मुखर्जी की कश्मीर नीति, कुलदीप चंद अग्निहोत्री, वरिष्ठ स्तंभकार

डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री

वरिष्ठ स्तंभकार

डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की श्रीनगर की जेल में रहस्यमय मृत्यु 23 जून 1953 को हुई थी। वह जम्मू-कश्मीर में संघीय संविधान में से अनुच्छेद 370 को हटाने के लिए संघर्ष कर रहे राज्य निवासियों को समर्थन प्रदान करने के लिए जम्मू-कश्मीर में 11 मई 1953 को पहुंचे थे। शेख मोहम्मद अब्दुल्ला की सरकार ने उन्हें तुरंत लखनरूर में ही बंदी बना लिया था। पंजाब सरकार उन्हें जम्मू-कश्मीर की सीमा पर ही गिरफ्तार करना चाहती थी क्योंकि उनके पास कश्मीर में दाखिल होने के लिए अनुमति पत्र नहीं था। उस समय जम्मू-कश्मीर में जाने के लिए हर नागरिक को अनुमति पत्र लेना पड़ता था, जो भारत सरकार जारी करती थी। माना जा रहा था कि पंजाब के सीमांत पर पंजाब पुलिस उन्हें रोकेगी और अनुमति पत्र मांगेगी। न होने पर बंदी बना लेगी। इस काम के लिए उनके साथ एक एसपी रैंक का पुलिस अधिकारी अमृतसर से ही आ रहा था। लेकिन सभी को आश्चर्य हुआ जब पंजाब की सरकार, जो उस समय कांग्रेस की सरकार थी, ने उन्हें पंजाब के सीमांत पर गिरफ्तार नहीं किया और दस कदम आगे जाते ही जम्मू-कश्मीर की सरकार ने गिरफ्तार कर लिया। पुलिस उन्हें जम्मू न ले जाकर श्रीनगर ले गई। डा. मुखर्जी बीमार थे और उनके लिए ज्यादा ऊंचाई पर ठंडा इलाका उपयुक्त नहीं था। इसलिए कांग्रेस के ही एक वरिष्ठ नेता और नेहरू जी के मित्र मौलिचंद्र शर्मा ने आश्चर्य प्रकट करते हुए उनको कहा था  कि आप मुखर्जी को जम्मू में ही रखिए, श्रीनगर उनकी सेहत के लिए उपयुक्त जगह नहीं है।

