सत्ता की रस्साकशी में मीडिया: कुलदीप चंद अग्निहोत्री, वरिष्ठ स्तंभकार

डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री

वरिष्ठ स्तंभकार

अर्नब गोस्वामी का दोष यही है कि उद्धव ठाकरे जब अपने मूल एजेंडे से भागते हैं तो वह चिल्ला कर उसकी याद दिलाता है। वह सत्ता से आंख में आंख डाल कर बात करता है। जो सत्ता व्यवस्था सत्य व जन कल्याण पर आधारित होती है, वह तो आंख में आंख डाल कर बात करने से न तो कतराती है और न ही उसका बुरा मनाती है। उसके लिए तो यह प्रणाली संजीवनी का काम करती है। लेकिन जो सत्ता परिवार कल्याण के लिए समर्पित होती है, वह ऐसे लोगों की आंख तक निकाल लेने की कोशिश करती है…

अंततः महाराष्ट्र की शिव सेना सरकार ने अर्नब गोस्वामी को गिरफ्तार कर ही लिया। लेकिन गिरफ्तार कर लिया, क्या इतना कह देने मात्र से वाक्य पूरा हो जाता है? गिरफ्तार कर लेना इतना महत्त्वपूर्ण नहीं था, उससे भी महत्त्वपूर्ण था गिरफ्तार करने का तरीका। क्योंकि गिरफ्तार करने के तरीके से ही सत्ता का रौब दिखाई देता है। उससे सत्ता का आतंक आम जनता पर जमता है। सरकार का मकसद शायद गिरफ्तार करना इतना ज्यादा नहीं था जितना अपना आतंक जमाना। यही कारण था बंदूकें तान कर पुलिस का पूरा काफिला अंधेरे में अर्नब गोस्वामी के घर में घुसा। कुछ न्यायप्रिय लोग इस बात पर सिर धुन रहे हैं कि काफी देर तक गोस्वामी ने दरवाजा ही नहीं खोला। यह बहुत ही गलत किया। इसका अर्थ है कि गोस्वामी सरकारी काम में अवरोध डाल रहा था। यदि गोस्वामी सच्चा था तो उसे डरने की क्या जरूरत थी, उसे तुरंत दरवाजे खोल देने चाहिए थे। शायद वे नहीं जानते कि अर्नब गोस्वामी इस्लामी आतंकवाद के खिलाफ जिस प्रकार स्पष्ट शब्दों में चिल्लाते हैं, उसके कारण उनके लिए खतरा कितना बढ़ा रहता है, यह गोस्वामी ही जानते हैं।

मुंबई में जो वातावरण है, उसमें क्या बेहतर नहीं होगा कि थोड़ी जांच-पड़ताल कर ली जाए कि पुलिस की वर्दी में असली पुलिस है या कोई आतंकवादी? खैर कोरोना की बात तो रहने ही दी जाए, जिस प्रकार महाराष्ट्र की पुलिस गोस्वामी को घेर कर खड़ी थी, उससे लगता था उसकी पहली प्राथमिकता गोस्वामी से निपटना ही है। शायद उसी कारण उन्होंने दो गज की दूरी जो उद्धव ठाकरे की रक्षा के लिए तो जरूरी है, उसे अर्नब को निपटाने के लिए खत्म करना ही रणनीति का हिस्सा बना लिया था। अर्नब का कसूर बहुत बड़ा था। उसने सत्ता को सीधे-सीधे चुनौती दी थी। कभी सुशांत राजपूत का मामला उठा कर, कभी पालघर के साधुओं की हत्या का मामला उठा कर, कभी इस्लामी आतंकवाद का मामला उठा कर। उद्धव ठाकरे अब इन सभी पचड़ों में पड़ना नहीं चाहते क्योंकि बाला साहेब ठाकरे की मौत के बाद उन्हें किसी तरह अपने परिवार को सैट करना है। भाजपा उद्धव ठाकरे की और किसी तरह की सहायता तो कर सकती है, लेकिन उद्धव ठाकरे के बाल-बच्चों को राजनीति में सैट करना तो उसके चुनाव घोषणा पत्र में नहीं है। शरद पवार क्योंकि स्वयं अपने लंबे चौड़े परिवार को राजनीति में स्थापित कर चुके हैं, जो एक-दो जड़ें बाहर रह गई हैं, उनको भी रोपने के काम में लगे हुए हैं। इसलिए वह उद्धव ठाकरे के परिवार अभियान की राष्ट्रीय महत्ता को बखूबी समझते हैं। राजीव गांधी के चले जाने के बाद अपने परिवार को भारतीय राजनीति में स्थापित करने की अंतरराष्ट्रीय उपयोगिता को सोनिया गांधी से ज्यादा और कौन जानता है? सोनिया गांधी की खूबी यही है कि उनका दृष्टिकोण शुरू से ही संकीर्ण राष्ट्रीयता से आगे अंतरराष्ट्रीय रहा है । इसलिए शरद पवार और सोनिया गांधी दोनों ही उद्धव ठाकरे के परिवार को राजनीति के व्यवसाय में सैट करवाने के राष्ट्रीय अभियान में सांझीदार हो गए। लेकिन राजनीति में भी जब व्यावसायिक कंपनियां बनती हैं तो कुछ लेने-देने के आधार पर ही बनती हैं। इस लेन-देन में शिव सेना को अपना मूल एजेंडा त्यागना पड़ा। अर्नब गोस्वामी का दोष यही है कि उद्धव ठाकरे जब अपने मूल एजेंडे से भागते हैं तो वह चिल्ला कर उसकी याद दिलाता है। वह सत्ता से आंख में आंख डाल कर बात करता है।

