जल संसाधनों की चिंताजनक स्थिति

कुलभूषण उपमन्यु

अध्यक्ष, हिमालय नीति अभियान

 

पूरे देश में जल भरण क्षेत्रों और जल निकास क्षेत्रों का सर्वेक्षण होना चाहिए, ताकि भू-जल भरण का काम कहां करना है, इस बात का पता रहे। वैश्विक तापमान वृद्धि के चलते जलवायु परिवर्तन का खतरा बढ़ रहा है। ग्लेशियर पिघलने की दर बढ़ रही है, इसलिए जल संरक्षण का बड़ा भार वनों पर आने वाला है। इसके लिए हिमालय और मध्य भारत के वनों का महत्त्व समझना होगा…

भारतवर्ष में लगातार जल आपूर्ति की स्थिति बिगड़ती जा रही है। केंद्रीय भू-जल बोर्ड के आकलन के अनुसार 2050 तक पानी की आवश्यकता 1180 बिलियन घन मीटर होगी। वर्तमान में हमारी जल उपलब्धता 1123 बिलियन घन मीटर है, जिसमें से 890 बिलियन घन मीटर सतही जल और 433 बिलियन घन मीटर भू-जल से प्राप्त होता है। ग्लेशियर पिघलने की दर 1975-2000 के मुकाबले में 2001-2019 के बीच दोगुना हो चुकी है, जिससे ग्लेशियरों से प्राप्त होने वाले जल में धीरे-धीरे कमी आती जाएगी। भू-जल दोहन की गति भी निर्बाध बढ़ती जा रही है। इसकी स्थिति भी आने वाले समय में बद से बदतर होने वाली है। 1951 में प्रति व्यक्ति प्रतिदिन जल उपलब्धता 14118 लीटर थी, जो आज घट कर 3120 लीटर रह गई है। अधिकांश राज्यों में भू-जल दोहन की गति भू-जल भरण की दर से अधिक है।

दिल्ली, चेन्नई, बंगलुरू, हैदराबाद में 2020 तक ही भू-जल समाप्त होने वाला है। देश के विभिन्न भागों में पानी रेल गाडि़यों और टैंकरों से ढोकर पिलाने की नौबत आ गई है। पानी की सबसे ज्यादा मांग सिंचाई, उसके बाद घरेलू प्रयोग और फिर उद्योगों के लिए है। उद्योगों के लिए पानी की जरूरत तुलनात्मक दृष्टि से भले कम हो, किंतु सतही और भू-जल को प्रदूषित करने में उद्योगों की बड़ी भूमिका है। इसके अलावा कृषि में प्रयोग हो रहे रसायनों और शहरी मल से भी जल प्रदूषण बढ़ रहा है। कमी की स्थिति में हम जल को इस तरह प्रदूषित करने की लापरवाही नहीं बरत सकते। गुरुग्राम में अवैध नलकूपों से प्रतिदिन चार करोड़ लीटर पानी निकाला जा रहा है। 10 वर्षों में यहां का जल स्तर 16 मीटर नीचे चला गया है। भू-जल भंडारों में जल स्तर कम हो जाने के कारण लोहे, फ्लोराइड, संखिए  और खारेपन की समस्या पैदा हो जाती है। राजस्थान के कुछ हिस्सों में यूरेनियम प्रदूषण का खतरा पैदा हो गया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट में जांचे गए 33 फीसदी कुओं में यूरेनियम की मात्रा सुरक्षित सीमा से ज्यादा पाई गई है। देश के 255 जिले पानी की कमी से जूझ रहे हैं। देश में जल संसाधनों का असमान वितरण भी एक समस्या है। 36 फीसदी क्षेत्र में 71 प्रतिशत जल उपलब्ध है और 64 फीसदी क्षेत्र में 29 प्रतिशत जल उपलब्ध है, जिससे एक तरफ बाढ़ और दूसरी ओर सूखे का क्रम चलता रहता है। इसके अतिरिक्त अकुशल जल प्रबंधन, अनियंत्रित भू-जल दोहन, औद्योगिक तथा शहरी मल जल और कचरे से जल प्रदूषण अन्य महत्त्वपूर्ण समस्याएं हैं। जनसंख्या की अनियंत्रित वृद्धि के चलते समस्याएं ज्यादा विकट रूप लेने वाली हैं। 2004 के बाद से भू-जल मापन का कार्य भी विश्वसनीय आधुनिक तकनीकों का उपयोग करके नहीं किया गया है। जब तक हमें समस्या और अपनी स्थिति का पूरा पता न हो, तब तक समस्या के समाधान की योजना बनाना व्यावहारिक नहीं हो पाता है। इस विकट परिस्थिति से निकलने के लिए वैज्ञानिक समझ के आधार पर दीर्घकालीन समझ के साथ गंभीर योजना बनाने की जरूरत है। सतही जल का सदुपयोग, खासकर सिंचाई के तरीकों में बड़े बदलाव की जरूरत है। ड्रिप सिंचाई, स्प्रिकलर सिंचाई जैसे साधनों से पानी बचाना आदि। पानी की कमी वाले क्षेत्रों में कृषि में कम पानी मांगने वाली फसलों को प्रोत्साहित करना चाहिए। गन्ने और धान की खेती के अत्यधिक प्रसार से जल संकट में वृद्धि हो रही है। खेती के अतिरिक्त घरेलू उपयोग में भी कमी लाना जरूरी होता जा रहा है। रसोई के पानी को सिंचाई के लिए प्रयोग करना, वर्तमान फ्लश शौचालयों में बहुत पानी बर्बाद होता है। आधुनिक ड्राई शौचालय इसका अच्छा विकल्प हो सकते हैं, जिनसे प्रति परिवार 25 हजार लीटर पानी प्रति वर्ष बच सकता है। हां यह कार्य धीरे-धीरे संसाधन जुटा कर ही हो सकता है। औद्योगिक प्रदूषण एक बहुत ही खतरनाक समस्या है, जो साफ पानी को बिना उपयोग किए ही प्रदूषित करके नष्ट कर देता है। शहरी मल जल को संशोधित करके सिंचाई के लिए उपयोग करने की बृहद योजना बनाई जानी चाहिए। पानी की बचत, पानी को प्रदूषण से बचाना तो अपनी जगह जरूरी है ही, किंतु वर्षा के जल को सतह और भू-जल के रूप में संरक्षित करना होगा। इसके लिए एक तो बड़े जलाशय बनाने का विकल्प है, किंतु बड़े जलाशयों के लिए विस्थापन से बड़ी समस्या पैदा होती है। जल संरक्षण और जैव विविधता के भंडार वन नष्ट होते हैं, जितना लाभ होता है, उससे ज्यादा हानि हो जाती है।