लेकिन नेहरू नहीं माने। बाद में कांग्रेस के ही एक दूसरे वरिष्ठ नेता डा. विधानचंद्र राय, जो उस समय पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री थे और मुखर्जी के पारिवारिक डाक्टर भी थे, ने गुस्से में कहा था कि कश्मीर सरकार ने मुझे मुखर्जी के गिरते स्वास्थ्य के बारे में क्यों नहीं बताया? मुखर्जी की रहस्यमय मौत हुई तो उस समय के सदरे रियासत को भी उनकी मौत की भनक नहीं लगने दी। लेकिन यह रहस्य बना रहा कि मुखर्जी को पंजाब के सीमांत पर क्यों नहीं पकड़ा गया। इसका रहस्य तब खुला जब मुखर्जी की हिरासत को लेकर न्यायालय में  अपील करने का समय आया। जम्मू-कश्मीर सुप्रीम कोर्ट का अधिकार अनुच्छेद 370 के कारण लागू नहीं था। यदि मुखर्जी को पंजाब पुलिस पकड़ लेती तो वह सुप्रीम कोर्ट के अधिकार क्षेत्र में आ जाते। फिर शायद उनकी रहस्यमय मृत्यु न होती। ये प्रश्न मुखर्जी की मां ने नेहरू के समक्ष उठाए थे। लेकिन नेहरू के पास इन प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं था। जिस शेख अब्दुल्ला के पास इन प्रश्नों का उत्तर था, उसने अब तक नेहरू के प्रश्नों का ही उत्तर देना बंद कर दिया था। डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी की मां के प्रश्नों के उत्तर वह भला क्या देता। लेकिन डा. मुखर्जी की रहस्यमय मृत्यु पर बात करने का मेरा उद्देश्य दूसरा है। वह कश्मीर में अनुच्छेद 370 को निरस्त करवाने के लिए गए  थे। इस अनुच्छेद ने जम्मू-कश्मीर को लेकर अनेक प्रश्न खड़े कर दिए थे। आखिर जम्मू-कश्मीर में भारत का संविधान लागू क्यों नहीं किया जा रहा था? क्या केवल इसलिए कि राज्य में मतांतरित हो चुके कश्मीरियों यानी मुसलमान कश्मीरियों का बहुमत था? देश के जिस हिस्से में मुसलमानों का बहुमत होगा, क्या वहीं और किसी के बसने की मनाही की जाएगी? और इतना ही नहीं, बल्कि इसको सांविधानिक संरक्षण भी प्रदान किया जाएगा? सभी इन प्रश्नों से बचना चाहते थे क्योंकि ये अधिकार शेख अब्दुल्ला मांग रहे थे और वह उन दिनों नेहरू के सर्वाधिक प्रिय थे। लेकिन इस अनुच्छेद का सबसे ज्यादा लाभ पाकिस्तान उठा रहा था और बाद में चीन ने भी उठाना शुरू कर दिया था। इन दोनों देशों के हित में यही था कि जम्मू-कश्मीर पर भारत का संविधान लागू न होकर मामला सुरक्षा परिषद में रहने के कारण विश्व की नजर में सामरिक लिहाज से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण यह राज्य दुनिया की नजर में विवादास्पद बना रहे।

सत्तर साल की इस लंबी अवधि में चीन ने भी जम्मू-कश्मीर के मामले में अपने आपको स्टेकहोल्डर बताना शुरू कर दिया। लद्दाख में तो उसने अक्साईचिन पर कब्जा ही कर लिया, शकसमघाटी उसे पाकिस्तान ने लीज पर दे दी। डा. मुखर्जी अनुच्छेद 370 के कारण भविष्य में भारत के समक्ष चीन व पाकिस्तान की ओर से आने वाली चुनौतियों का अंदाजा लगा चुके थे। इसीलिए वह चाहते थे कि शुरू में ही बीमारी को जड़ से ही काट दिया जाए। इसकी कीमत उन्हें अपने प्राण देकर चुकानी पड़ी। लेकिन जो उनके अंदेशे थे, वे सही साबित हुए। इतने दशकों बाद जब नरेंद्र मोदी की सरकार ने अनुच्छेद 370 को समाप्त कर डा. मुखर्जी के सपने को पूरा किया तो सबसे ज्यादा कष्ट चीन और पाकिस्तान को ही हुआ। यदि उस समय 370 को समाप्त कर दिया जाता तो शायद लद्दाख में आज जो चीन कर रहा है, उसकी नौबत ही न आती। इसी अनुच्छेद के कारण चीन अपने आप को भी जम्मू-कश्मीर के विवाद में एक पार्टी मानने लगा था। यदि उस समय सरकार यह अनुच्छेद समाप्त कर देती और पाकिस्तान के कब्जे से गिलगित और बलतीस्तान छुड़ा  लेती तो चीन को ग्वादर तक पहुंचने के लिए रास्ता न मिलता और उसका कराकोरम राजमार्ग का सपना पूरा न हो पाता। कराकोरम के सपने के कारण ही वह इस क्षेत्र में स्वयं को पार्टी बनाने और मनवाने का प्रयास कर रहा है। आशा करनी चाहिए कि चीन और पाकिस्तान की इस भारत विरोधी महत्त्वाकांक्षा के आगे डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी का यह बलिदान चट्टान बनकर खड़ा रहेगा।

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