हर बात में धर्म खोजना बंद करें

कुलभूषण उपमन्यु

अध्यक्ष, हिमालय नीति अभियान

कितनी चिंता की बात है कि सदियों की गुलामी से निकलने के बावजूद उसके दुष्परिणामों और कारणों को भूल कर वही गलतियां दोहराने में ही अपनी बहादुरी बखानने लगते हैं। कुछ जाति के आधार पर जहर फैलाने के काम में लगे हैं जबकि जरूरत तो जातिवाद के दुर्गुणों को मिलकर दूर करने के लिए संघर्ष करने की है, क्योंकि यह देश के गुलाम होने का एक बड़ा कारण था…

आज कल वोट बैंक की चिंता में घिरे राजनीतिक दल और उनके सहयोगी संगठन हर बात में धर्म को जोड़ने या खोजने का प्रयास करते जा रहे हैं। इसका परिणाम यह हुआ है कि बहुत सी सामाजिक रूप से अहितकारी जानकारियां लोगों तक पहुंचाने की होड़ मच गई है। चुनाव तो कभी कभी आते हैं किंतु हम लगातार चुनाव मानसिकता में ही बने रहने लग गए हैं। इसमें किसी एक दल को दोषी ठहराना भी आसान नहीं। सब बहती गंगा में हाथ धोने के लिए तैयार मिलते हैं।

स्थिति यह हो गई है कि हर राय को किसी न किसी खेमे के खांचे में डाल कर दूसरे पक्ष द्वारा समाज में निंदित ठहराने के प्रयास होने लगते हैं। और इन प्रयासों में सोशल मीडिया में तो भाषा की मर्यादा भी नष्ट हो गई है। घटिया गाली-गलौज वाली भाषा सभी प्रकार की विचार धाराओं के तथाकथित हमदर्द अपनाने लगे हैं। कुछ लोगों का पूर्ण कालिक व्यवसाय ही इस तरह की गतिविधियां बन गई है। राजनीतिक दलों के तो बाकायदा आईटी प्रकोष्ठ बन गए हैं जो फेक न्यूज प्रचार अभियान चलाए रखते हैं।

आम आदमी जो कम पढ़ा है या इस आईटी सोशल मीडिया क्रांति की अंदर की सच्चाई नहीं जनता है, वह इस फेक न्यूज के माया जाल में फंस कर झूठे समाचारों या जानकारियों को ही लिखित शब्द के प्रति श्रद्धा के चलते सच समझने लग जाता है। इस तरह की अधिकांश जानकारियां देश में शांति सद्भाव को पलीता लगाने वाली ही होती हैं। कुछ राजनीतिक दल मुद्दों के विश्लेण के लिए फूट डालो और राज करो के सिद्धांत पर ही चलने का ठेका ले कर चलने के सिवाय कुछ और सोच ही नहीं पाते।

कितनी चिंता की बात है कि सदियों की गुलामी से निकलने के बावजूद उसके दुष्परिणामों और कारणों को भूल कर वही गलतियां दोहराने में ही अपनी बहादुरी बखानने लगते हैं। कुछ जाति के आधार पर जहर फैलाने के काम में लगे हैं जबकि जरूरत तो जातिवाद के दुर्गुणों को मिलकर दूर करने के लिए संघर्ष करने की है। क्योंकि यह देश के गुलाम होने का एक बड़ा कारण था। इस बात को बार-बार याद करने की जरूरत है। हम नम्रता से इतिहास में की गई गलतियों को मान क्यों नहीं सकते, इससे ही आगे बढ़ने का रास्ता निकलेगा।

सब सुनहरे भविष्य का सपना दिखाने की कोशिश करते हैं। किंतु यह सब सपने इसलिए झूठे साबित होंगे क्योंकि फूट के आधार पर कोई भी सुनहरा भविष्य सुरक्षित नहीं रह सकता। संप्रदाय के आधार पर जहर फैलाने के लिए भी कई शक्तियां सक्रिय हैं। उनके लिए भय दोहन एक बड़ा हथियार है। हिंदुओं को मुसलमानों से डराना, मुसलमानों को हिंदुओं से डराना व डरा कर अपने-अपने वर्ग को अपना वोट बैंक बना लेना या अपनी अपनी धार्मिक दुकानों को मजबूत करने के लिए इस्तेमाल करने योग्य सामग्री बना डालना। हां, ऐसी सामग्री जो अपने स्वतंत्र दिमाग से न सोचती हो।

