हिमाचल के सैन्य बलिदान पर तामीर कश्मीर: प्रताप सिंह पटियाल, लेखक बिलासपुर से हैं

प्रताप सिंह पटियाल

लेखक बिलासपुर से हैं

एक वर्ष से अधिक समय तक चले इस भीषण युद्ध में 1104 भारतीय सैनिक शहीद हुए थे। उस रणक्षेत्र में कश्मीर को पाक सेना से मुक्त कराने के लिए हिमाचल के 43 सैनिकों की शहादत हुई थी। इनमें 12 शहीद रणबांकुरों का संबंध बिलासपुर से था। यदि आज जम्मू-कश्मीर भारत के मानचित्र पर सुशोभित है तो उसके लिए हिमाचल की सैन्य कुर्बानियों का इतिहास ‘जनरल जोरावर सिंह कहलुरिया’ से शुरू होता है जिन्होंने जम्मू-कश्मीर रियासत की तामीर की जद्दोजहद के लिए लद्दाख के रणक्षेत्र में 1846 में अपना बलिदान दिया था। इन्फैंट्री डे पर पराक्रमी सेना को देश नमन करता है…

इतिहाससाक्षी रहा है कि जब भी हिंदोस्तान की सरजमीं की तरफ  दुश्मन के नापाक कदमों की आहट बढ़ी या मातृभूमि के लिए सरफरोशी का वक्त आया तो भारतीय सेना ने अपना किरदार बखूबी निभाया है। भारतीय थलसेना 27 अक्तूबर को अपने उन रणबांकुरों को नमन करती है जिन्होंने 1947 में इसी दिन पहली मर्तबा कश्मीर की धरती पर अपने कदम रखे थे तथा पाकिस्तान की नामुराद सेना के नापाक मंसूबों पर पानी फेर दिया था। दरअसल आजादी के दो महीने बाद 22 अक्तूबर 1947 को पाक सेना ने हजारों कबायली व पशतून लड़ाकों को साथ लेकर अपनी सरहदें लांघकर कश्मीर पर हमला बोल दिया था। पाक सिपहसालारों ने उस हमले को ‘ऑपरेशन गुलमर्ग’ नाम दिया था जिसकी कियादत पाक सैन्य कमांडर मेजर जनरल अकबर खान ने की थी जिसका लक्ष्य श्रीनगर को कब्जाना था। इस हमले का जिक्र अकबर खान ने खुद अपनी किताब ‘रेडर्स इन कश्मीरÓ में  किया था। पाक सेना के उस अचानक बड़े हमले से निपटने में असमर्थ जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन महाराजा हरिसिंह ने भारत सरकार से सैन्य मदद की गुहार लगाई थी।

कश्मीर का भारत में विलय का ‘इस्ट्रूमेंट ऑफ  एक्सेशन’ दस्तावेज साइन होने के बाद 27 अक्तूबर 1947 के दिन भारतीय थलसेना ने कश्मीर के महाज पर पाक सेना को उसकी हिमाकत का जवाब देने के लिए अपने सैन्य अभियान का शदीद आगाज किया था। इसलिए यह दिन भारतीय थलसेना में ‘इन्फैंट्री डे’ के रूप में मनाया जाता है। दूसरे विश्व के बाद भारतीय सेना के लिए आजाद भारत का यह पहला बड़ा सैन्य ऑपरेशन था जिसकी शुरुआत कश्मीर की धरती पर पाकिस्तान के खिलाफ हुई थी। इस युद्ध का सबसे निर्णायक मोड़ साबित हुआ जब तीन नवंबर 1947 को श्रीनगर की हवाई पट्टी को कब्जाने के करीब पहुंच रहे पाक लाव-लश्कर के एक बडे़ उन्मादी काफिले को मेजर सोमनाथ शर्मा (4 कुमांऊ) ने अपने 50 सैनिकों के साथ श्रीनगर  से कुछ दूर बड़गाम में ही रोककर उस हमले को नाकाम करके दुश्मनों की बड़ी तादाद को अपने हथियारों से खामोश कर दिया था। उस आक्रामक संघर्ष में मेजर सोमनाथ शर्मा तथा उनके 20 सैनिक वीरगाति को प्राप्त हुए थे, लेकिन शहादत से पहले उन्होंने पाक सेना के श्रीनगर को फतह करने के अरमानों पर पानी फेर दिया था। समरभूमि में दुश्मन के समक्ष अदम्य साहस व उत्कृष्ट नेतृत्व क्षमता के लिए मेजर सोमनाथ शर्मा को भारत सरकार ने ‘परमवीर चक्र’ से अलंकृत किया था।

