चीन का लद्दाख कष्ट : कुलदीप चंद अग्निहोत्री, वरिष्ठ स्तंभकार

डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री

वरिष्ठ स्तंभकार

पाकिस्तान अपनी इस प्रशासनिक इकाई में गिलगित और बलतीस्तान को शामिल नहीं करता था। इसलिए इस पूरी बहस में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण गिलगित-बलतीस्तान छिपा रहता था। यह चीन और पाकिस्तान, दोनों को ही अपने हितों के अनुकूल लगता था। लेकिन लद्दाख अलग राज्य बन जाने से, जिसमें गिलगित-बलतीस्तान भी शामिल है, सभी के ध्यान में आ जाता है कि पीओएल का अभिप्राय गिलगित-बलतीस्तान है। इसी प्रकार सीओएल का मतलब चीन द्वारा हथियाया गया अक्साई चिन है। अब तक लद्दाख जम्मू-कश्मीर का हिस्सा था। जम्मू-कश्मीर में सरकार सदा कश्मीर केंद्रित रहती थी। वह लद्दाख से विकास के मामले में भयंकर भेदभाव करती थी। बजट का अधिकांश हिस्सा कश्मीर घाटी में ही खर्च होता था…

चीन द्वारा अचानक लद्दाख की गलवान घाटी में सक्रिय हो जाने के कारणों की मीमांसा हो रही है। आखिर चीन इस हद तक क्यों चला गया कि भारत और चीन की सेनाओं में आमने-सामने भिड़ंत की नौबत आ गई? आपसी बातचीत में तय हो जाने के बाद भी वह अपनी सेना को नो मैन्ज लैंड से पीछे ले जाने में आनाकानी करने लगा। चीन को इस बात का भी अंदाजा रहा ही होगा कि विश्व भर में इस समय वातावरण उसके पक्ष में नहीं है। सभी देश इस मामले में लगभग एकमत हैं कि चीन ने अपने यहां वायरस के तांडव को छिपाया ही नहीं, बल्कि प्रत्यक्ष-परोक्ष उसको दुनियाभर में फैलाने में भी मदद की। यदि वह समय पर इस वायरस की सूचना दुनिया को देता तो बेहतर ढंग से इसका मुकाबला किया जा सकता था। चीन की इस हरकत ने उसे दुनिया की नजरों में अविश्वसनीय बना दिया है। इस प्रकार की विपरीत परिस्थितियों में भी वह लद्दाख में यह दुस्साहस क्यों कर रहा है, यह विचारणीय प्रश्न है। इसके मूल में कहीं न कहीं जम्मू-कश्मीर का पुनर्गठन भी है और भारतीय संविधान में से अनुच्छेद 370 का गायब हो जाना भी है। लद्दाख अलग राज्य बन जाने से दो नए शब्द प्रचलन में आए हैं ः सीओएल और पीओएल यानी चीन ऑकूपाइड लद्दाख और पाक ऑकूपाइड लद्दाख। पाक द्वारा आक्रांत जम्मू-कश्मीर को अभी तक पीओजेके कहा जाता था, इसका अभिप्राय सामान्य तौर पर उस क्षेत्र से लिया जाता था जिसे पाकिस्तान आजाद कश्मीर कहता है। पाकिस्तान अपनी इस प्रशासनिक इकाई में गिलगित और बलतीस्तान को शामिल नहीं करता था। इसलिए इस पूरी बहस में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण गिलगित-बलतीस्तान छिपा रहता था। यह चीन और पाकिस्तान, दोनों को ही अपने हितों के अनुकूल लगता था। लेकिन लद्दाख अलग राज्य बन जाने से, जिसमें गिलगित-बलतीस्तान भी शामिल है, सभी के ध्यान में आ जाता है कि पीओएल का अभिप्राय गिलगित-बलतीस्तान है। इसी प्रकार सीओएल का मतलब चीन द्वारा हथियाया गया अक्साई चिन है। अब तक लद्दाख जम्मू-कश्मीर का हिस्सा था। जम्मू-कश्मीर में सरकार सदा कश्मीर केंद्रित रहती थी। वह लद्दाख से विकास के मामले में भयंकर भेदभाव करती थी। बजट का अधिकांश हिस्सा कश्मीर घाटी में ही खर्च होता था, कुछ हिस्सा जम्मू संभाग के हिस्से आता था और अंत में बजट की खुरचन लद्दाख के हिस्से आती थी। कश्मीर सरकार के पास इस भेदभाव का तर्क भी रहता था। इस तर्क के अनुसार लद्दाख की कुल आबादी ही पौने तीन लाख है। इसलिए आबादी के अनुपात से ही बजट निर्धारित किया जाएगा। कम आबादी का तर्क तो ठीक है, लेकिन लद्दाख का क्षेत्रफल जम्मू संभाग व कश्मीर संभाग, दोनों से कहीं ज्यादा है। क्षेत्रफल के हिसाब से देखा जाए तो लद्दाख को विकास के लिए अब तक जो पैसा मिलता था, वह ऊंट के मुंह में जीरे से भी कम था। चीन को इस प्रकार का लद्दाख अपने सामरिक हितों के अनुकूल पड़ता था।

