सेना और प्रधानमंत्री : कर्नल (रि.) मनीष धीमान, स्वतंत्र लेखक

हर देश के प्रधानमंत्री और सेना में एक अनूठा रिश्ता है। कई देशों में प्रधानमंत्री सेना के सर्वोच्च कमांडर होते हैं। भारत में यह अधिकार महामहिम राष्ट्रपति को दिया गया है। भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी भी सेना के साथ अत्यधिक लगाव का परिचय देते हुए लगभग हर महत्त्वपूर्ण त्योहार सैनिकों के साथ मनाने की कोशिश करते हैं। अतीत से ही भारत के हर प्रधानमंत्री का सेना के साथ एक विशेष रिश्ता रहा है। दूसरे विश्व युद्ध के दौरान भारतीय सेना ब्रिटिश साम्राज्य के झंडे के नीचे लड़ी थी और युद्ध के बाद जब हर सेना की खूबियों और कमियों का आकलन किया गया तो भारतीय सैनिकों को विश्व की हर सेना से ताकतवर माना गया।

उस वक्त भारतीय सैनिकों ने हथियारों और आधारभूत सुविधाओं के न होते हुए भी दुनिया के जिस मोर्चे पर रखा गया, उन्होंने हर जगह अपने साहस और जांबाजी के साथ विजय हासिल की। आजादी के बाद इस तरह की पारंगत और सक्षम सेना के साथ भारत के पहले प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू बहुत आश्वस्त दिखे और उस वक्त उन्होंने विश्व में चल रहे दो गुटों को नकार कर नॉन एलाइनमेंट ट्रीटी को अपनाते हुए किसी भी देश से युद्ध न करने की विदेश नीति को अपनाने पर जोर दिया। उनका मानना था कि युद्ध करने से किसी का भी फायदा न होकर उल्टा नुक्सान ही होता है। उनका यह भी मानना था कि दुनिया के हर मुल्क के साथ प्यार से रहने की अगर नीति बनाई जाए तो कोई भी देश आप से युद्ध नहीं करना चाहेगा। इसी नीति के अंतर्गत उन्होंने सेना पर होने वाले खर्च को कम करके सेना की संख्या में कटौती करके उस पैसे को देश की आधारभूत सुविधाओं में लगाने का निर्णय लिया जो कि उस समय के हिसाब से ठीक था, पर समय के साथ सेना पर उचित ध्यान न देने के कारण सेना कमजोर हुई और उसका खामियाजा हमें 1962 में चीन के साथ हुए युद्ध में भुगतना पड़ा।

अपनी भूल में सुधार करते हुए नेहरू जी ने 62 के बाद सेना को दोबारा से सशक्त करने की योजना बनाई, जिसे उनके बाद भारत के हर प्रधानमंत्री चाहे वह शास्त्री जी, इंदिरा जी, राजीव जी, नरसिम्हा राव जी, अटल जी और मनमोहन सिंह, सबने जारी रखा और इसका परिणाम हमें 1965, 1971 और उसके बाद कारगिल युद्ध में देखने को मिला। यूं तो भारत के मौजूदा प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी हर मुद्दे पर सेना का प्रोत्साहन बढ़ाते हैं, पर शायद  मित्रता का पैगाम लेकर विश्व भ्रमण करने से उन्हें भी नेहरू जी की तरह लगने लगा है कि कोई भी देश भारत से युद्ध नहीं करना चाहेगा और सेना के खर्च में कटौती करके उस पैसे को आधारभूत उत्थान के लिए लगाया जा सकता है। पिछले छह साल से सेना के प्रति बन रही नीतियां चिंताजनक हैं। प्रधानमंत्री जी को अतीत से सबक लेते हुए तथा चीन, नेपाल एवं पाकिस्तान के मंसूबों को समझते हुए इन नीतियों को बदलना चाहिए। हमें यह समझना पड़ेगा कि किसी भी देश की तरक्की के लिए उसकी सीमाओं का सुरक्षित होना अति आवश्यक है। इस बात को ध्यान में रखते हुए सेना को सुदृढ़ रखना ज्यादा जरूरी है। यही हमारी नीति होनी चाहिए।