अजय पाराशर
लेखक, धर्मशाला से हैं
पंडित जॉन अली अब ज़िला कलेक्टर हो गए थे, लेकिन इतने साल की नौकरी में उन्हें पता लग चुका था कि ऐसे सिस्टम के कालचक्र में बड़े से बड़ा बल्लम होने के बावजूद अपने हाथ कुछ भी नहीं है। सिस्टम बड़ी चीज़ है। सप्तपदी के बाद जिस तरह आपको अपने जीवन साथी के साथ, चाहे वह जैसा भी हो, उम्र काटनी ही पड़ती है; वैसे ही सिस्टम का पार्ट होने के बाद आपको उसके मुताबि़क चलना ही पड़ता है। हां, जो सिस्टम के भैंसे को साध लेते हैं, वे उस पर सवारी करना भी सीख जाते हैं। नहीं तो आम आदमी तो बेचारा ज़िंदगी के लॉकडाउन में गांव से शहर और शहर से गांव की दौड़ में उलझ कर रेल की पटरी पर टुकड़ों में पड़ा हुआ ही मिलता है। पंडित जी की जो बात सबसे अधिक अखरती थी, वह थी ज़िला की सड़कों की हालत। देहात की सड़कें तो देहातियों की तरह निपट गंवार थी हीं; पर ज़िला मुख्यालय की सड़कें भी लोक निर्माण विभाग से कम ईमानदार न थीं। सड़कों से विभाग की ईमानदारी वैसे ही टपकती थी, जैसे उसके द्वारा बनाए गए सरकारी भवनों के बाथरूम और छत से साल भर पानी टपकता रहता है। हां, यह बात दीगर है कि सरकार के मंत्री जनसभा में अपनी सरकार के कार्यकाल में बनाई गई सड़कों की तुलना हेमामालिनी के गालों से उसी अंदाज़ में करते जैसे कोई बदमाश अपने शरी़फ होने की ़कसमें खाता है। जॉन अली ज़िला में जहां भी जाते, लग्ज़री गाड़ी में वैसे ही धक्के खाते जैसे आम आदमी राशन की दुकान पर खाता है। उन्होंने कई बार लोक निर्माण विभाग के अधिकारियों को द़फ्तर में सीधे भी बुलाया और कई बार विभागीय मीटिंग भी की। लेकिन उनके लाख प्रयत्न करने के बाद भी सड़कों की हालत पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद की तरह ही बनी रही। पंडित जी जब पूरी तरह सिस्टम में घुसे तो पता चला कि खादी, विभाग और ठेकेदार आपस में उसी तरह रले-मिले हैं जैसे बऱफी में दूध, खोया और खांड होते हैं। एक बार ज़िला स्तरीय मीटिंग में कुछ ईमान के अंधे अधिकारियों ने लोक निर्माण विभाग द्वारा चकहरी से खग्गल तक सड़क को जेसीबी से तोड़ने पर आपत्ति व्यक्त करते हुए कहा कि स्मार्ट सिटी की बा़की सड़कें तो पहले ही किसी ़गरीब औरत की साड़ी की तरह कटी-फटी पड़ी थीं। ले-देकर दस किलोमीटर की यही एक सड़क थी जिस पर गाड़ी चलाते हुए कुछ राहत महसूस होती थी। उसे भी विभाग ने तोड़ डाला। मामला बढ़ा तो सदन की तरह जूतम-पैज़ार तक आ पहुंचा। ऐसे में पंडित जॉन अली को कलेक्टरी के चोले में घुसना पड़ा। उन्होंने मुख्य अभियंता से पूछा तो उसने कहा, ‘‘सर! विभाग को भी पता था कि अभी यह सड़क कई साल और चल सकती थी। लेकिन यह सड़क सौतन की तरह विभाग को अखरती थी क्योंकि लोग अक्सर कहते थे कि यह सड़क अंग्रेज़ों ने बनवाई थी। इसीलिए बिल्कुल स्मूद है। इस पर एक भी झटका नहीं लगता।’’ पंडित जी ने ़गुस्से में पूछा, ‘‘फिर इसे तोड़ने की ज़रूरत क्या थी?’’ मुख्य अभिंयता खींसे निपोरते हुए बोले, ‘‘सर! इस सड़क के लिए दस करोड़ का बजट आया था केंद्र प्रायोजित फंड में। अगर इसे तोड़ते नहीं तो पैसा वापस हो जाता। इसीलिए इसे तोड़ना ज़रूरी था।’’