चीन ने लद्दाख की सीमा पर अपने हिस्से में काफी  विकास किया है। सड़कों का निर्माण किया है। लद्दाख के लोग जब यह सब देखते थे तो काफी प्रभावित होते थे। अविकसित लद्दाख चीन को दो तरह से अनुकूल पड़ता था। पहला मोर्चा तो मनोवैज्ञानिक था। लद्दाख के लोग जब सीमा पार सड़कें और विकास देखते थे तो उनके मन में तुलना का भाव पैदा होता था। असंतोष पैदा होता था। दूसरा, सामरिक लिहाज से भी चीन को वही लद्दाख अनुकूल था जिसमें न तो जमीन पर सड़कें हों और न ही नदियों पर पुल हों। लद्दाख में जमीनी संरचना से चीन को सबसे ज्यादा कष्ट है, क्योंकि अब तक चीन अपने हिस्से में यह काम चुपचाप करता रहा है। जाहिर है किसी लड़ाई की स्थिति में ये पुल और सड़कें ही सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। असंतुष्ट नागरिक और सड़क-पुल विहीन क्षेत्रफल शत्रु से लड़ाई के समय निर्णायक हो जाते हैं। लेकिन लद्दाख के केंद्र शासित बनने से वहां के निवासियों की लंबे सिरे से चली आ रही मांग पूरी हो गई है। अलग राज्य बनने से केंद्र सरकार की ओर से अब लद्दाख को अलग बजट निर्धारित होता है जिससे वहां विकास के कार्य शुरू हो गए हैं। किसी भी विकास योजना में सड़क और पुल पहला चरण होता है।

लद्दाख का यह पहला चरण ही चीन की आंख में शहतीर बन कर बैठ रहा है। जम्मू-कश्मीर की कश्मीर केंद्रित सरकार लद्दाख के विकास में बाधा थी, अब केंद्र की सरकार उसमें अतिरिक्त रुचि ले रही है। लद्दाख की सामरिक महत्ता को देखते हुए भी और लद्दाखियों के जीवन स्तर को उन्नत करने के लिए भी। चीन जानता है कि यदि वह लद्दाख में मनोवैज्ञानिक लड़ाई हार गया तो सामरिक लड़ाई जीतना उसके लिए आसान नहीं रहेगा। इसलिए वह गलवान घाटी की झड़पों और सीमा पर सैनिक जमावड़े से आम लद्दाखियों को यह संदेश देना चाहता था कि जिस भारत के भरोसे तुम बैठे हो, वह आपकी रक्षा नहीं कर सकता। लेकिन जब सीमा पर भिड़ंत हुई तो भारतीय सेना ने चीनी सेना की धुनाई कर दी। चीन के इतने सैनिक मारे गए कि चीन अब उनकी संख्या अपने देश के लोगों को ही बताने में झिझक रहा है। ध्यान रखना चाहिए कि चीन ने यह आक्रमण धोखे से किया था और उसने इसकी तैयारी पहले से कर रखी थी। यह एक प्रकार से बातचीत के बाद का विश्वासघात थी। लेकिन उसके बावजूद पिटाई भी चीन की हुई। इसमें कोई संदेह अब चीन को भी नहीं रहा होगा कि भारतीय सेना का मनोबल और क्षमता कितनी है। दूसरी बात थी लद्दाखियों के मनोबल की। लद्दाखियों को तो इस बात का दुख था कि जब चीनी सैनिक उनके चरवाहों को कभी धमकाता था तो दिल्ली चुप हो जाती थी। लेकिन इस बार तो मोदी खुद ही लद्दाख के अग्रिम मोर्चों पर पहुंच गए। चीन लद्दाख में अनिश्चितता फैलाना चाहता था, लेकिन वार खाली गया। कराकोरम मार्ग भारतीय सेना की जद्द में आ रहा है। अनुच्छेद 370 हटने से लद्दाख में पूरा परिप्रेक्ष्य बदल गया है। यही चीन की चिंता है।

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