमत बनाने के लिए इस गठबंधन में शामिल हो गई। अतीत में ऐसा समझौता पहले नहीं हुआ…

कर्नाटक का मामला शायद संवैधानिक नियमों की जानकारी रखने वाले लोगों के लिए परीक्षण और अध्ययन का मुद्दा बन जाएगा और इसके साथ-साथ उन लोगों के लिए जो इस पवित्र संविधान, जिसे देश की इच्छानुसार प्रतिष्ठापित किया गया, के कार्यों का अध्ययन करने में दिलचस्पी रखते हैं। यह कोई निष्क्रिय प्रपत्र नहीं है, जिसका पुनः अवलोकन तथा बदलाव करके परिवर्तित नहीं किया जा सकता है। जैसी कर्नाटक की हालत दिखाई दे रही है, इसकी किसी को भी अपेक्षा नहीं थी। मानव का दिमाग इस हालत की असंख्य तरीकों से व्याख्या करने में सक्षम है। 15 विधायकों, जिनमें दस कांग्रेस और पांच जनता दल सेक्युलर के हैं, ने इस्तीफा दे दिया है और चाहते हैं कि स्पीकर इन्हें स्वीकार करे। पूरा मामला लड़खड़ाती सरकार ने लटकाए रखा, जो सदन का विश्वास खो चुकी थी, परंतु तकनीकी रूप से इसे बाहर नहीं किया जा सका।

राज्य में बहुत अजीब परिस्थिति थी, जहां सरकार जेडीएस द्वारा चलाई जा रही थी, जबकि कांग्रेस बड़ी पार्टी थी और भाजपा ने चुनाव में अधिकतम सीटें हासिल की थीं। कांग्रेस की सोनिया गांधी ने चतुराई से यह दांव-पेंच लगाकर  जेडीएस को इसका प्रस्ताव रखा, जो कि तीसरे नंबर पर था और उनका मुख्यमंत्री बनाना स्वीकार कर लिया। उसने जेडीएस के नेता को मुख्यमंत्री बना दिया और जिस पार्टी के पास जेडीएस के मुकाबले ज्यादा नंबर थे, वह सदन में बहुमत बनाने के लिए इस गठबंधन में शामिल हो गई। अतीत में ऐसा समझौता पहले नहीं हुआ। सबसे पहले राज्यपाल सबसे अधिक सीटें हासिल करने वाली पार्टी को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करते हैं, परंतु इस मामले में बहुमत दो पार्टियों द्वारा बनाया गया और भाजपा ज्यादा नंबर होने के बावजूद बहुमत हासिल नहीं कर पाई। इसे राजनीतिक दायरे में कांग्रेस अध्यक्ष का मास्टर स्ट्रोक माना गया। यह दो पार्टियां, जो हमेशा से ही एक-दूसरे के खिलाफ रहीं, सत्ता हथियाने के लिए गठजोड़ में शामिल हो गईं। इसके बाद ऐसे हालात पैदा हुए कि कांग्रेस के सदस्यों को यह लगने लगा कि उसके साथ दोयम दर्जे का व्यवहार किया जा रहा है, जबकि जेडीएस को उससे भी कम सीटें मिली थीं। अंततः 15 विधायकों ने इस्तीफा दे दिया। भाजपा को इसके लिए जिम्मेदार ठहराया गया, परंतु ऐसा दिखता नहीं है और सभी संकेतों से यह स्पष्ट भी नहीं हुआ। अब सदन की साधारण कार्रवाई के बावजूद इस हालत में एक फ्लोर टेस्ट स्पष्ट विकल्प है, परंतु स्पीकर इसे एक के बाद दूसरे दिन के लिए मुल्तवी कर रहे हैं। यहां इस मामले में चार संस्थाएं शामिल हैं ः सरकार, स्पीकर, एक तरफ विपक्ष और दूसरी तरफ सर्वोच्च न्यायालय तथा सरकार। इनमें से कोई भी संस्थान निष्पक्ष कार्य नहीं कर रहा है। ऐसा लग रहा था कि इसे टाला जा सकता है, जबकि सर्वोच्च न्यायालय ने पहले दृष्टांत में इसके समाधान का फैसला दिखाया, परंतु बाद में इसने अपने स्पष्ट आदेश-पत्र को वापस ले लिया, जिसने कि विधायकों के इस्तीफों के मामले को 48 घंटों में सुलझाना था। जबकि अपने वास्तविक मूल से बचकर वापस चला गया, जो इस बारे में स्पीकर को अपनी मर्जी से फैसला करने की स्वतंत्रता देता है। विधानसभा अध्यक्ष ने निष्पक्ष भूमिका अदा करने की बजाय अनिश्चित काल के लिए मामले को लटकाए रखने के जरिए सरकार का पक्ष लिया। उन्होंने इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के सामने कोई फैसला न लेने का काफी अजीब तर्क रखा कि वह 70 साल के हो चुके हैं और जल्दी कार्य नहीं कर सकते।

अब राज्यपाल का दृश्य सामने आया और वह बिना किसी सकारात्मक प्रतिक्रिया के एक के बाद एक समय सीमा निर्धारित कर रहे हैं। स्पीकर ने वास्तव में राज्यपाल के निर्देशों को फेंक दिया और इसने ऐसे में मामलों में राज्यपाल की शक्तियों पर विवाद-बहस को आमंत्रित किया। अगर कोई व्यक्ति अरुणाचल प्रदेश के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को देखता है तो वह पाता है कि पांच न्यायाधीशों ने एक कन्फ्यूजिंग जजमेंट उद्घोषित किया। यह कहा जाता है कि सरकार संविधान के सिद्धांतों को मानने के लिए बाध्य है और राज्यपाल मंत्रिमंडल के फैसले को मानने के लिए बाध्य है। संविधान में राज्यपाल द्वारा मुख्यमंत्री को संदेश भेजने का भी प्रावधान है और इस मामले में संदेश भेजने के इस प्रावधान को अनदेखा किया गया। कुछ विशेषज्ञों ने स्पष्ट कर दिया है कि राज्यपाल संदेश भेज सकते हैं और इस पर कार्रवाई होनी चाहिए। दो सप्ताह से सरकार का विश्वास अधर में लटका है। अगर राज्यपाल की कोई भूमिका नहीं है और यह प्रभावी नहीं है, तब इस पद को खत्म कर दिया जाना चाहिए। समय के साथ फिर राज्यपाल की भूमिका और पद सवालिया बना हुआ है।

इसी तरह स्पीकर की शक्तियों और सदन के जिन सदस्यों ने इस्तीफे दिए हैं, उन पर विस्तृत बहस और निरंतर हो रहे संघर्ष से बचने के लिए स्पष्टीकरण की जरूरत है। इन संस्थाओं की दुविधा देश के लिए विचार का एक अहम मसला है। अब जबकि कुमारस्वामी सरकार सदन में विश्वास मत खो चुकी है, तो राज्यपाल के पास अब यह विकल्प है कि वह भाजपा के नेता येदियुरप्पा को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करे। वास्तव में सरकार के विरोध में 105 मत पड़े हैं, जबकि उसके पक्ष में केवल 99 मत पड़े। 15 सदस्यों के इस्तीफा देने के बाद सदन की प्रभावी संख्या अब कम मानी जाएगी और इसके दृष्टिगत लगता यह है कि भाजपा को सदन में बहुमत हासिल है। वास्तव में इस समय भाजपा सबसे बड़ा दल है जिसके पास नंबर गेम है। अतः अब लगता यह है कि राज्य में भाजपा सरकार का गठन हो जाएगा।

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