भारत के जन-गण को नमन : प्रो. एनके सिंह, अंतरराष्ट्रीय प्रबंधन सलाहकार

प्रो. एनके सिंह

अंतरराष्ट्रीय प्रबंधन सलाहकार

सीजनल श्रमिक भारतीय कृषि की रीढ़ हैं क्योंकि उनके बिना कृषि कार्य नहीं चल सकता। मैंने कभी नहीं सोचा था कि यह समस्या इतनी विकराल हो जाएगी। अब मीडिया इसे एक सौ मिलियन मजदूरों से भी अधिक की समस्या बता रहा है। आर्थिक सर्वेक्षण अनुमान लगा रहे हैं कि यह कुल कार्यबल का 10 से 20 फीसदी है। इस विषय को कोई गहराई से नहीं जानता और न ही किसी ने इस पर काम किया है। मैं एक दिन एक ट्रेन में बैठे किसान टाइप के व्यक्ति से मिलकर हैरान रह गया। उसने मुझे बताया कि वह रोपड़ को जा रहा है तथा वह हर साल जाता है, हालांकि वह बिहार से है। मुझे पता चला कि वह पंजाब के किसानों के लिए श्रमिकों की आपूर्ति करता है तथा सैकड़ों मजदूरों को लाना एक बड़ा बिजनेस है। यह वास्तव में एक छोटी कंपनी को मैनेज करने जैसा है। आश्चर्य यह कि मिनरल संपन्न राज्यों से लोग एक छोटे प्रदेश को आते हैं…

भारत के लोगों ने इतिहास में बहुत धैर्य और लचीलापन दिखाया है। विदेशियों की ओर से किए गए आक्रमण में उन्होंने बहुत दुख सहे, अंगे्रजों द्वारा भारत को गुलाम बनाने के अंतिम सफल प्रयास सहित दुखों की यह गाथा बड़ी लंबी है। लेकिन उन्होंने वापस प्रतिकार किया तथा निर्दयी व दमनकारी शासकों, जिन्होंने उन्हें गुलाम बनाया, के बावजूद हिंदू आत्मा को नहीं मारा जा सका। भारत को अंत में स्वतंत्रता दी गई, परंतु इसे पाने के लिए लोगों को अनेक कष्ट सहन करने पड़े। खून बहाया गया, बलात्कार भी हुए और देश के विभाजन में लूट की घटनाएं भी हुईं। भारत को दो राष्ट्र सिद्धांत को स्वीकार करना पड़ा तथा एक राष्ट्र ने अपना घर नव-निर्मित पाकिस्तान में पाया तो दूसरे राष्ट्र यानी हिंदुओं ने अपनी धरती पर रहना स्वीकार किया। मुसलमानों का एक वर्ग भी भारत में रहने के लिए तैयार हुआ जिसे संवैधानिकता से प्रेरित कानून के शासन के अनुसार समानता और न्याय के अधिकार मिले हैं। हजारों हत्याओं और त्रासद दुश्वारियों के बावजूद भारत के लोगों ने उथल-पुथल को बहुत धैर्य से झेला तथा देश के विभाजन को उन्होंने एक अवसर में परिवर्तित कर दिया तथा साथ ही प्रतिकार भी किया। पाकिस्तान से आए लाखों लोगों को लेते हैं, जिन्होंने बड़ी उद्यमशीलता तथा लचीलेपन का प्रदर्शन किया। आक्रमण और दासता के बाद हमें अपने अस्तित्व के लिए युद्धों व महामारियों के बीच से गुजरना पड़ा। आम आदमी चुनौतियों के सामने हमेशा खड़ा रहा तथा उसने साहसिक प्रतिसाध का परिचय दिया। पिछले दशक में हमें एक साथ कई संकटों का सामना करना पड़ा और एक अथवा दूसरे संकट के साथ हम जी रहे हैं। इनमें सबसे बुरा कोविड-19 कोरोना वायरस है जिसके कारण न केवल लोग बीमार हुए हैं और मौते भी हुई हैं, बल्कि इसने देश के शैक्षणिक तथा आर्थिक सिस्टम को भी नुकसान पहुंचाया है। स्थापित मूल्यों तथा वर्क डिजाइन का इसने बड़े पैमाने पर क्षरण किया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि नई और बढि़या सामाजिक जिंदगी को लाने के लिए कई कुछ किया जा रहा है, कल्पनाएं की जा रही हैं, फिर भी यह इस बात पर निर्भर करेगा कि प्रौद्योगिकी किस तरह काम करेगी तथा इससे भी अधिक यह कि देश के लोग किस तरह प्रतिक्रिया करेंगे। मैं यह देखकर हैरान हूं कि इस सबसे बुरे संकट के समय में देश के लोगों का अपने समाज व नेतृत्व में विश्वास बना हुआ है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ओर से पेश किए गए जनता कर्फ्यू को इससे पहले कोई नहीं जानता था। महामारी के खिलाफ लड़ाई को जीतने के लिए भारत के लोगों ने विश्वास के साथ वायरस के साथ लड़ने की भावना को अपनाया। हमारी ओर से इस वायरस से लड़ रहे पुलिस कर्मियों, चिकित्सा कर्मियों तथा अन्य सेवा प्रदाताओं को हमने सम्मान भी दिया। हम पर महामारी का गंभीर हमला हुआ, लेकिन इससे पहले कोरोना योद्धाओं को धन्यवाद करने की किसी ने नहीं सोची थी, जबकि वे इसके पात्र थे। जनता कर्फ्यू की शाम को लाखों लोगों ने घरों के बाहर, छत पर अथवा बालकनी या लॉन में खड़े होकर घंटिया बजाईं अथवा मोमबत्तियां जलाईं। सीजनल श्रमिक भारतीय कृषि की रीढ़ हैं क्योंकि उनके बिना कृषि कार्य नहीं चल सकता। मैंने कभी नहीं सोचा था कि यह समस्या इतनी विकराल हो जाएगी। अब मीडिया इसे एक सौ मिलियन मजदूरों से भी अधिक की समस्या बता रहा है। आर्थिक सर्वेक्षण अनुमान लगा रहे हैं कि यह कुल कार्यबल का 10 से 20 फीसदी है। इस विषय को कोई गहराई से नहीं जानता और न ही किसी ने इस पर काम किया है। मैं एक दिन एक ट्रेन में बैठे किसान टाइप के व्यक्ति से मिलकर हैरान रह गया। उसने मुझे बताया कि वह रोपड़ को जा रहा है तथा वह हर साल जाता है, हालांकि वह बिहार से है। मुझे पता चला कि वह पंजाब के किसानों के लिए श्रमिकों की आपूर्ति करता है तथा सैकड़ों मजदूरों को लाना एक बड़ा बिजनेस है। यह वास्तव में एक छोटी कंपनी को मैनेज करने जैसा है।

