कृषि कानूनों का विरोध जायज नहीं: प्रवीण कुमार शर्मा, सतत विकास चिंतक

कृषि कानूनों के संदर्भ में प्रदेश में विपक्ष भी भ्रमित नजर आ रहा है। इन कानूनों के किसी भी एक प्रावधान को गलत सिद्ध करने के बजाय वह भविष्य में होने वाले नुक्सान की आशंकाओं के कारण अगर विरोध कर रहे हैं तो ऐसा करके वह सिर्फ और सिर्फ पांव पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं। क्योंकि वह भूल रहे हैं कि जिन कानूनों का आज वह विरोध कर रहे हैं, वह पूर्व कांग्रेस सरकारों द्वारा प्रदेश में पहले ही लागू किए जा चुके हैं…

संसद द्वारा पारित कृषि कानून हिमाचल प्रदेश के किसानों के लिए कितने सार्थक हैं और इनके लागू होने से किसानों के साथ प्रदेश के आढ़ती और राज्य विपणन बोर्ड के हित कितने प्रभावित होंगे, इस बात की समीक्षा करने से पूर्व हमें किसानों की स्थिति के अवलोकन की आवश्यकता है। राज्य में कृषि भूमि केवल 10.4 प्रतिशत है।  954651 हेक्टेयर  की यह भूमि  960765 जोतों में बंटी हुई है। इसमें  70 फीसदी किसान परिवारों के पास एक हेक्टेयर (लगभग 6 बीघा) से कम भूमि है। अगर इसमें दो हेक्टेयर से कम भूमि वालों को भी जोड़ लिया जाए तो यह संख्या 88 प्रतिशत तक पहुंच जाती है। 60 बीघा से ज्यादा कृषि योग्य जमीन धारक किसानों की संख्या मात्र 3270 ही है। ऐसे में उपज का विक्रय तो दूर, इतनी कम जमीन पर किसान अपने लिए ही अनाज उत्पादित कर पाता है।

छोटी भूमि जोतों पर अधिक उत्पादन आधुनिक कृषि तकनीक से ही संभव है। किसान और प्रदेश सरकार की वर्तमान वित्तीय स्थिति ऐसी नहीं  है कि वह आधुनिक तकनीक के संयंत्रों पर निवेश कर सके। ‘कृषि (सशक्तिकरण और संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा करार कानून से निजी कंपनियों का कृषि क्षेत्र में निवेश का रास्ता खुल गया है।  निवेश के चलते प्रदेश का किसान फल, फूल और सब्जी के उत्पादन में वैश्विक मापदंडों को छू पाने में सक्षम हो पाएगा। किसान कंपनियों के चंगुल में न फंसे, इसके लिए इस कानून में पर्याप्त प्रावधान भी किए गए हैं। अतः हम कह सकते हैं कि यह कानून प्रदेश के किसानों के लिए वरदान ही साबित होगा। दूसरा महत्त्वपूर्ण कृषि कानून है कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) कानून। इस कानून के तहत  अब किसान सरकारी मंडियों के अतिरिक्त कहीं भी और किसी को भी अपनी फसल विक्रय कर सकता है। प्रदेश के किसानों को यह सुविधा पहले से ही उपलब्ध है। वह फलों और सब्जियों को  व्यापारियों और अन्य राज्यों में बेचता रहा है। अब अतिरिक्त फायदा उसे मिलेगा कि अब उसे विपणन बोर्ड द्वारा लगाए जाने वाले नाकों का सामना नहीं करना पड़ेगा।

आवश्यक वस्तु संशोधन कानून किसानों के साथ आम जनमानस को भी प्रभावित करेगा। जनमानस पर पड़ने वाले प्रभावों के तर्क-वितर्क पर न जाते हुए अगर हम सिर्फ  प्रदेश के किसानों की बात करें तो यह  कानून किसानों को अपने उत्पादों के संग्रह की सुविधा भी देता है। प्रदेश में उत्पादित फसलों का संग्रहण करके यदि किसानों को अच्छे दाम मिलते हैं तो यह कानून उनके लिए फायदे का ही सौदा होगा। एक अन्य विषय ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य’ (एमएसपी) है। प्रदेश विपणन बोर्ड ने 136 कृषि उत्पादों को विपणन की दृष्टि से अधिसूचित किया है, पर बोर्ड की मंडियों में अधिकतर विपणन फल एवं सब्जियों का ही होता है। हिमाचल में सेब, आम व नींबू प्रजाति के फलों पर क्रमशः 8, 8 व 6 रुपए एमएसपी निर्धारित है। इस पर भी एचपीएमसी की मुश्किल यह है कि इस मूल्य पर भी उसे फल उपलब्ध नहीं होते हैं क्योंकि खुले बाजार में इन फलों के दाम निर्धारित समर्थन मूल्यों से कहीं अधिक हैं। हालत यह है कि पिछले 25 वर्षों में एचपीएमसी आम नहीं खरीद पाया और इस वर्ष  लगभग 4 लाख टन सेब की उपज में से भी मात्र 25000 टन सेब ही एचपीएमसी तक पहुंच पाया। बाजार में  किसानों की सीधी पहुंच के चलते एमएसपी प्रदेश में अप्रासंगिक होकर रह गया है।

