सीमा पर विवाद, कुलदीप चंद अग्निहोत्री, वरिष्ठ स्तंभकार

डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री

वरिष्ठ स्तंभकार

तब नेहरू को लोकसभा का सामना करना मुश्किल हो गया था। कांग्रेस के भीतर भी बवाल मच गया था, लेकिन नेहरू किसी तरह महावीर त्यागी का सामना करते हुए भी बच निकले थे। परंतु इसे क्या कहा जाए कि यह गच्चा खा जाने के बाद भी नेहरू संभले नहीं, बल्कि हिंदी-चीनी भाई-भाई का नारा ज्यादा जोर से लगाने लगे थे। 1962 में चीन ने स्वयं ही भारत पर हमला कर इस नारे को बंद करवाया। इस हमले में चीन ने भारत की और भूमि पर कब्जा कर लिया और स्वयं ही सीजफायर कर दिया। चीन की इस हरकत से नेहरू का जो होना था वह हुआ, लेकिन चीन ने भी कुछ सबक सीख लिए। चीन को लगा कि हिमालय पर यदि भारत के साथ लड़ाई लंबी खिंचती है तो सीमा पर लड़ रही चीनी सेनाओं के लिए तिब्बत के रास्ते सप्लाई चेन बनाए रखना मुश्किल हो जाएगा…

भारत की उत्तरी सीमा पर एक बार फिर विवाद शुरू हो गया है। सप्त सिंधु क्षेत्र में लद्दाख से लेकर पूर्वोत्तर भारत में अरुणाचल प्रदेश तक भारत की सीमा तिब्बत से लगती है। जब तक तिब्बत स्वतंत्र देश था, तब तक इस सीमा पर कोई विवाद नहीं था। लेकिन 1959 में चीन ने तिब्बत पर कब्जा कर लिया और रातोंरात भारत-तिब्बत सीमा भारत-चीन सीमा में बदल गई। यदि उस समय भारत सरकार सक्रिय रहती तो शायद यह दुर्घटना न घटती। लेकिन उस समय नेहरू और उनके सबसे बड़े विश्वासी कृष्णामेनन चीन को प्रसन्न करने के लिए तिब्बत की बलि देने में सक्रिय थे। इसमें पुरोहित की भूमिका भारत के बीजिंग स्थित राजदूत पणिक्कर निभा रहे थे। शायद इन तीनों को लगता था कि तिब्बत की बलि से चीन प्रसन्न हो जाएगा। अलबत्ता गृहमंत्री सरदार पटेल ने जरूर 1949-1950 में ही नेहरू को एक पत्र लिखकर तिब्बत के प्रति चीन के इरादों से आगाह किया था और यह भी कहा था कि चीन केवल तिब्बत की बलि से प्रसन्न नहीं होगा। लेकिन नेहरू पटेल की सलाह को कितना महत्त्व देते थे, यह कहने की जरूरत नहीं है। चीन ने तो 1954 में ही नेहरू और कृष्णामेनन की सदाशयता का लाभ उठाते हुए लद्दाख में अक्साइचिन क्षेत्र पर कब्जा ही नहीं कर लिया, बल्कि उस क्षेत्र में से सिकियांग को तिब्बत से जोड़ने वाली सड़क भी बना ली थी। इस सड़क से चीन की सामरिक क्षमता बढ़ी। दुर्भाग्य से उस समय नेहरू सरकार ने अक्साइचिन को मुक्त करवाने की रणनीति बनाने की बजाय चीन के इस पूरे प्रकरण को भारतीयों से छिपाने में ज्यादा कौशल दिखाया। नेहरू के दुर्भाग्य से एक दिन चीन ने स्वयं ही सारा भांडाफोड़ कर दिया था।

