लावारिस पशुओं की समस्या का निदान जरूरी

इसके अतिरिक्त कच्ची घानी तेल की पैदावार करने के लिए बैलों पर आधारित ऑयल मिल स्थापित करने के लिए अनुदान दिया जाना चाहिए, जिससे गांवों में दिन-प्रतिदिन बढ़ती बेरोजगारी की समस्या का भी समाधान होगा। जो युवा किसान बैलों पर आधारित कृषि बिजाई का कार्य करना चाहते हैं, उन्हें मनरेगा के अंतर्गत कार्य दिवस के आधार पर रोजगार का प्रावधान किया जाना चाहिए। जब हम पुनः बैलों से खेती करेंगे तो निश्चित तौर पर पूरी भूमि की बिजाई होगी तथा खेती योग्य क्षेत्र की वृद्धि होगी। आवारा पशुओं के अतिरिक्त जंगली जानवर जैसे नील गाय, सुअर, बंदर भी किसानों की फसल को नुकसान पहुंचा रहे हैं। ये जंगली जानवर सरकारी वन क्षेत्रों से रात को साथ लगती खेती को नष्ट करते हैं…

हिमाचल प्रदेश को भारत के नक्शे पर कृषि आधारित राज्य के तौर पर जाना जाता है। आज भी राज्य के सकल घरेलू उत्पाद यानी नेट स्टेट डोमेस्टिक प्रोडक्ट का 45 प्रतिशत कृषि से आता है। कृषि क्षेत्र अभी भी प्रदेश के लोगों को रोजगार प्रदान कर रहा है जिसमें 71 प्रतिशत रोजगार कृषि से प्राप्त हो रहा है। हिमाचल प्रदेश में इस समय 9.61 लाख किसान हैं जिनमें 6.70 लाख किसान सीमांत किसान हैं जिनकी लैंड होल्डिंग 1.0 हेक्टेयर तक है। सीमांत व छोटे किसानों की संख्या कुल किसानों का 88 प्रतिशत है। सीमांत व छोटे किसान अपनी खेती पर कार्य मशीनरी यानी ट्रैक्टर द्वारा बिजाई करवा रहे हैं जिसमें प्रति फसल बिजाई पर 3000-4000 रुपए बिजाई तथा 2000-3000 रुपए फसल हार्वेस्टिंग पर खर्च करना पड़ता है। इसके अतिरिक्त प्रदेश में दिन प्रतिदिन आवारा पशुओं की संख्या बढ़ती जा रही है। प्रत्येक गांव में 25-30 आवारा पशु हैं जिसमें ज्यादातर बैल हैं। आवारा पशुओं के अतिरिक्त जंगली पशु जैसे, नील गाय (सांबर) भी बड़ी संख्या में खेती को नुकसान कर रहे हैं। सीमांत किसान को अपनी फसल की रक्षा करने के लिए अब अतिरिक्त खर्चा करना पड़ रहा है।

इन सब खर्चों से कृषि लागत बढ़ रही है। आवारा पशुओं का गांवों में इतना डर है कि शाम को हरा-भरा खेत सुबह खाली मिलता है जिससे अब धीरे-धीरे ज्यादातर किसानों ने अपनी जमीन खाली रखना शुरू कर दिया है। आज हिमाचल प्रदेश के निचले जिला क्षेत्रों के किसान निराशा के दौर से गुजर रहे हैं। खेत पर बिजाई करें तो आवारा पशुओं द्वारा नुकसान होने से प्रति फसल उलटा 7000-10000 रुपए नकद नुकसान झेलना पड़ रहा है।  सरकार द्वारा उठाए गए कदम अभी कारगर सिद्ध नहीं हो रहे हैं। जहां तक इस समस्या का कारण है, इसमें बैलों द्वारा कृषि करना बंद करना ही मुख्य कारण है। 70 के दशक तक प्रदेश में प्रत्येक सीमांत किसान के पास दो बैल और भैंस या गाय होती थी जिससे बैल द्वारा खेती बिजाई पानी की सप्लाई रहने से तथा हार्वेस्टिंग का कार्य बैलों से ही किया जाता था।

