पुरस्कार पर बधाई का औचित्य : डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री

डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री

वरिष्ठ स्तंभकार

मामला साफ था कि बच्चे की जान आतंकियों ने अपनी जान बचाने के चक्कर में ली थी। सेना के जवान उसको छुड़वाने की कोशिश करते रहे थे। इस फोटो का कैप्शन यह हो सकता था कि आतंकियों ने अपनी जान बचाने के चक्कर में बच्चे की जान ली। यह सत्य के ज्यादा नजदीक था। लेकिन यहां तो जिंदा बच्चे की चिंता आतंकियों को नहीं थी और उस बेचारे की लाश की मर्यादा की चिंता इन फोटोग्राफरों को नहीं थी। आतंकी इस्लाम की रक्षा कर रहे थे और फोटोग्राफर इस अमानवीय कृत्य की गुणवत्ता बढ़ा रहे थे। आश्चर्यजनक यह है कि राहुल गांधी ने इस पुरस्कार के मिलने पर बधाई दी है…

अमरीका की एक संस्था ने भारत के तीन पत्रकारों को इस बार पुलित्जर पुरस्कार से सम्मानित किया है। यह संयोग ही कहा जाएगा कि ये तीनों केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर के ही हैं। इनमें से दो यासीन डार और मुखतार खान कश्मीर घाटी के रहने वाले हैं और तीसरे चन्नी आनंद जम्मू के हैं। ये दोनों अमरीका की एक न्यूज एजेंसी एसोसिएट प्रेस से जुड़े हुए हैं। इनकी काबिलीयत फोटो पत्रकारिता में है, इसलिए कहा गया है कि इनको इनाम भी इनके खींचे गए चित्रों की गुणवत्ता के लिए दिया गया है। गुणवत्ता शब्द बहुत व्यापक है। यह देखने वाले की नजर पर निर्भर करता है। केवल नजर पर ही नहीं, बल्कि व्यापक रणनीति पर भी। मामला क्योंकि अमरीका से शुरू हुआ है, इसलिए नजर और नीयत का उदाहरण भी वहीं से लेना ठीक रहेगा। अमरीका महाद्वीप में आज से लगभग बीस हजार साल पहले अलास्का से होते हुए एशिया के लोग पहुंचे थे। वे वहां अलग-अलग हिस्सों में रहने लगे। उन्हें इंडियन कहा जाता है। वे सीधे-सादे और प्रकृति के सान्निध्य में रहने वाले लोग थे। उनके आने के हजारों साल बाद 1492 में यूरोप के लोग वहां पहुंचने शुरू हुए। इटली का कोलम्बस सबसे पहले पहुंचा। इंडियन ने आतिथ्य-सत्कार किया। उनकी दृष्टि में चरित्र की यही गुणवत्ता थी, लेकिन यूरोप की दृष्टि में यह गुणवत्ता नहीं, बल्कि दासत्व का प्रतीक था। इसलिए उन्होंने उन्हें दास बनाया। आज उनकी दशा दयनीय है। अमरीका के लोग कोलम्बस आगमन के दिन को राष्ट्रीय दिवस के तौर पर मनाते हैं और इंडियन उसे काला दिन के तौर पर मनाते हैं। यूरोपियन के लिए कोलम्बस नायक है क्योंकि उन्होंने अमरीका में अपने उपनिवेश स्थापित करने हैं और इंडियन के लिए कोलम्बस खलनायक है क्योंकि वह उन्हें दास बनाता है। इसी प्रकार आज इक्कीसवीं शताब्दी में भी अमरीका में कुछ सरकारी और गैर सरकारी समूह हैं, जो भारत में निरंतर रुचि लेते रहते हैं। उनमें बहुत से ऐसे हैं जिनको पंगु भारत पसंद है। ऐसा भारत जो अमरीका व यूरोपीय समुदायों के आगे तन कर या कम से कम बराबरी के स्तर पर बात न कर सके। लुंजपुंज भारत। अपने सांस्कृतिक परिवेश को हेय मानकर पश्चिमी संस्कृति और मान्यताओं का अंधानुकरण करता हुआ भारत।