ऐसे बड़े मिनरल संपन्न राज्य से एक छोटे राज्य को लोग क्यों आते हैं? यह सिस्टम पिछले कई दशकों से चल रहा है तथा गरीबी यहां बड़े पैमाने पर है जो लोगों को घरों से निकलने के लिए विवश करती है। बड़े स्तर पर आवागमन के लिए मूल कारण गरीबी है तथा कोई यह नहीं जानता कि उन्हें कितनी दयनीय स्थितियों में जीना पड़ता है। क्योंकि वे अस्थायी श्रमिक हैं तथा उन्हें लंबे समय के लिए वहां रहना नहीं होता है, इसलिए वे झुग्गी-झोंपडि़यों आदि में रहते हैं तथा पूरा परिवार खेतों में काम करता है। जैसे ही लॉकडाउन की घोषणा हुई, उन्हें अपने घरों को जाने के लिए तैयारी करने के लिए चार घंटे का नोटिस मिला। घरों को जाते हुए रास्ते में उन्हें कई दिक्कतों का सामना करना पड़ा। रेलवे ट्रैक पर सोए 20 मजदूरों को तो चलती हुई ट्रेन ने रौंद डाला। हजारों की संख्या में मजदूरों को कोई ट्रेन नसीब नहीं हुई और घरों तक पहुंचने के लिए सैकड़ों मील का सफर उन्हें पैदल ही पूरा करना पड़ा। मुझे इस बात पर हैरानी है कि जबकि गांवों में कोई काम नहीं है, तो वे वहां क्यों जा रहे हैं? अब ऐसी सूचना भी है कि उत्तर प्रदेश जाने वाली टे्रनें वापस भी पूरी तरह भरकर लौट रही हैं। घरों को लौटने का आकर्षण एक स्वाभाविक मानवीय भावना है। रेलवे अब तक बड़ी संख्या में मजदूरों को उनके घरों तक पहुंचा चुकी है। लाखों लोगों का आवागमन हुआ तथा करोड़ों लोग इसके कारण अव्यवस्थित हुए। इसके बावजूद कोई शोरगुल अथवा कठिनाई नहीं है। सभी लोग सोशल डिस्टेंसिंग अपनाने अथवा मास्क लगाने के नियमों का पालन कर रहे हैं। थालियां बजाने में ही एक नेता का अनुगमन हम लोगों ने कैसे किया? मेरा ऐसे लोगों को नमन है जिन्होंने संकट की घड़ी में बड़े धैर्य तथा सहनशीलता का परिचय दिया है। मैं इस महानता को राजकपूर के इस गाने के साथ याद करता हूं : ‘हम उस देश के वासी हैं, जिस देश में गंगा बहती है।’

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