अब किसी भी गांव में बैलों से खेती नहीं की जाती है तथा पालतू गाय जब तक दूध देती है तब तक रखी जाती है जिससे आवारा पशुओं की समस्या पैदा हो गई है। आज अगर सरकार जीरो बजट खेती या जैविक खेती को बढ़ावा देना चाहती है तो पुनः पारंपरिक खेती को बढ़ावा देना होगा। सरकार को बैलों पर आधारित खेत वाले किसानों को गोशाला बनाने पर सबसिडी देनी शुरू करनी चाहिए तथा ग्रामीण क्षेत्रों में पुरानी ऑयल मिल स्थापित (जो कि बैलों पर आधारित होगी) को प्रोत्साहन देना चाहिए जिससे युवाओं को रोजगार के अवसर पैदा होंगे। प्रत्येक गो सदन को मैसेज योजना से लिंक किया जाना चाहिए जिसमें बायो फर्टिलाइजर ऑयल मिल वर्मी कंपोस्ट इत्यादि गतिविधियां इंटेगे्रटेड तौर पर की जानी चाहिए।

इसके अतिरिक्त कच्ची घानी तेल की पैदावार करने के लिए बैलों पर आधारित ऑयल मिल स्थापित करने के लिए अनुदान दिया जाना चाहिए, जिससे गांवों में दिन प्रतिदिन बढ़ती बेरोजगारी की समस्या का भी समाधान होगा। जो युवा किसान बैलों पर आधारित कृषि बिजाई का कार्य करना चाहते हैं, उन्हें मनरेगा के अंतर्गत  कार्य दिवस के आधार पर रोजगार का प्रावधान किया जाना चाहिए। जब हम पुनः बैलों से खेती करेंगे तो निश्चित तौर पर पूरी भूमि की बिजाई होगी तथा खेती योग्य क्षेत्र की वृद्धि होगी। आवारा पशुओं के अतिरिक्त जंगली जानवर जिसमें नील गाय (सांबर), सुअर, बंदर भी किसानों की फसल को नुकसान पहुंचा रहे हैं। ये जंगली जानवर सरकारी वन क्षेत्रों से रात को साथ लगती खेती को नष्ट करते हैं। इस समस्या पर काबू पाने के लिए वन विभाग को सरकारी वनों की तारबंदी पूर्ण रूप से करनी होगी। शून्य लागत खेती का जहां तक प्रश्न हो, इसके लिए हमें किसानों को खेती करने के लिए पारंपरिक इनपुट्स जिसमें बैलों से बिजाई, देशी खाद, बैलों से हार्वेस्टिंग करना अनिवार्य होगा। हिमाचल प्रदेश में शून्य लागत खेती को पुनः जागृत करने में भूतपूर्व राज्यपाल महोदय ने काफी प्रयास किया जिससे शून्य लागत खेती का कांसेप्ट किसानों को बताया गया जिसे मशीनीकरण ने खत्म कर दिया था।

उपरोक्त तथ्यों को मद्देनजर रखते हुए यदि प्रदेश सरकार आवारा पशुओं की समस्या का हल अगर करना चाहती है तो निश्चित तौर पर पारंपरिक खेती की तरफ कदम बढ़ाने होंगे जिससे सीमांत लैंड होल्डिंग वाले किसान पुनः अपने खेत-खलिहान निश्चिंत होकर पुनः कृषि कार्य में रुचि लेना शुरू करेंगे तथा घरेलू कृषि उत्पादन में वृद्धि होगी। इस संबंध में कृषि विभाग, ग्रामीण विकास विभाग और पंचायत स्तर पर कार्ययोजना बनानी पड़ेगी, जिसमें किसान प्रतिनिधियों को भी सम्मिलित किया जाना चाहिए। इस समस्या के निदान में जनसहभागिता की भी जरूरत है। लोगों को इसमें सहयोग करना चाहिए।