आढ़तियों पर पड़ने वाले असर की दृष्टि से इस कानून को देखा जाए तो लगभग 1100 लोग फल व सब्जियों की आढ़त से जुड़े हुए हैं। 5 फीसदी कमीशन के साथ कार्य कर रहे आढ़तियों की औसतन वार्षिक आय 12 से 15 लाख रुपए के बीच में है। किसानों की मेहनत की कमाई का 150-200 करोड़ रुपए से अधिक आढ़त के रूप में चला जाता है। जबकि इस धंधे के जानकारों का मानना है कि आयकर से बचने के लिए मात्र 60 फीसदी  कारोबार की ही लिखा-पढ़त की जाती है। वास्तव में यह रकम बहुत अधिक है। नए कानून के बाद भी आढ़तियों के हित सुरक्षित रहेंगे। जब तक एपीएमसी  की मंडियां हैं, तब तक आढ़तियों का अस्तित्व बना रहेगा। दूसरा प्रदेश के किसानों के पास पहले से ही अपनी उपज को बोर्ड की मंडियों या फिर सीधे बाहरी व्यापारियों के पास बेचने का विकल्प उपलब्ध है और लंबे समय से इस व्यवस्था के होने के बाद भी अगर आढ़तियों के कारोबार पर कोई फर्क नहीं पड़ा है तो निश्चित मानिए कि यह व्यवस्था बिना किसी परिवर्तन के यूं ही चलती रहेगी। बहुत हद तक परिवर्तन यह होगा कि बाद में यही आढ़ती निजी कंपनियों के एजेंट बन जाएंगे।

नए कृषि कानूनों से सबसे ज्यादा घाटे में हि. प्र. राज्य कृषि विपणन बोर्ड रहेगा। 10 मुख्य मंडियों, 49 उपमंडियों और 32 फल एवं सब्जी संग्रह  केंद्रों के एक मजबूत ढांचे के माध्यम से 4000 करोड़ रुपए से अधिक का कारोबार होता है। बोर्ड को मंडी शुल्क, किराया, लाइसेंस फीस  सहित कुछ अन्य मदों से 55 से 60 करोड़ रुपए आय प्रतिवर्ष होती है, जिसमें 20 करोड़ के लगभग आय  एपीएमसी  की मंडियों में  लगने वाले एक प्रतिशत शुल्क से  होती है।  इस आय पर शायद ही कोई फर्क पड़ेगा क्योंकि सामानांतर व्यवस्था होने के बाद किसानों का विश्वास इन मंडियों पर बना हुआ है। मंडियों के बाहर शुल्क लगाने का अधिकार न रहने के कारण मार्केटिंग बोर्ड को 18 से 20 करोड़ रुपए की आय से हाथ धोना पड़ेगा। कृषि सुधार कानूनों के लागू होने से प्रदेश सरकार की आय में तो कमी आएगी ही, पर अगर समय रहते इस समस्या के समाधान हेतु कदम न उठाए गए तो कर्मचारियों सहित मार्केटिंग बोर्ड के भविष्य के ऊपर भी तलवार लटकी रहेगी।

कृषि कानूनों के संदर्भ में प्रदेश में विपक्ष भी भ्रमित नजर आ रहा है। इन कानूनों के किसी भी एक प्रावधान को गलत सिद्ध करने के बजाय वह भविष्य में होने वाले नुक्सान की आशंकाओं के कारण अगर विरोध कर रहे हैं तो ऐसा करके वह सिर्फ और सिर्फ पांव पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं। क्योंकि वह भूल रहे हैं कि जिन कानूनों का आज वह विरोध कर रहे हैं, वह पूर्व कांग्रेस सरकारों द्वारा प्रदेश में पहले ही लागू किए जा चुके हैं। इसलिए सिर्फ  विरोध के लिए विरोध की राजनीति किसान हित में नहीं है।