 जो सत्ता व्यवस्था सत्य व जन कल्याण पर आधारित होती है, वह तो आंख में आंख डाल कर बात करने से न तो कतराती है और न ही उसका बुरा मनाती है। उसके लिए तो यह प्रणाली संजीवनी का काम करती है। लेकिन जो सत्ता परिवार कल्याण के लिए समर्पित होती है या फिर जिनके लिए सत्ता भोग व रुआब का प्रतीक होती है, वे आंख में आंख डाल कर बात करने वाले की आंख निकाल लेने तक जाती है। अब इक्कीसवीं शताब्दी में अर्नब गोस्वामी की आंखें निकाल लेना तो संभव नहीं था, मध्ययुगीन सत्ता होती तो अर्नब गोस्वामी की यही सजा होती। लेकिन हिंदुस्तान में संविधान, कानून इत्यादि भी है। इसलिए सरकार को सजा देने के लिए उसके दायरे में रहकर ही विरोधी की ललकारने की ताकत को खत्म करना होता है। उसकी पूरी पद्धति पुलिस अच्छी तरह जानती है। कोई भी व्यक्ति किसी के भी विरुद्ध दो लाइनें लिख कर दे देता है। मुझे इसने मारने की धमकी दी है। इसने ऐसी बात कह दी है जिससे मेरी भावना आहत हो गई है। कई बार देश में दो-चार सौ स्थानों पर एक साथ ही अलग-अलग लोग ऐसी शिकायत करवा देते हैं। पुलिस तो आम नागरिक की रक्षा के लिए ही है, इसलिए वह एफ आईआर लिखने में क्षण भर की देर नहीं करती। महाराष्ट्र सरकार ने पहले अर्नब को एक केस में फंसा कर उसकी रीढ़ की हड्डी तोड़ने की कोशिश की। दस-बारह घंटे पुलिस स्टेशन में बिठाए रखा। लेकिन गोस्वामी इस परीक्षा में पास होकर निकल आए। तब पुलिस ने टीआरपी का जाल फेंका। उसमें अर्नब तो नहीं फंस सके और कई फंस गए, जिनको महाराष्ट्र पुलिस शायद छेड़ना भी नहीं चाहती थी। लेकिन अब उद्धव ठाकरे भी पीछे नहीं हट सकते थे क्योंकि वह जानते थे कि मुंबई में उनकी सत्ता रौब और आतंक के बलबूते ही टिकी हुई है। अर्नब गोस्वामी उसी का विरोध कर रहे हैं।

इसलिए अर्नब को भरे बाजार सबके बीच में सबक सिखाना जरूरी है। इसलिए दो साल पहले न्यायालय से बंद हो चुका केस दोबारा जिंदा किया गया। उद्धव ठाकरे चाहे तो मुर्दा केस में भी जान डाल सकता है। उसने यही किया है और उस प्रेत केस से जिंदा आदमी को निपटाने का खेल शुरू किया है। अब प्रेत केस से अर्नब को घेरने का प्रयास हुआ है। यह इक्कीसवीं शताब्दी में सत्ता का मध्ययुगीन खेल चालू हुआ है। इसका ट्रेलर तो कंगना रणौत के मामले में ही उद्धव ठाकरे ने दिखा दिया था। तुम्हारी इतनी हिम्मत, तुम पहाड़ से आकर हमारी मुंबई में हमें ही चुनौती दो? इसलिए सरकार ने उसका कार्यालय गिरा दिया था। उद्धव ठाकरे की यह सामंतवादी मानसिकता है। यह बीमारी है। अर्नब गोस्वामी राजा को उसकी बीमारी ही चिल्ला-चिल्ला कर बता रहे थे। कुछ लोगों का कहना है कि बीमारी बताने तक तो ठीक था, लेकिन चिल्ला कर नहीं बताना चाहिए था। बीमारी बड़ी हो और मरीज बहरा हो जाने का बहाना करे तो चिल्लाना तो पड़ेगा ही न? लेकिन दुर्भाग्य से राजा की बीमारी का फल भी प्रजा को ही भोगना पड़ता है। वही फल कंगना रणौत भोग रही है और वही फल अर्नब गोस्वामी भोग रहे हैं। लेकिन यह लोकतंत्र है। बीमार राजा की गंभीर बीमारी का इलाज जनता ही करती है। जनता सब जानती है। अर्नब की गिरफ्तारी का क्या औचित्य है, यह भी जनता खूब जानती है। अब इस बात का जवाब भी जनता ही देगी।

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