भारत को कमजोर करने के लिए जरूरी है कि देश के भीतर अलगाववादी व अराजकतावादी आंदोलन चलते रहने चाहिएं। जम्मू-कश्मीर का मामला इस प्रकार के समूहों के लिए अंधों के हाथ में बटेर है। माउंटबेटन दंपति के प्रभाव में आकर पंडित जवाहर लाल नेहरू ने इस घरेलू मामले को अंतरराष्ट्रीय पेंट कर दिया था। उसी का लाभ अब विदेशों में ये भारत विरोधी समूह उठा रहे हैं। इस पृष्ठभूमि के बाद कश्मीर घाटी के दो पत्रकारों यासीन और खान को दिए गए पुलित्जर पुरस्कार की नीयत और नजर को समझा जा सकता है। जम्मू-कश्मीर पिछले कई दशकों से पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित आतंकवादी गतिविधियों का शिकार है। पाकिस्तान देशी-विदेशी आतंकियों को इस्लाम की रक्षा के नाम पर प्रशिक्षित करता है और फिर उन्हें कश्मीर में भेज देता है। उसे इस काम में महारत हासिल है क्योंकि वह पहले भी अमरीका की योजना के तहत अफगानिस्तान में इस्लाम की रक्षा करने के लिए आतंकवादियों को पैसा लेकर प्रशिक्षित करता रहा है। ये आतंकवादी कश्मीर घाटी में आम कश्मीरी आवाम को एक प्रकार से बंधक बना लेते हैं, बंदूक के बल पर उनके घरों में घुस जाते हैं, उनकी लड़कियों के साथ बलात्कार करते हैं और यदि वे इसका विरोध करते हैं तो उन्हें जान से मारने की धमकी देते हैं। इतना ही नहीं, आतंकवादियों से लड़ रहे सशस्त्र बलों पर पैसे देकर पत्थरबाजी करवाई जाती है और फिर डरा-धमका कर लोगों को मारे गए आतंकियों के जनाजे में लाया जाता है। 2019 में ऐसी ही एक घटना में आतंकवादी किसी कश्मीरी के घर में घुस गए और वहां ग्यारह साल के बच्चे को बंधक बना लिया। बार-बार कहने पर भी आतंकियों ने बच्चे को नहीं छोड़ा और उसे ढाल की तरह इस्तेमाल करते रहे। सशस्त्र बलों के आपरेशन में आतंकवादी तो मारे गए, लेकिन अपने साथ उन्होंने बच्चे को भी बलि चढ़ा दिया। स्वाभाविक ही बच्चे के शव पर परिवार वाले विलाप करते। एसोसिएट प्रेस के इन गुणवत्ता वाले फोटोग्राफरों ने फोटो खींच कर चला दी कि भारतीय सेना द्वारा ग्यारह साल के एक कश्मीरी बच्चे की हत्या पर विलाप करते रिश्तेदार। मामला साफ था कि बच्चे की जान आतंकियों ने अपनी जान बचाने के चक्कर में ली थी। सेना के जवान उसको छुड़वाने की कोशिश करते रहे थे। इस फोटो का कैप्शन यह हो सकता था कि आतंकियों ने अपनी जान बचाने के चक्कर में बच्चे की जान ली। यह सत्य के ज्यादा नजदीक था। लेकिन यहां तो जिंदा बच्चे की चिंता आतंकियों को नहीं थी और उस बेचारे की लाश की मर्यादा की चिंता इन फोटोग्राफरों को नहीं थी। आतंकी इस्लाम की रक्षा कर रहे थे और फोटोग्राफर इस अमानवीय कृत्य की गुणवत्ता बढ़ा रहे थे। लेकिन अमरीका में बैठे इस गुणवत्ता के निरीक्षक यह मान कर चल रहे थे कि आतंकियों और फोटोग्राफरों के इस संयुक्त कार्य से हिंदोस्तान कमजोर होता है। वे आतंकियों को हथियार तो नहीं दे सकते थे, लेकिन फोटोग्राफरों को पुलित्जर तो दे ही सकते थे। गोल सिक्के के आकार का वह  पुलित्जर पुरस्कार इन्हें बाकायदा दे दिया गया। लेकिन इस पूरी कड़ी में पुरस्कार देने वाले  पुलित्जरियों को एक और बड़ी भूमिका  निभानी थी। इसलिए उन्होंने पुरस्कार देते समय जो प्रशस्ति पत्र दिया, उसमें यह भी लिखा कि यह घटना भारत के नियंत्रण वाले कश्मीर की  है। यानी परोक्ष रूप में बता दिया कि हम जम्मू-कश्मीर को भारत का हिस्सा नहीं मानते, भारत ने तो उस पर अपना नियंत्रण बनाया हुआ है। उधर, एक बात किसी की समझ में नहीं आई। राहुल गांधी इन इनाम पाने वाले फोटोग्राफरों को किस खुशी में बधाई दे रहे थे क्योंकि इस इनाम के तो माथे पर ही लिखा हुआ था कि जम्मू-कश्मीर भारत का हिस्सा नहीं है। मेरे विचार में राहुल गांधी बधाई देने से पहले कम से कम यह तो दरयाफ्त कर लेते कि ये ‘पुतलियां’ किस की ट्यून पर नाच रही हैं।

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