1971 के रणबांकुरों को याद करे बांग्लादेश: प्रताप सिंह पटियाल, लेखक बिलासपुर से हैं

प्रताप सिंह पटियाल

लेखक बिलासपुर से हैं

बहरहाल 1971 की निर्णायक जंग में पाक सेना से लोहा लेकर हिमाचल के 195 रणबांकुरों ने अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया था जिनमें 27 शहीद जांबाजों का संबंध जिला बिलासपुर से था। लेकिन खेद की बात है कि जंगबंदी के बाद भारत ने 1972 में शिमला समझौते के तहत हिरासत में लिए गए 93 हजार पाक युद्धबंदियों को रिहा कर दिया, मगर युद्ध में पाकिस्तान द्वारा बंदी बनाए गए 54 भारतीय सैनिकों को रिहा करवाने के मुद्दे पर तवज्जो नहीं दी गई…

16 दिसंबर 1971 भारतीय सैन्य इतिहास की वह स्वर्णिम तारीख है जिसे हर देशवासी अपने जहन में सदैव याद रखना चाहेगा, जब 49 वर्ष पूर्व भारत की पराक्रमी सेना ने पूर्वी पाकिस्तान से पाक सेना को बेदखल करके वहां नए आजाद मुल्क ‘बांग्लादेश’ को तामीर करके पाकिस्तान का भूगोल तब्दील कर दिया था। युद्ध की तजवीज 1971 के शरुआती दौर में ही बनने लगी थी, मगर 3 दिसंबर 1971 को पाकिस्तान ने भारत के 11 हवाई अड्डों पर बमबारी करके युद्ध का आगाज कर दिया। उस युद्ध को अंजाम तक पहुंचाने वाले भारतीय रणबांकुरों की फेहरिस्त बहुत लंबी है। मातृभूमि की रक्षा के लिए ऐसा कोई सैन्य संघर्ष नहीं रहा जिसमें हिमाचली जांबाजों ने अपने शौर्य के मजमून लिखकर वीरभूमि के पराक्रम को साबित न किया हो, बेशक उस युद्ध का मरकज़ पूर्वी पाकिस्तान था। मगर आजादी के बाद पाकिस्तान के निजामों ने कश्मीर को हथियाने की आरजू कभी नहीं छोड़ी और भारतीय सैन्यशक्ति  के आगे उनकी ये हसरत कभी पूरी नहीं हुई। उस युद्ध में पाक सेना ने पश्चिमी मोर्चे पर शकरगढ़ के रास्ते से जम्मू-कश्मीर पर हमले को अंजाम देने का मंसूबा तैयार किया था। मगर उससे पहले ही 8 दिसंबर 1971 की रात को भारतीय सेना की ‘22 पंजाब’ रेजिमेंट ने पाकिस्तान में अंदर घुसकर शकरगढ़ के ‘चक अमरू’ रेलवे स्टेशन पर भारत पर हमले के लिए निकल रहे पाक लाव-लश्कर पर धावा बोलकर पाक सेना की मसूबाबंदी को वहीं दफन करके दुश्मन की पूरी तजवीज को मातम में तब्दील कर दिया था।

