मुक्त व्यापार नहीं उबारेगा हमें, डा. भरत झुनझुनवाला, आर्थिक विश्लेषक

भरत झुनझुनवाला

आर्थिक विश्लेषक

मेरा मानना है कि जब तक हम अपनी प्रशासनिक व्यवस्था को सुदृढ़ नहीं करते हैं तब तक हम मुक्त व्यापार में नहीं जीत पाएंगे। इसलिए सरकार को पहले देश के प्रशासन को सही करना चाहिए और उसके बाद ही मुक्त व्यापार पर विचार करना चाहिए। श्रम और पर्यावरण कानून का विषय मेरे हिसाब से द्वितीय स्तर का है और इस पर दूसरे देशों पर इन्हें सुधार करने के लिए दबाव डाला जा सकता है, लेकिन अपने देश की प्रशासनिक व्यवस्था तो हमें ही सुधारनी होगी, तभी हम विश्व बाजार में खड़े रह सकेंगे। 1991 के संकट ने हमें विश्व के लिए खुलवाया था। 2020 के संकट से यदि हम अपने को बंद कर लेते हैं तो जीवित रहेंगे…

पूर्वी एशिया के देशों इंडोनेशिया, थाईलैंड, सिंगापुर, मलेशिया, फिलिपींस, म्यांमार, ब्रूनेई, कंबोडिया और लाओस ने आपस में एक मुक्त व्यापार समझौता कर रखा है जिसे आसियान नाम से जाना जाता है। समझौते के अंतर्गत इन देशों के बीच माल लगभग शून्य आयात कर पर आ-जा सकता है। आसियान के देशों ने वर्ष 2010 में चीन के साथ मुक्त व्यापार समझौता किया। उस समय इनके चीन को निर्यात अधिक और आयात कम थे। शुद्ध व्यापार इनके पक्ष में 53 अरब डॉलर प्रति वर्ष का था। चीन के साथ समझौता करने के बाद यह परिस्थिति बदल गई। वर्ष 2016 में इनके निर्यात कम और आयात अधिक हो गए। इन्हें 54 अरब डॉलर का घाटा लगा। जाहिर है कि चीन को आसियान में सम्मिलित करने से इन देशों को भारी घाटा हुआ है। प्रश्न है कि यह मुक्त व्यापार घाटा हानिप्रद क्यों हुआ? अर्थशास्त्र का सिद्धांत कहता है कि मुक्त व्यापार से दोनों देशों को लाभ होता है।

जो देश जिस माल को कुशलता पूर्वक उत्पादन कर सकता है, यानी अच्छी गुणवत्ता के माल का सस्ता उत्पादन कर सकता है, वह उस माल का उत्पादन एवं निर्यात करेगा। और सभी देश जिस माल का कुशल उत्पादन नहीं कर सकते हैं उसका वे आयत करेंगे। जैसे भारत की दवाएं बनाने में कुशलता है जबकि बिजली के बल्ब बनाने में हमारा खर्च ज्यादा आता है। ऐसे में मुक्त व्यापार का सिद्धांत कहता है कि भारत को दवाओं का निर्यात करना चाहिए और चीन से बल्बों का आयात करना चाहिए। ऐसा करने से दोनों देशों को लाभ होगा। भारत के उपभोक्ता को चीन में बने सस्ते बल्ब मिल जाएंगे और चीन के उपभोक्ता को भारत में बनी सस्ती दवा। भारत में दवा बनाने में रोजगार उत्पन्न होंगे जबकि चीन में बल्ब बनाने में। इस प्रकार मुक्त व्यापार दोनों ही देशों के लिए लाभप्रद सार्थक हो जाएगा। लेकिन ऊपर बताया गया प्रत्यक्ष अनुभव बताता है कि आसियान देशों ने जब चीन के साथ मुक्त व्यापार समझौता किया तो उनका घाटा बढ़ गया। इसका कारण यह है कि मुक्त व्यापार में सब देशों के बीच ‘नीचे की तरफ  दौड़’ लागू हो जाती है। जो देश अपने श्रमिक एवं पर्यावरण के प्रति सबसे घटिया रुख अपनाएगा, वही रुख सभी देशों को अपनाना पड़ेगा। जैसे यदि चीन में श्रम कानून ढीले हैं, फलस्वरूप चीन में उत्पादन लागत कम आती है। इस परिस्थिति में यदि चीन के साथ आसियान ने मुक्त व्यापार का समझौता किया तो आसियान को भी अपने श्रम कानून नरम बनाने होंगे अन्यथा आसियान देशों में माल की उत्पादन लागत अधिक आएगी। श्रम कानून नरम होने के कारण चीन का माल सस्ता पड़ेगा और आसियान देश बाजार में पिट जाएंगे। अथवा मान लीजिए चीन में पर्यावरण की हानि की छूट है, उद्योगों द्वारा वायु प्रदूषण करने पर रोक नहीं है अथवा प्रदूषित पानी को नदियों में डालने पर रोक नहीं है, ऐसी परिस्थिति में चीन में उत्पादन लागत कम आएगी और चीन का माल सस्ता पड़ेगा। उसके सामने टिकने के लिए आसियान देशों को भी अपने पर्यावरण को नष्ट होने देना पड़ेगा अन्यथा उनका माल महंगा पड़ेगा। तीसरा कारण प्रशासनिक व्यवस्था का है। चीन की प्रशासनिक व्यवस्था कुशल है। उद्यमी को सुविधा है और उसकी उत्पादन लागत कम आती है। आसियान देशों में यदि प्रशासन सुस्त है तो उनकी उत्पादन लागत ज्यादा आएगी। इन तीनों कारणों से, यानी श्रम और पर्यावरण के घटिया होने और प्रशासन के चुस्त होने के कारण चीन का माल विश्व बाजार में सस्ता पड़ रहा है। ऐसे में अन्य देशों के सामने विकल्प है कि या तो इसी के समकक्ष अपनी व्यवस्था बनाएं या फिर चीन से पिटें या चीन से व्यापारिक दूरी बनाए रखें। दूसरी समस्या यह है कि भारत की महारत सेवा क्षेत्र में है जैसे सॉफ्टवेयर, सिनेमा, संगीत, अनुवाद, डेटा ऐनेलिसिस, मेडिकल ट्रांसक्रिप्शन, ऑनलाइन टिटोरियल इत्यादि में, लेकिन आसियान समेत विश्व व्यापार संगठन जैसे बहुराष्ट्रीय समझौतों में सेवा क्षेत्रों को सम्मिलित नहीं किया जाता है। मुख्यतः मुक्त व्यापार क्षेत्र में केवल भौतिक माल के आवागमन की व्यवस्था होती है। लेकिन मैन्युफेक्चरिंग में हमारी परिस्थिति कमजोर है जिसके कारण मुक्त व्यापार समझौता करके हम मैन्युफेक्चरिंग में पिटते हैं चूंकि इसमें हम कमजोर हैं और सेवा क्षेत्र का लाभ नहीं उठा पाते क्योंकि यह मुक्त व्यापार समझौतों के बाहर रहता है। इसलिए हमारे लिए मुक्त व्यापार समझौते अप्रासंगिक हो जाते हैं।