फिर केंद्रित जलाशय से पानी को जगह-जगह ले जाने के लिए नहरें बनाना सब महंगा मामला है। साथ ही इसमें बहुत पानी व्यर्थ वाष्पीकरण से नष्ट हो जाता है। कभी भी अनुमानित सिंचाई क्षेत्र में बड़ी जलाशय आधारित योजनाओं से सिंचाई का लक्ष्य पूरा नहीं हुआ है। इसलिए भू-जल भरण के पुराने और आधुनिक तरीकों का प्रयोग करके विकेंद्रित जल संरक्षण पर जोर दिया जाना चाहिए। कुएं, तालाब, झीलें और आधुनिक रीचार्जिंग नलकूप बना कर बड़े पैमाने पर काम होना चाहिए। पूरे देश में जल भरण क्षेत्रों और जल निकास क्षेत्रों का सर्वेक्षण होना चाहिए, ताकि भू-जल भरण का काम कहां करना है, इस बात का पता रहे। वैश्विक तापमान वृद्धि के चलते जलवायु परिवर्तन का खतरा बढ़ रहा है। ग्लेशियर पिघलने की दर बढ़ रही है, इसलिए जल संरक्षण का बड़ा भार वनों पर आने वाला है। इसके लिए हिमालय और मध्य भारत के वनों का महत्त्व समझना होगा। हिमालय में जल संरक्षण के लिए उपयुक्त प्रजातियों का रोपण बड़े पैमाने पर हो।

जल को हिमालय की मुख्य पैदावार घोषित किया जाना चाहिए। पूरे देश के पानी की सुरक्षा के लिए हिमालयी राज्यों को ग्रीन बोनस देकर वनों के व्यापारिक कटान पर प्रतिबंध के चलते आय में होने वाली कमी को पूरा करने का प्रयास होना चाहिए। हिमालय संरक्षण जोन बनाया जाना चाहिए, जिसमें स्थानीय लोगों की जरूरतें पूरी करने के अतिरिक्त स्थानीय वनों पर और कोई बोझ न हो। व्यापार या किसी और बहाने वन कटान के प्रयास बंद होने चाहिएं। भू-जल भरण और हिमालय के वन ही आने वाले समय के लिए जल सुरक्षा के प्रमुख साधन होंगे।