तब नेहरू को लोकसभा का सामना करना मुश्किल हो गया था। कांग्रेस के भीतर भी बवाल मच गया था, लेकिन नेहरू किसी तरह महावीर त्यागी का सामना करते हुए भी बच निकले थे। परंतु इसे क्या कहा जाए कि यह गच्चा खा जाने के बाद भी नेहरू संभले नहीं, बल्कि हिंदी-चीनी भाई-भाई का नारा ज्यादा जोर से लगाने लगे थे। 1962 में चीन ने स्वयं ही भारत पर हमला कर इस नारे को बंद करवाया। इस हमले में चीन ने भारत की और भूमि पर कब्जा कर लिया और स्वयं ही सीजफायर कर दिया। चीन की इस हरकत से नेहरू का जो होना था वह हुआ, लेकिन चीन ने भी कुछ सबक सीख लिए। चीन को लगा कि हिमालय पर यदि भारत के साथ लड़ाई लंबी खिंचती है तो सीमा पर लड़ रही चीनी सेनाओं के लिए तिब्बत के रास्ते सप्लाई चेन बनाए रखना मुश्किल हो जाएगा। इसलिए उसने उसी दिन से भारत-तिब्बत सीमांत पर सैनिक लिहाज से सड़कों का जाल बिछाना शुरू कर दिया। इतना ही नहीं, उसने गोर्मो से लेकर ल्हासा तक रेलवे लाइन भी बिछा दी। भारत ने 1962 से क्या सीखा, इस पर बहस हो सकती है, लेकिन सीमांत को मजबूत करने में भारत की सक्रियता कम ही दिखाई दी। चीन ने इसको भलीभांति पहचान लिया था। अलबत्ता जहां तक भारतीय सेना का सवाल है, उसने 62 के कुछ साल बाद ही नाथुला में चीन की सेना को ठीक-ठाक जवाब दे दिया था। चीन सरकार इस सीमांत पर एक और प्रयोग भी करती रहती है। वह भारतीय सीमा का गाहे-बगाहे अतिक्रमण करती है। बातचीत के बाद पीछे भी चली जाती है। लेकिन इस प्रयोग से वह भारत सरकार की इच्छा शक्ति और भारतीय सेना का स्टेमिना परखती है। चीन का मानना था कि भारत सरकार का यह रवैया ढुलमुल ही रहता है। लेकिन पिछले कुछ साल से चीन के लिए इस प्रयोग से वे परिणाम नहीं आ रहे जो आज तक आते रहे हैं। डोकलाम तो इसका एक उदाहरण है। 70 दिन से भी ज्यादा आमने-सामने रहने के बावजूद भारतीय सेना अपने स्टैंड पर कायम रही। लेकिन चीन का संकट केवल डोकलाम नहीं है। उसकी चिंता का कारण दूसरा है। भारत ने भी चीन की तरह भारत-तिब्बत सीमा पर सैनिक जरूरत को ध्यान में रखते हुए सड़कें बनाने का काम तेज कर दिया है। लेह तक रेलवे लाइन बनाने का मामला भी फाइलों से बाहर आने लगा है। भारत-तिब्बत-नेपाल के जंक्शन के नाम से मशहूर लिपुलेख तक सड़क बन गई है। दूसरे स्थानों पर भी सड़क निर्माण का काम तेज हो गया है। चीन वही पुराना प्रयोग फिर कर रहा है। सीमा पर सैनिक जमावड़ा। फिर वार्ता के माध्यम से ‘फिलहाल’ सड़क निर्माण के कार्य को रोक दिया जाता है। लेकिन चीन के दुर्भाग्य से भारत सरकार ने स्पष्ट कर दिया है कि वार्ता तो चलती रहेगी, लेकिन सड़कें भी बनती रहेंगी। यह चीन को चीन की भाषा में जवाब है। चीन का एक संकट और भी है।

उसने चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे के नाम पर बहुत सा पैसा गिलगित और ग्वादर में झोंक रखा है। इस गलियारे की सड़क गिलगित में से होकर जाती है। गिलगित जम्मू-कश्मीर का हिस्सा है, जिस पर नेहरू की अदूरदृष्टि और माऊंटबेटन  दंपत्ति की कृपादृष्टि से पाकिस्तान ने कब्जा कर रखा है। जम्मू-कश्मीर भारत का उसी प्रकार हिस्सा है जिस प्रकार हरियाणा और बिहार, इसको लेकर भारतीयों को तो कोई शक नहीं। लेकिन नेहरू ने बहुत परिश्रम करके भारतीय संविधान में अनुच्छेद 370 डाल रखा था, जिसके कारण विदेशों में जम्मू-कश्मीर की सांविधानिक स्थिति के बारे में जरूर शक बना रहता था। नरेंद्र मोदी सरकार ने उस अनुच्छेद के सारे जहर को निकाल दिया है जिसके कारण दूसरे देशों का भी शक धीरे-धीरे दूर होने लगा है। यही कारण है अनुच्छेद 370 को हटाए जाने का सबसे ज्यादा कष्ट पाकिस्तान, चीन और कांग्रेस की इतालवी लॉबी को ही हुआ। अनुच्छेद 370 समाप्त ही नहीं हुआ, बल्कि जम्मू-कश्मीर को भाषा के आधार पर पुनर्गठित कर लद्दाख, गिलगित और बलतीस्तान को लद्दाख के नाम से अलग केंद्र शासित राज्य बना दिया गया है और जम्मू-कश्मीर, मुजफ्फराबाद, मीरपुर इत्यादि को जम्मू-कश्मीर के नाम से अलग केंद्र शासित राज्य बना दिया गया। भारत की राजनीति में गिलगित-बलतीस्तान एक बार फिर केंद्रबिंदु में आ गया है। चीन की चिंता का सबसे बड़ा कारण यही है। भारत-तिब्बत सीमा पर चीन द्वारा तनाव बढ़ाने का कारण मुख्य रूप से यही है।

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