अटल भूजल योजना से आगे

भरत झुनझुनवाला

आर्थिक विश्लेषक

वर्तमान में किसानों द्वारा जल की अधिक खपत करने वाली फसलें भारी मात्रा में उपजाई जा रही हैं। कर्नाटक में अंगूर, महाराष्ट्र में केला, राजस्थान में लाल मिर्च, उत्तर प्रदेश में मेंथा और गन्ना इत्यादि फसलों को उगाया जा रहा है। इन फसलों को उपजा कर भूमिगत जल का अति दोहन किया जा रहा है। सरकार को साधुवाद है कि योजना बनाई है कि किसानों को समझाया जाए कि वे इस प्रकार की फसलों का उत्पादन न करें और भूमिगत जल को संरक्षित करें…

सरकार ने योजना बनाई है कि किसानों द्वारा जल के उपयोग में सुधार करने के लिए उन्हें संगठित किया जाएगा। जिन पंचायतों द्वारा पानी का सदुपयोग किया जाएगा उन्हें विशेष प्रोत्साहन दिया जाएगा। उन्हें अधिक रकम आबंटित की जाएगी। वर्तमान में किसानों द्वारा जल की अधिक खपत करने वाली फसलें भारी मात्रा में उपजाई जा रही हैं। कर्नाटक में अंगूर, महाराष्ट्र में केला, राजस्थान में लाल मिर्च, उत्तर प्रदेश में मेंथा और गन्ना इत्यादि फसलों को उगाया जा रहा है। इन फसलों को उपजा कर भूमिगत जल का अति दोहन किया जा रहा है। सरकार को साधुवाद है कि योजना बनाई है कि किसानों को समझाया जाए कि वे इस प्रकार की फसलों का उत्पादन न करें और भूमिगत जल को संरक्षित करें जिससे कि दीर्घकाल तक देश की खेती और उनकी स्वयं की आर्थिकी सुरक्षित रहे। यह सोच सही दिशा में है परंतु मेरा मानना है कि केवल चर्चा से यह काम हासिल होना कठिन है। किसान को तय करना होता है कि वह आज मिर्च की खेती करके 10 हजार का लाभ कमाएगा अथवा बाजरा की खेती करके 2000 का। ऐसे में उससे कहना कि मिर्च उगाने से भूमिगत जल का उपयोग अधिक होगा इसलिए वह मिर्च न उगाए सही होते हुए भी इस बात का अनुपालन कठिन होगा। किसान जल खपत करने वाली फसलें उगाते ही रहेंगे। इस समस्या का सही उपाय है कि किसानों से पानी का मूल्य वसूल किया जाए। पानी चाहे नहर के माध्यम से उपलब्ध हो रहा हो अथवा ट्यूबवेल के माध्यम से। ऐसा करने से मिर्च जैसी फसलों को उपजाने की लागत बढ़ जाएगी और राजस्थान के किसान के लिए बाजरे की खेती करना लाभप्रद हो जाएगा। जैसे यदि किसान को मिर्च की खेती के लिए 8000 रुपए पानी एवं बिजली के मूल्य के लिए अदा करना हो तो किसान की लाल मिर्च की खेती करने के प्रति रुचि नहीं रह जाएगी।

पानी के इस मूल्य को वसूलने से किसान की लागत बढ़ेगी और तदानुसार सरकार को प्रमुख फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्यों में वृद्धि करनी होगी। तभी किसान की जीविका बचेगी अन्यथा पानी का मूल्य किसान पर एक अतिरिक्त बोझ हो जाएगा जिससे देश के किसान प्रभावित होंगे। दूसरा विषय जल की उपलब्धता का है। अटल भूजल योजना के अंतर्गत मुख्यतः पानी के सदुपयोग को बढ़ावा दिया जाएगा। हमको साथ-साथ जल की उपलब्धता भी बढ़ानी होगी। इस मुद्दे पर वर्तमान में सरकार का ध्यान बड़ी झीलें बनाने का है जैसे आंध्र प्रदेश में पोलावरम, उत्तराखंड में पंचेश्वर तथा लखवार व्यासी एवं हिमाचल प्रदेश में रेणुका इत्यादि। इन परियोजनाओं के तहत नदियों के पानी को बांध कर विशाल तालाब बनाया जाता है जैसा कि भाखड़ा, तुंगभद्रा एवं टिहरी बांधों में किया गया है। इन झीलों में एकत्रित जल को जाड़े और गर्मी के दिनों में छोड़ा जाता है जिससे सिंचाई होती है, लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में पानी की विशाल बर्बादी होती है। यह पानी महीनों तक तालाबों में खुला पड़ा रहता है और वाष्पीकरण से इसकी मात्रा कम हो जाती है। 15 प्रतिशत पानी का तालाबों में वाष्पीकरण हो जाता है। दूसरे, इस पानी को नहर के माध्यम से खेत तक पहुंचाया जाता है।