तीसरी समस्या है कि मुक्त व्यापार समझौतों के अंतर्गत पूंजी को संपूर्ण विश्व में विचरण करने की छूट मिल जाती है। यदि भारत में श्रम और पर्यावरण कानून कठोर और प्रशासन सुस्त है तो वह अपनी पूंजी को चीन ले जाकर चीन में माल का उत्पादन कर सकता है और वहां से भारत को स्वयं को माल का निर्यात कर सकता है। इसलिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए मुक्त व्यापार निश्चित रूप से लाभप्रद होता है क्योंकि वे अपनी पूंजी को उस देश में निवेश कर सकते हैं जहां पर उन्हें अधिकतम सुविधाएं मिलें। लेकिन हर देश के नागरिकों के लिए पूंजी का यह विचरण लाभप्रद होना जरूरी नहीं है। अपने देश में चूंकि प्रशासनिक व्यवस्था लचर है, इसलिए मुक्त व्यापार अपनाने से हमारी पूंजी शीघ्र ही बाहर चली जाएगी और हमारे नागरिकों को रोजगार नहीं मिलेगा जैसा कि हम लगातार होता देख रहे हैं। यदि हम मुक्त व्यापार से बाहर रहते हैं तो लचर प्रशासनिक व्यवस्था के बावजूद उद्यमी को भारतीय बाजार में माल बेचने के लिए भारत में ही उत्पादन करना पड़ेगा और तदानुसार भारत में रोजगार भी मिलेंगे। इसलिए मुक्त व्यापार की थ्योरी तीन बिंदुओं पर असफल हो जाती है। पहला यह कि मुक्त व्यापार उस देश के लिए लाभप्रद होता है जिसके श्रम एवं पर्यावरण कानून लचर हों और प्रशासन चुस्त हो। भारत का प्रशासन लचर है, इसलिए भारत इसमें मार खाता है। दूसरा यह कि भारत सेवा क्षेत्र में कुशल है जो कि इन समझौतों से बाहर रहता है। और तीसरा कि इस परिस्थिति में मुक्त व्यापार समझौते से हमारी पूंजी का पलायन होता है और हमारे देश में बेरोजगारी बढ़ती है। इस समय कोरोना वायरस के संकट को देखते हुए भारत के सामने दो रास्ते खुले हैं। एक रास्ता यह है कि हम मुक्त व्यापार को और गहराई से अपनाएं और आशा करें कि इससे हमें लाभ होगा।

दूसरा रास्ता है कि हम मुक्त व्यापार से पीछे हटें और उससे भी हमें लाभ हो सकता है। मेरा मानना है कि जब तक हम अपनी प्रशासनिक व्यवस्था को सुदृढ़ नहीं करते हैं तब तक हम मुक्त व्यापार में नहीं जीत पाएंगे। इसलिए सरकार को पहले देश के प्रशासन को सही करना चाहिए और उसके बाद ही मुक्त व्यापार पर विचार करना चाहिए। श्रम और पर्यावरण कानून का विषय मेरे हिसाब से द्वितीय स्तर का है और इस पर दूसरे देशों पर इन्हें सुधार करने के लिए दबाव डाला जा सकता है, लेकिन अपने देश की प्रशासनिक व्यवस्था तो हमें ही सुधारनी होगी, तभी हम विश्व बाजार में खड़े रह सकेंगे। 1991 के संकट ने हमें विश्व के लिए खुलवाया था। 2020 के संकट से यदि हम अपने को बंद कर लेते हैं तो जीवित रहेंगे।

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