शुरू हुई पत्र लेखन प्रतियोगिता

डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री

वरिष्ठ स्तंभकार

 

उनका कहना है कि देश की बहुसंख्या राम को पूज्य मानती है, इसलिए उसके नाम से युद्ध उद्घोष बन जाना, एक प्रकार से राम का अपमान करना ही माना जाएगा। वैसे अपने आप में यह तर्क बहुत खतरनाक है। कहीं यह गैंग कल यह न कहना शुरू कर दे कि भारतीय सेना में से युद्ध क्षेत्र में लगाया जाने वाला घोष हर-हर महादेव भी बंद किया जाए…

नरेंद्र मोदी शासन के प्रथम काल में बहुत देर तक पत्र लेखन प्रतियोगिता शुरू हुई थी। विश्वविद्यालयों व महाविद्यालयों से सेवामुक्त कुछ अध्यापकों ने प्रधानमंत्री को चिट्ठियां लिखनी शुरू की थीं कि सरकार टुकड़े-टुकड़े गैंग के समर्थकों पर कार्रवाई करके नागरिकों के बोलने के अधिकार को छीन रही है। यह प्रतियोगिता लंबे समय तक चलती रही।  अध्यापकों के बाद कुछ पत्रकारनुमा व्यक्ति भी इसमें कूदे थे। प्रिंट मीडिया तो इस प्रकार की प्रतियोगिता के प्रभाव और मकसद को जानता था, इसलिए उसके लिए तो यह पत्र लेखन प्रतियोगिता अहमियत नहीं रखती थी, लेकिन इलेक्ट्रोनिक मीडिया के लिए ये पत्र बहुमूल्य पूंजी थे। इसलिए विभिन्न चैनलों पर सारा दिन बहस चलती रहती थी। इलेक्ट्रोनिक मीडिया द्वारा यह बहस चलाने के पीछे उनका एक व्यावसायिक पेंच भी था। न्यूज चैनल के नाते पंजीकृत चैनल मनोरंजन के कार्यक्रम प्रसारित नहीं कर सकता। उस प्रकार के चैनलों के पंजीकरण की राशि ज्यादा रहती होगी, लेकिन चैनल के मालिक को पता है कि चैनल से मुनाफा कमाने के लिए मनोरंजन के कार्यक्रम परोसना जरूरी है। मनोरंजन के कार्यक्रम देने वाले चैनलों पर दर्शकों की भीड़ जुड़ती है, शुष्क खबरिया चैनलों को देखने वाले तो गिनती के लोग ही होते हैं।