हम सब स्वतंत्रता देने, उसकी रक्षा करने की दुहाइयां देते थकते नहीं हैं किंतु कभी ऐसी शिक्षा देना नहीं चाहते जिसमें ऐसी बुद्धि का विकास हो जो स्वतंत्र रूप से सोचने, विश्लेण करके निष्कर्ष निकालने के लिए सक्षम हो और विभिन्न वैचारिक धाराओं से पुष्ट हो। हमें तो अपनी पसंद की विचारधारा फैला कर कैडर बनाने की चिंता है। हम संतुलित बुद्धि से परिचालित जिम्मेदार नागरिक बनाने के बजाय कैडर बनाने में लगे हैं। कैडर तो हमेशा एक पक्ष का ही वकील होता है। उसकी बुद्धि इस तरह अनुबंधित गुलाम जैसा व्यवहार करती है कि जो मेरी सोच और पक्ष की सोच है वही अंतिम सत्य है।

जब सभी पक्ष इस तरह की सोच रखने लगेंगे तो टकराव होना निश्चित ही है। ऐसी स्थिति में निष्पक्ष न्यायपूर्ण सोच की कल्पना भी नहीं की जा सकती। जब एक ऐसी सोच को प्रोत्साहित करता है तो दूसरा इसी बहाने या भय की मनोवैज्ञानिक ग्रन्थि के सक्रिय होने से इसी रस्ते पर चल पड़ता है। इस दुश्चक्र से बचने और प्रजातंत्र के सुंदर न्यायपूर्ण रूप के विकास के लिए विनोबा भावे जी ने कल्पना की थी कि देश में एक ऐसी निष्पक्ष जमात बनी रहे जो किसी भी दल, धार्मिक या अन्य किसी भी विभाजन कारी पक्ष से जुड़ी न हो। और अपनी नैतिक और गहन बौद्धिक समझ से देश को विकट परिस्थितियों के समय मार्ग दर्शन दे सके।

इस समूह को उन्होंने आचार्यकुल का नाम दिया था। जिसमें संख्याबल का कोई स्थान नहीं था बल्कि थोड़े से नैतिक लोगों के नैतिक बल पर जोर दिया गया था। उनका मानना था कि प्रजातंत्र की या धार्मिक सामाजिक संगठनों की शक्ति का अधिष्ठान नैतिक बल है। उनके मार्गदर्शन में नागरिक समाज का बौद्धिक और नैतिक विकास हो, संस्कार बनें। नागरिक की भूमिका किसी दल या विचारधारा का कैडर बन कर वकालत करना नहीं बल्कि निष्पक्ष जज की होनी चाहिए जो समय आने पर अपना न्याय पूर्ण फैसला बिना किसी भय या लालच के दे सके।

चाहे अवसर चुनाव का हो या किसी सामाजिक संकट की घड़ी हो। किंतु हम तो सच झूठ का ऐसा मिश्रण बना कर हर संकट की घड़ी में अपने पक्ष पोषण में मस्त रहते हैं चाहे उसमें देश डूब जाए। यहां तक कि हम कोरोना जैसे संकट को भी फूट डालने के एक अच्छे अवसर के रूप में प्रयोग करने से नहीं चूकते, न ही हमें इसमें कुछ शर्म महसूस होती है। क्योंकि हमारी बुद्धि अनुबंधित हो गई है, कंडिशन हो गई है।

हम अपने पक्ष के अलावा कुछ देख ही नहीं सकते, भले ही वह कितना भी तार्किक हो। इसी का परिणाम होता है कि हम प्रशासन या डाक्टर की सलाह से ऊपर बीमारी में भी मौलवी की बात को रखते हैं। और वही मौलवी बीमारी में इलाज के लिए डाक्टर के पास क्यों जाता है यह पूछना भी उससे भूल जाते हैं या ऐसे सवाल तक हमारे अनुबंधित  दिमाग में आ नहीं पाते।