भावना को ठेस पहुंची

गणतंत्र दिवस की बेला पर उग्र किसानों द्वारा राष्ट्रीय ध्वज के समक्ष किसी धर्म विशेष का झंडा फहराए जाने की घटना से लोगों की भावनाओं को ठेस पहुंची है। विदेशों में राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा फहराकर सम्मान किया गया, मगर यह कितने दुर्भाग्य की बात है कि अपने देश में उग्र किसानों ने गौरव के इस प्रतीक का अपमान करने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी। 60 दिन तक शांतिमय ढंग से आंदोलन करने वाले किसानों को भरपूर समर्थन मिला, मगर गणतंत्र दिवस की घटना से देश की जनता ऐसे उग्र किसानों के खिलाफ हो चुकी है। किसान आंदोलन की आड़ में जान-माल को हानि पहुंचने सहित देश की प्रतिष्ठा भी कलंकित हुई है। सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाने की भरपाई दिल्ली और केंद्र सरकारें किसान नेताओं से करें। लोकतांत्रिक  व्यवस्था में जिस विधेयक को राज्यसभा और लोकसभा में पूर्ण बहुमत मिलता है, वह कानून बन जाता है। संसद की ओर से पारित किए कानून का सम्मान करना प्रत्येक नागरिक का दायित्व बनता है। केंद्र सरकार का काम कानून बनाना और राज्य सरकारों का काम उन कानूनों का पालन करवाना है। किसी कानून को रद्द किए जाने का सीधा मतलब है   संसद की मर्यादा का उल्लंघन करना। कानूनों में संशोधन भी संसद ही कर सकती है। केंद्र सरकार अगर इस विधेयक का प्रस्ताव प्रक्रिया अनुसार रखती तो कभी इसे बहुमत नहीं मिल सकता था। यही एक मात्र वजह है कि किसान अडानी और अंबानी को इन कानूनों का लाभ पहुंचाने का आरोप केंद्र सरकार पर जड़ रहे हैं।

 दिल्ली में चल रहे आंदोलन में किसान कम और नेता अधिक होने की वजह से इस समस्या का कोई समाधान नहीं निकल पाया है। केंद्र सरकार कृषि कानूनों को डेढ़ साल तक होल्ड रखकर किसानों की शंकाएं दूर किए जाने का सुझाव भी दे चुकी थी। किसान नेता सरकार के इस प्रस्ताव पर सहमति भी जता चुके थे। मगर इसके बावजूद किसान नेताओं ने मीडिया के समक्ष दावा किया कि वे केंद्र सरकार के प्रस्ताव से असंतुष्ट होकर आंदोलन जारी रखेंगे। किसान नेता देश की सर्वोच्च अदालत और केंद्र सरकार पर अविश्वास जता रहे हैं तो इस आंदोलन का अंत कैसे होगा? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने महामारी के दौरान किसानों के बैंक खातों में पैसे जमा करके उनकी आर्थिक मदद किए जाने का प्रयास किया, मगर किसान उसे भी भूल चुके हैं। आजादी के सात दशक बीत जाने के बावजूद जिन किसानों की आर्थिकी नहीं सुधरी, यह कृषि कानून उनके हित में बनाए गए, ऐसा विश्वास उन्हें दिलाना मुश्किल काम बन चुका है। ऐसा नहीं है कि पूर्व कांग्रेस सरकारों ने किसानों के हित में कुछ नहीं किया। किसानों के कल्याण के लिए कई योजनाएं चलाई गईं, लेकिन किसान आज भी गरीब है। किसानों का गरीबी से मानो घनिष्ठ संबंध बन चुका है। केंद्र सरकार की नई पहल विपक्षी दलों को पसंद न आने की वजह से ही किसान आंदोलन की ज्वाला भड़की है। सरकार और किसान नेताओं की आपसी खींचतान का नतीजा है कि कई भोले-भाले गरीब किसान इस आंदोलन की बलि चढ़ चुके हैं। किसान आत्महत्या किए जाने से भी अब गुरेज नहीं कर रहे हैं जो कि दुखद बात है। अब प्रधानमंत्री ने किसानों को वार्ता का बुलावा भेजा है। किसानों को वार्ता के लिए आगे आकर समस्या को सुलझाना चाहिए।