इसलिए खबरिया इलेक्ट्रोनिक चैनल पत्र प्रतियोगिता पर सारा सारा दिन बहस करवाकर दर्शकों का मनोरंजन ही करती थीं और अपना डीपीआर बढ़ाती थीं। यह तमाशा बहुत देर तक चला, लेकिन जब जनता तमाशे से ऊब गई, तो पत्र लिखने वालों ने चिट्ठियां लिखनी बंद कर दीं और चैनलों पर मनोरंजन पर्व समाप्त हो गया। यह अलग बात है कि चिट्ठी लिखने वाले इन रिटायर्ड अध्यापकों को अंत तक यह विश्वास बना रहा कि इन की चिट्ठियों से प्रभावित होकर देश की जनता चुनावों में मोदी सरकार को हरा देगी, लेकिन हुआ इसका उल्टा। देश की जनता ने मोदी सरकार को और भी ज्यादा बहुमत से जिता ही नहीं दिया, बल्कि रिटायर्ड अध्यापकों की चिट्ठियां लिखते रहने की इस हरकत से तंग आकर उनके पुराने विद्यार्थी भी उनका साथ छोड़ने लगे। लेकिन लगता है अब मोदी के दूसरे शासन काल में चिट्ठियां लिखने वाला गैंग एक बार फिर सक्रिय हुआ है। इस बार रिटायर्ड अध्यापक नहीं, बल्कि फिल्म बनाने वाले चिट्ठी लिख रहे हैं। चिट्ठी लिखने वालों में 49 फिल्म बनाने वाले शामिल हैं, दो और जुड़ जाते, तो इक्यावन हो जाते। इक्यावन शुभ माना जाता है, लेकिन हो सकता है दो मिले ही न हों या फिर चिट्ठी लिखने वाले शुभ-अशुभ की अवधारणा को ही दकियानूसी मानते हों, इसलिए उससे बचते हों। चिट्ठी में क्या कहा गया है, इसकी चर्चा कर ली जाए। उसमें लिखा गया है कि देश में मुसलमानों, दलितों और अन्य अल्पसंख्यक समुदायों को भीड़ द्वारा मार देने की घटनाएं बहुत बढ़ गई हैं। 2016 में इस प्रकार की 840 घटनाएं हुईं और ऐसे मामलों में सजा बहुत कम लोगों को हुई। चिट्ठी पर हस्ताक्षर करने वालों में से अंगूर गोपालकृष्णन, मणिरत्नम, अनुराग कश्यप, सोमिता चटर्जी, अर्पना सेन व विनायक सेन भी शामिल हैं। इनका कहना है कि मुसलमानों और दलितों को भीड़ द्वारा मार देने का मुख्य कारण परस्पर मिलने पर एक-दूसरे को ‘जय श्रीराम’ कह कर अभिवादन किया जाना है। देश के बहुत से हिस्सों में मिलने पर एक-दूसरे को राम-राम कह कर अभिवादन किया जाता है। कहीं-कहीं जय श्री राम भी कहा जाता है। कई बार आम जनता में प्रचलित अभिवादन, सेना में युद्ध उद्घोष के लिए भी प्रचलित हो जाता है। उदाहरण के लिए ‘हर-हर महादेव’ जय भवानी, ‘जो बोले सो निहाल’ इत्यादि ऐसे ही युद्ध उद्घोष हैं, जो भारतीय सेना में प्रचलित हैं। यही उद्घोष करते हुए भारतीय जवानों ने कारगिल के युद्ध में ऐतिहासिक विजय प्राप्त की थी। पत्र लेखन प्रतियोगिता गैंग के लोगों का कहना है कि जय श्री राम भी अब एक प्रकार से युद्ध उद्घोष बन गया है। इस पर इस गैंग के सदस्यों ने गहरा दुख प्रकट किया है। उनका कहना है कि देश की बहुसंख्या राम को पूज्य मानती है, इसलिए उसके नाम से युद्ध उद्घोष बन जाना, एक प्रकार से राम का अपमान करना ही माना जाएगा। वैसे अपने आप में यह तर्क बहुत खतरनाक है। कहीं यह गैंग कल यह न कहना शुरू कर दे कि भारतीय सेना में से युद्ध क्षेत्र में लगाया जाने वाला घोष हर-हर महादेव भी बंद किया जाए, क्योंकि उनके तर्क के आधार पर तो इससे भी महादेव का अपमान होता है। देश में भीड़ द्वारा किसी को मारने की घटनाएं बढ़ी हैं, ऐसा इन पत्र लेखकों का कहना है। भीड़ से इतर अपराधियों द्वारा हत्या करने की घटनाएं भी शायद बढ़ी हों, इसके आंकड़े भी जांचे जाने चाहिए। वहां भी अनेक हत्यारे कोर्ट कचहरी से छूट ही जाते होंगे। ताजा किस्सा तो एक विधायक कृष्णानंद राय का है, जिसकी हत्या कर दी गई थी। कुछ दिन पहले मुख्तार अंसारी समेत सभी आरोपी कचहरी ने छोड़ दिए।

मुख्तार अंसारी ने तो कृष्णानंद को हत्या से पहले जय श्री राम कहने के लिए बाध्य नहीं किया होगा। यदि कहा जाता, तो राय तो दस बार जय श्री राम कह देता। दुर्भाग्य से ये फिल्म बनाने वाले मरने वाले की भी और मारने वालों की भी जाति गिनते हैं तथा उसके अनुसार चिट्ठी का मजमून तैयार करते हैं। यह लाशों पर व्यवसाय करने की राजनीति है। जब तक फिल्मों में थी, तब तक तो ठीक था। अब सिनेमावाले सचमुच की राजनीति में लाश का मजहब तलाश रहे हैं। भीड़ के हाथों मारे जाने की घटनाओं की निंदा करते और प्रधानमंत्री को लिखते, तब इनकी चिंता की विश्वसनीयता पर कोई शक न करता, लेकिन ये तो लाशों को चुन-चुन कर अलग कर रहे हैं और खतना हुई लाशों को अलग कर रुदाली रुदन कर रहे हैं। इन्हीं के एक साथी अमर्त्य सेन ने भी इन से 49 के टोले से पहले प्रधानमंत्री को लिखा था।

उनका कहना था कि उन्होंने तो आज तक बंगाल में राम का नाम नहीं सुना। इसमें सेन का दोष नहीं है, कृतिवास का दोष है कि उन्होंने रामायण अंग्रेजी में न लिखकर बंगला में लिख दी। जब कोई बंगाली बंगला को छोड़ कर केवल अंग्रेजी पढ़ना शुरू कर देता है, तो उसको बंगाल में राम दिखाई देना बंद हो जाते हैं। भारत के इतिहास में भीड़तंत्र द्वारा सबसे बड़ा संहार दिल्ली में हुआ था, जब किसी की भीड़ ने खालसा पंथ में विश्वास करने वाले हजारों लोगों को मार दिया था, लेकिन तब शायद पत्र लेखन प्रतियोगिता का यह गैंग कहीं चर्चा कर रहा होगा।    

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