हरियाणा से कश्मीर तक चर्चा

डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री

वरिष्ठ स्तंभकार

हरियाणा में यदि भाजपा के चार-पांच मंत्री जीत जाते तो शायद चैनलों पर बहस करने वालों को घंटों निरर्थक मीमांसाएं करने का अवसर न मिलता, लेकिन महाराष्ट्र और हरियाणा के इन चुनावों की गहमा-गहमी में मीडिया ने चौबीस अक्तूबर को ही जम्मू- कश्मीर में हुए बीडीसी ‘ब्लाक डिवेलपमेंट कौंसिल’ के अध्यक्षों के चुनाव परिणामों की ओर ध्यान नहीं दिया। राज्य के इतिहास में स्थानीय निकायों के द्वितीय चरण के ये चुनाव पहली बार हुए थे। अब तक की सरकारें ये चुनाव होने नहीं दे रही थीं।  इन चुनावों से स्थानीय जमीनी नेतृत्व उभरता है और राजनीतिक दलों का स्थापित नेतृत्व इसी के उभरने से डरता है…

हरियाणा और महाराष्ट्र में विधान सभा चुनावों के परिणाम निकल आए हैं। महाराष्ट्र में पहले भी भाजपा-शिव सेना की सरकार थी और इस बार भी वही सरकार बरकरार रहेगी। हरियाणा में भाजपा अपने बागियों के साथ मिलकर सरकार बना लेगी, ऐसा निश्चित लगता है। भारतीय राजनीति में शायद यह पहली बार हुआ है कि जीतने वाली पार्टी भी खुश है और हारने वाली पार्टी भी खुश है। इसका विशेष कारण है। विपक्ष को डर था कि इस बार उसकी अंत्येष्टि हो जाएगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ और उसमें प्राण बचे हुए हैं, लेकिन यह ध्यान रखना चाहिए यह प्राण संचार में सोनिया गांधी परिवार के इतालवी टोटके काम नहीं आए बल्कि इसमें दुष्यंत चौटाला, भूपिंदर सिंह हुड्डा और शरद पवार के देशी टोटकों ने चमत्कार किया। अब देखना यह है कि सोनिया गांधी और उसका बेटा-बेटी दामाद इसको समझ पाते हैं या नहीं। हरियाणा में यदि भाजपा के चार पांच मंत्री जीत जाते तो शायद चैनलों पर बहस करने वालों को घंटों निरर्थक मीमांसाएं करने का अवसर न मिलता, लेकिन महाराष्ट्र और हरियाणा के इन चुनावों की गहमा-गहमी में मीडिया ने चौबीस अक्तूबर को ही जम्मू- कश्मीर में हुए बीडीसी ‘ब्लाक डिवलपमेंट कौंसिल’ के अध्यक्षों के लिए हुए चुनाव परिणामों की ओर ध्यान नहीं दिया। राज्य के इतिहास में स्थानीय निकायों के द्वितीय चरण के ये चुनाव पहली बार हुए थे। अब तक की सरकारें ये चुनाव होने नहीं दे रही थीं। इन चुनावों से स्थानीय जमीनी नेतृत्व उभरता है और राजनीतिक दलों का स्थापित नेतृत्व इसी के उभरने से डरता है।

यही कारण था कि राज्य के तीन प्रमुख दलों मसलन सोनिया कांफेंस, नेशनल कांग्रेस और पीडीपी ने इन चुनावों का बहिष्कार कर रखा था। कारण यही बताया कि अनुच्छेद 370 को हटा दिया गया है। इन चुनावों में मतदाता पंचायतों के चुने हुए पंच-सरपंच ही होते हैं। गुलाम नबी आजाद, फारूक अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती को लगता था कि हमने चुनाव का बहिष्कार करने के लिए कह दिया है, अब न तो चुनाव के कोई कागज दाखिल कराएगा और न ही मतदान केंद्रों पर कोई पंच-सरपंच मतदान करने आएगा। पूरे राज्य में 318 ब्लाक डिवलपमेंट कौंसिल हैं। इनमें से 283 में चुनाव हो रहा था। 283 पदों पर कब्जे के लिए 1092 प्रत्याशी चुनाव मैदान में थे। मतदान में भाग लेने वाले 23,629 पंच और 3,652 सरपंच हैं। परसों हुए चुनावों में 98 प्रतिशत पंच-सरपंचों ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया। श्रीनगर जिला में तो शत- प्रतिशत मतदान हुआ। जम्मू में मतदान प्रतिशत 99.5 था। यह तब हुआ जब आतंकवादियों की धमकियां अपनी जगह मौजूद थीं। आंकड़ों के अनुसार सबसे कम मतदान कश्मीर घाटी के शोपियां जिला में 85.3 प्रतिशत हुआ। यदि यह मतदान सबसे कम है तो इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि चुनावों के लिए घाटी में उत्साह कितना ज्यादा रहा होगा। चुनाव परिणामों के अनुसार 217 ब्लाकों में निर्दलीय प्रत्याशियों की जीत हुई और भाजपा ने 81 ब्लाकों में विजय प्राप्त की।

भीम सिंह की पांथेर पार्टी ने भी ऊधमपुर जिला में आठ ब्लाकों में विजय प्राप्त की। इन चुनावों का संबंध मुख्य रूप से राज्य के ग्रामीण क्षेत्रों से है। इससे सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि राज्य के खासकर कश्मीर घाटी के ग्रामीण क्षेत्रों में  राज्य की तथाकथित मुख्य राजनीतिक पार्टियों का कितना प्रभाव है। कश्मीर घाटी में तो वैसे भी शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों का राजनीतिक व्यवहार अलग-अलग है। इन चुनावों ने यह भी सिद्ध कर दिया है कि राज्य में लोग सामान्य जीवन के लिए कितना लालायित हैं, लेकिन मूल प्रश्न यह है कि दिल्ली में चैनलों के स्टूडियो में बैठ कर कश्मीर की स्थिति पर चर्चा करने वाले कौन हैं? ये लोग किस कश्मीर का प्रतिनिधित्व करते हैं? जो कश्मीरी अपना सेब मंडियों में पहुंचाना चाहते हैं उनको मारने वाले कौन हैं। जो ट्रक ड्राइवर कश्मीर का सेब मंडियों में लेकर जा रहा है, उसको कौन मार रहा है? यही वही लोग हैं जो चाहते हैं कि राज्य में चुनाव न हों। यही चुनाव के बहिष्कार का नारा देते हैं और यही कश्मीर में सेब उगाने वाले कश्मीरी को मार रहा है और वही दिल्ली में किसी चैनल के स्टूडियो में बैठ कर कश्मीर में खून-खराबे के चित्र खींच रहा है। इनके आपसी संबंधों की शृंखला टूट जाए तो मतदान केंद्र तक जाने वाले कश्मीरी को डर नहीं लगेगा। यदि आतंक के बावजूद कश्मीरी पंच-सरपंच इतनी बड़ी संख्या में मतदान केंद्र तक आ सकते हैं तो सामान्य हालात में कितना उत्साह होगा, इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है। इससे अपने आप को कश्मीर को आबाद बताने वाले सभी नेताओं को निश्चय ही इतने भारी मतदान से गहरी निराशा हुई होगी।

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