उस युद्ध में अनुकरणीय शौर्य बलिदान के लिए पांच भारतीय योद्धा परमवीर चक्र से नवाजे गए थे, मगर स्वतंत्र भारत में पहले सर्वोच्च सैन्य सम्मान से सरफराज होने का गौरव मेजर सोमनाथ शर्मा को प्राप्त हुआ था। इसी जंग में 18 मई 1948 को भारतीय सेना की तीन गढ़वाल के सैनिकों ने कश्मीर के ‘टिथवाल’ इलाके में ट्रिहगाम चोटी पर कब्जा जमाए बैठे पाक सैनिकों पर धावा बोलकर उनको नेस्तनाबूद करके वहां भारत के शौर्य का तिरंगा फहरा दिया था। उस सफलतम सैन्य ऑपरेशन की अगुवाई हिमाचली शूरवीर कर्नल कमान सिंह पठानिया ने की थी। युद्धक्षेत्र में उस जोखिम भरे सैन्य मिशन को कारगर रणनीति से अंजाम तक पहुंचाकर निर्भीक सैन्य निष्ठा के लिए सरकार ने उन्हें ‘महावीर चक्र’ से नवाजा था। मौजूदा दौर में उस इलाके में जम्मू-कश्मीर को पाक अधिकृत कश्मीर से जोड़ने वाला पुल ‘कमान अमन सेतु’ वीरभूमि के उसी जांबाज कर्नल कमान सिंह पठानिया के नाम पर रखा गया है। एक वर्ष से अधिक समय तक चले इस भीषण युद्ध में 1104 भारतीय सैनिक शहीद हुए थे। उस रणक्षेत्र में कश्मीर को पाक सेना से मुक्त कराने के लिए हिमाचल के 43 सैनिकों की शहादत हुई थी। इनमें 12 शहीद रणबांकुरों का संबंध बिलासपुर से था।

यदि आज जम्मू-कश्मीर भारत के मानचित्र पर सुशोभित है तो उसके लिए हिमाचल की सैन्य कुर्बानियों का इतिहास ‘जनरल जोरावर सिंह कहलुरिया’ से शुरू होता है जिन्होंने जम्मू-कश्मीर रियासत की तामीर की जद्दोजहद के लिए लद्दाख के रणक्षेत्र में 1846 में अपना बलिदान दिया था। 1947-48 में कश्मीर के इसी मैदाने जंग में पाक सेना से लोहा लेकर कर्नल रंजीत राय ‘महावीर चक्र’ (प्रथम सिख), कर्नल इंद्रजीत सिंह बुटालिया ‘महावीर चक्र’ (4 डोगरा) जैसे भारतीय सेना के कमान अधिकारियों ने शहादत को गले लगा लिया था। कश्मीर के लिए सैन्य शहादतों का सिलसिला बदस्तूर जारी है। इसलिए अनुच्छेद 370 की फुरकत में तन्कीदगी के नश्तर बरसाकर सियासी जमीन तराशने वाले हुक्मरानों को अपने उन ख्वाबों की ताबीर का त्याग करके कश्मीर के लिए भारतीय सैन्यशक्ति के बलिदान से अवगत होना होगा। आजादी के तुरंत बाद 14 महीनों से अधिक समय तक चले उस भयंकर युद्ध में कश्मीर से पाक सेना को बेदखल करने वाले योद्धाओं को इतिहास में उनकी कुर्बानियों के अनुरूप पहचान नहीं मिली, न ही उस युद्ध का जिक्र होता है। बहरहाल ‘ग्लोबल फायर पावर इंडेक्स’ में भारतीय सैन्य ताकत विश्व में चौथे स्थान पर काबिज है तथा पाक सेना 17वें पायदान पर है। हमें गर्व है कि दुनिया में जमीनी युद्धों की सर्वोत्तम सेना ‘क्वीन ऑफ  दि बैटल’ के नाम से विख्यात ‘इन्फैंट्री’ आज भारत के पास है जो देश के स्वाभिमान के लिए सरहदों की बंदिशों को तोड़कर किसी भी सैन्य मिशन को अंजाम तक पहुंचाने की पूरी सलाहियत रखती है। ‘इन्फैंट्री डे’ के अवसर पर देश अपनी पराक्रमी सेना को नमन करता है, जिसके दम पर कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है और निःसंदेह रहेगा।