दिल्ली में दंगा-फसाद

डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री

वरिष्ठ स्तंभकार

सरकार की अपनी समस्या होती है। शांति से बैठे लोगों को कुछ कहो तो पूरी ब्रिगेड खड़ी हो जाती है।  प्रश्न पूछती है कि क्या अब इस लोकतांत्रिक देश में सरकार के खिलाफ शांतिपूर्वक प्रदर्शन का अधिकार भी समाप्त हो गया है? फिर प्रदर्शन कर रही औरतें हो तो मामला महिला सशक्तिकरण तक जा पहुंचता है। वैसे लोकतंत्र के बेहतर क्रियान्वयन के उदाहरण के लिए यह ब्रिगेड चीन, सऊदी अरब और पाकिस्तान का ही नाम लेती है। शाहीन बाग की शांति के बाद के तूफान ने सभी को चौंका दिया…

दिल्ली में अमरीका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप आने के साथ ही उत्तर पूर्वी दिल्ली में दंगा फसाद शुरू हो गया था। नागरिकता संशोधन विधेयक को निरस्त किए जाने की मांग को लेकर प्रदर्शन कर रहे संगठन अचानक उग्र हो गए थे। उनको शायद लगता होगा कि उग्र होने पर सरकार झुकती है या फिर डोनाल्ड ट्रंप ही उनके पक्ष में कुछ बोल देंगे, लेकिन जब ऐसा नहीं हुआ तो उन्होंने दूसरों के घर-मकान जलाने और सरकारी संपत्ति फूंकने का रास्ता चुना। करोड़ों की संपत्ति तो जलाई गई, साथ ही तीस से ज्यादा लोग मौत के घाट भी उतार दिए गए। वैसे इसके संकेत दो-तीन महीने पहले से ही मिलने शुरू हो गए थे। ट्रंप का दौरा तय होने के साथ ही शाहीन बाग भी तय हो गया होगा। योजना का पहला हिस्सा शांति पूर्वक ही होता है। उसके कोहरे के पीछे देखना मुश्किल होता है, लेकिन बीच-बीच में उस्ताद लोग सूचना भी दे ही रहे थे कि अभी तो हमारी शेरनियां मैदान में निकली हैं, जब शेर निकलेंगे तो पता चलेगा। सरकार की अपनी समस्या होती है। शांति से बैठे लोगों को कुछ कहो तो पूरी ब्रिगेड खड़ी हो जाती है।  प्रश्न पूछती है कि क्या अब इस लोकतांत्रिक देश में सरकार के खिलाफ शांतिपूर्वक प्रदर्शन का अधिकार भी समाप्त हो गया है? फिर प्रदर्शन कर रही औरतें हो तो मामला महिला सशक्तिकरण तक जा पहुंचता है। वैसे लोकतंत्र के बेहतर क्रियान्वयन के उदाहरण के लिए यह ब्रिगेड चीन, सऊदी अरब और पाकिस्तान का ही नाम लेती है। शाहीन बाग की शांति के बाद के तूफान ने सभी को चौंका दिया। यहां तक कि न्यायालय के न्यायाधीश भी हैरान हो गए। उन्होंने कहा भी कि हम दिल्ली में अब की बार 1984 को दोहराने नहीं देंगे। उनका कहना बिलकुल ठीक है, लेकिन प्रश्न उठता है कि 1984 के लगभग पच्चीस साल बाद दिल्ली फिर वहीं कैसे पहुंच गई? 2020 में 1984 कैसे जिंदा हो गया? यदि 1984 के दंगा करवाने के षड्यंत्रकारियों को उसी समय पकड़ लिया गया होता और जिन्होंने दिल्ली को उस समय आग लगाई थी, उनको दंडित कर दिया गया होता तो दोबारा उनकी हिम्मत ही न होती, लेकिन उनमें से केवल एक सज्जन कुमार को जेल पहुंचाने में पच्चीस साल लगे।

यह भी तब जब सारा पीडि़त समाज एकजुट होकर दोषियों को सजा दिलवाने के लिए प्रयासरत था। जाहिर है इससे दंगा करवाने वालों का हौसला बढ़ता। सोनिया गांधी से अच्छा इसे कौन जान सकता है? 1984 में दंगे सिखों को सबक सिखाने के लिए करवाए गए थे और जाहिर है 2020 के दंगे मोदी को सबक सिखाने के लिए करवाए गए हैं। 1984 में तो कांग्रेस ने इस बात को छिपाया भी नहीं था। राजीव गांधी ने स्पष्ट कह ही दिया था कि जब कोई बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती तो हिलती ही है। यदि उस वक्त न्यायपालिका भी दोषियों को सजा देने में कोताही न करती तो शायद अब उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को यह कहना ही न पड़ता कि दिल्ली में 1984 नहीं होने देंगे क्योंकि तब 1984 करने और करवाने वाले अब जेल में होते। एक बात और ध्यान में रखनी चाहिए । जहां भी दंगे होते हैं वहां आम सुनने में आता है कि दंगाई मोहल्ले के नहीं थे बल्कि बाहर से आए हुए थे। 1984 में भी यही कहा जाता था और अब भी यही कहा जा रहा है। उदाहरण भी दिए जा रहे हैं कि मंदिर को मुसलमानों ने बचाया और मस्जिद की रक्षा स्थानीय हिंदुओं ने की। बाहर से दंगाई लाने के लिए पूरी योजना और षड्यंत्र बनाना पड़ता है। 1984 में भी यह बनाया ही गया होगा और शाहीन बाग के दूसरे चरण वालों ने भी यह सब कुछ किया ही होगा। उच्चतम न्यायालय को बधाई देनी होगी कि उसने शाहीन बाग वालों से बात करने के लिए अपने दूत भी भेजे, लेकिन बाग वालों ने या तो उनकी बात नहीं मानी या फिर दूतों ने विवशता जाहिर कर दी होगी। अलबत्ता एक दूत ने तो यह भी कहा कि शाहीन बाग वाले तो शालीन ही हैं, सारी रुकावटें तो पुलिस खड़ी कर रही है। वैसे यदि सुप्रीम कोर्ट उस वक्त कह देता कि रास्ता रोकना मौलिक अधिकारों में नहीं आता तो शायद मामला उसी वक्त सुलझ जाता। अब भी  न्यायपालिका में कहा जा रहा है कि पुलिस प्रोफेशनल तरीके से काम नहीं कर रही। हो सकता है यह बात भी ठीक हो। हर काम का एक प्रोफेशनल तरीका होता है। यह गैर- प्रोफेशनल तरीके से काम करने का नतीजा है कि पुलिस अधिकारी रत्न लाल शहीद हो गया। प्रोफेशनल होता तो पत्थर पड़ते देख भाग लिया होता। कुछ पुलिस अधिकारी अभी भी आईसीयू में पड़े हैं। इंटेलिजेंस ब्यूरो के अंकित शर्मा को जिस प्रकार घर से खींच कर मारा और चाकुओं से गोद-गोद कर उसके प्राण लिए, वह सचमुच मारने का प्रोफेशनल तरीका है। आम आदमी पार्टी के ताहिर के घर में यह सब कुछ हुआ, लेकिन हुआ प्रोफेशनल तरीके से। दंगों में आदमी हलाल करने का भी प्रोफेशनल तरीका है। अनाड़ी दंगाई तो छुरा घोंप कर भाग जाता है। यह प्रोफेशनल तरीका 1984 में भी अपनाया गया था और आज 2020 में। बाकी रही बात शाहीन बाग की, उस पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चलती रहेगी ।

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