‘22 पंजाब’ के उस सैन्य दल का नेतृत्व हिमाचली सपूत मेजर ‘गुरदेव सिंह जसवाल’ ने किया था। विपरीत परिस्थितियों में रात के सन्नाटे को चीरते हुए दुश्मन पर उस आक्रामक सैन्य अभियान के दौरान शत्रु सेना की भीषण गोलीबारी में मेजर गुरदेव जसवाल वीरगति को प्राप्त हो गए थे, लेकिन शहादत से पहले उन्होंने अपने सैनिकों के साथ पाक सेना को धूल चटाकर ‘चक अमरू’ पर कब्जा करके तिरंगा फहरा दिया था। रणक्षेत्र में दुश्मन के समक्ष अदम्य साहस व उत्कृष्ट सैन्य नेतृत्व के लिए मेजर गुरदेव सिंह जसवाल को ‘वीर चक्र’ (मरणोपरांत) से अलंकृत किया गया था। 1971 के युद्ध में चीन व अमरीका जैसे देशों सहित कई अन्य मुल्कों ने भी पाकिस्तान के पक्ष में हमदर्दी व समर्थन की हिमायत की थी। मगर भारतीय सेना के तत्कालीन जनरल ‘सैम मानेकशॉ’ व पूर्वी पाकिस्तान में भारतीय सेना के कमांडर ले. जन. ‘जगजीत सिंह अरोड़ा’ (पंजाब रेजिमेंट) की कुशल रणनीति तथा भारतीय सेना के शिद्दत भरे पलटवार के आगे पूर्वी पाकिस्तान में पाक सेना की कयादत कर रहे ले. जन, ‘आमीर अब्दुल्ला नियाजी’ की सेना युद्ध में हुई तबाही के मंजर से खौफजदा होकर मात्र 13वें  दिन  ही घुटनों के बल बैठ गई। इसके अलावा उनके पास कोई विकल्प नहीं था। 16 दिसंबर 1971 के दिन बांग्लादेश में ढाका का ‘रामना रेसकोर्स मैदान’ भारत की उस ऐतिहासिक विजय का चश्मदीद गवाह बना जब 93 हजार पाक सैनिकों ने भारतीय सेना के समक्ष अपने हथियार डाल दिए और जनरल नियाजी ने सरेंडर के दस्तावेज पर दस्तखत कर दिए। इसके बावजूद पूर्वी पाक का बांग्लादेश में इलहाक हुआ। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद किसी भी शत्रुसेना का यह दूसरा बड़ा आत्मसमर्पण था। उस सरेंडर की जिल्लतभरी तस्वीरों पर पाकिस्तान की बदनसीब पुश्तें अपनी नामुराद सेना को आज तक कोस रही हैं। 1971 के युद्ध की तम्हीद तैयार करने वाले पाक सुल्तानों को हिंदोस्तान की अजीम सियासी लीडर इंदिरा गांधी जी के महिला नेतृत्व को कमतर आंकना भारी जहालत साबित हुआ। 13 दिनों के युद्ध के परिणाम ने दुनिया की कई ताकतों को भारतीय सेना की कैफियत व सलाहियत का पैगाम देकर तस्दीक कर दी कि राष्ट्र के स्वाभिमान के लिए भारतीय सेना सरहदों की बंदिशों को तोड़ने में परहेज नहीं करेगी।

 1947-48 व 1965 तथा 1971 के युद्धों के नतीजों से फजीहतों का सामना कर रहे पाक सिपाहसलारों को एहसास हो गया कि पाक सेना प्रत्यक्ष युद्ध में भारतीय सेना के सामने कभी नहीं टिकेगी। इसलिए युद्धों में अपने दामन पर लगे शर्मनाक शिकस्त के बदनुमा दाग छुपाने के लिए पाक सेना ने दहशतगर्दी का सरपरस्त बनकर छद्म युद्ध को अपनी सैन्य रणनीति का हिस्सा बना लिया। बहरहाल 1971 की निर्णायक जंग में पाक सेना से लोहा लेकर हिमाचल के 195 रणबांकुरों ने अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया था जिनमें 27 शहीद जांबाजों का संबंध जिला बिलासपुर से था। लेकिन खेद की बात है कि जंगबंदी के बाद भारत ने 1972 में शिमला समझौते के तहत हिरासत में लिए गए 93 हजार पाक युद्धबंदियों को रिहा कर दिया, मगर युद्ध में पाकिस्तान द्वारा बंदी बनाए गए 54 भारतीय सैनिकों को रिहा करवाने के मुद्दे पर तवज्जो नहीं दी गई। 1971 के उन्हीं युद्धबंदियों में हिमाचल के शूरवीर मेजर ‘सुभाष चंद गुलेरी’ (9 जाट) भी शामिल थे। उन्होंने 1971 युद्ध में अपनी पलटन के साथ छम्ब जोडि़यां सेक्टर में भाग लिया था। उन ‘मिसिंग 54’ की रिहाई के लिए उनके परिवार व देश के पूर्व सैनिक तथा कई अन्य संगठन आवाज उठाते आ रहे हैं।

अतः सरकारों को इस विषय पर गौर फरमाना होगा। आखिर पाक फौज के सितम व बर्बरता से हिजरत पर मजबूर हुई पूर्वी पाक की आवाम का अपने मुल्क की आजादी की मुद्दतों की मुराद भारतीय रणबांकुरों ने 16 दिसंबर 1971 को पाकिस्तान को तकसीम करके पूरी कर दी। इसलिए जश्ने आजादी मना रही बांग्लादेशी आवाम व हुक्मरानों को याद रखना होगा कि बांग्लादेश की बुनियाद भारतीय सैन्यशक्ति की रक्तरंजित कुर्बानियों पर खड़ी हुई थी। लाजिमी है बांग्लादेश अपने इतिहास में भारत के उन तमाम शहोदाओं के नाम पूरी अकीदत से अंकित करे जिनकी बेमिसाल बहादुरी से दुनिया के मानचित्र पर बांग्लादेश वजूद में आया। विजय दिवस के अवसर पर राष्ट्र 1971 के योद्धाओं को शत-शत नमन करता है। भारत व बांग्लादेश उन मुहाफिजों के सदैव ऋणी रहेंगे।