इस प्रक्रिया में नदी पर बराज बनाकर पानी को नहर में डालना और नहर से खेत तक ले जाने में लगभग 15 प्रतिशत पानी का रिसाव हो जाता है। तीसरा नुकसान यह होता है कि बरसात में पानी को इन झीलों में रोक लेने से नीचे बाढ़ कम हो जाती है। जैसे टिहरी में भागीरथी के पानी को रोक लेने से उत्तर प्रदेश और बिहार में बाढ़ कम होती है। बाढ़ कम होने से पानी का फैलाव कम होता है। पानी का फैलाव कम होने से भूमिगत जल का पुनर्भरण कम होता है। पानी भूमि में कम रिसता है। इसी रिसे हुए पानी को जाड़े और गर्मी के मौसम में ट्यूबवेल से निकाल कर खेती के लिए उपयोग किया जाता है। इस प्रकार इन झीलों को बनाने से पानी का पुनर्भरण कम होता है जिसके कारण सिंचाई कम होती है। अतएव इन झीलों का सिंचाई पर दोतरफा प्रभाव पड़ता है। एक तरफ जाड़े और गर्मी में पानी छोड़ने से सिंचाई बढ़ती है तो दूसरी तरफ  बरसात के समय पुनर्भरण कम होने से सिंचाई घटती है। इन दोनों प्रभावों का सम्मिलित वैज्ञानिक आकलन मैंने नहीं देखा है, फिर भी मेरा अपना आकलन है कि दोनों का कुल प्रभाव बराबर पड़ता होगा।

यही कारण है कि देश में इन झीलों को बनाने से सिंचाई के क्षेत्रफल में विशेष वृद्धि नहीं हुई है। यहां यह कहना जरूरी है कि भूमिगत पानी को निकालने में बिजली की खपत होती है जो कि देश और किसान दोनों पर अतिरिक्त बोझ पड़ता है, लेकिन बिजली के उत्पादन के तमाम स्त्रोत हैं जैसे सौर ऊर्जा अथवा परमाणु उर्जा जबकि पानी के हमारे पास सीमित स्त्रोत हैं। अतः पानी का संरक्षण जरूरी है। बिजली के दूसरे स्त्रोतों का विकास करके हम भूमिगत जल को निकालने का उपाय कर सकते हैं। अतः सरकार की अटल भूजल योजना सही दिशा में है, लेकिन साथ-साथ सरकार को बड़ी झीलों में पानी के संग्रहण करने की नीति को त्याग कर बाढ़ की उपयोगिता को स्वीकार करना चाहिए और इन बड़ी झीलों को हटा कर मैदानी इलाकों में भूमिगत तालाबों में पानी के पुनर्भरण की ओर ध्यान देना चाहिए। सेेंट्रल ग्राउंड वाटर बोर्ड ने बताया है कि बरसात के पानी को भूमिगत तालाबों में डालने के लिए विशेष प्रकार के रिचार्ज कुएं बनाए जा सकते हैं। इन कुओं को बनाने के लिए बोर्ड ने 70 हजार करोड़ की एक महत्त्वाकांक्षी योजना बनाई है, लेकिन सरकार ने इस रकम को उपलब्ध नहीं कराया है। इसके विपरीत पोलावरम, पंचेश्वर, रेणुका और लखवार जैसी विशाल झीलों को बनाने के लिए सरकार उतनी ही रकम उपलब्ध कराने को तैयार है। अतः सरकार को चाहिए कि इन परियोजनाओं पर इस विशाल रकम को व्यय करने के स्थान पर इस विशाल रकम को भूमिगत जल के पुनर्भरण के लिए रिचार्ज कुएं बनाने पर व्यय करे जिससे कि बरसात का पानी भूमिगत तालाबों में रखा जाए। बताते चलें कि भूमिगत तालाबों में पानी रखने से उसका वाष्पीकरण नहीं होता है और उसे खेत तक ले जाने में नहर से रिसाव भी नहीं होता है। अतः भूमिगत तालाबों में पानी का संरक्षण करना ज्यादा उपयुक्त है। अटल भूजल योजना को लागू करने के साथ-साथ सरकार को पानी के मूल्य वसूलने और भूमिगत तालाबों में पानी का संग्रह करने के उपाय करने चाहिए।

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