आत्मनिर्भर किसान और खेती का महत्त्व

गोबर से बायो-गैस बना कर वैकल्पिक ऊर्जा के क्षेत्र में भी आशातीत विकास संभव हो सकता है। बायो-गैस निर्माण को ऊर्जा उद्योग घोषित करके लघु-कुटीर उद्योग के रूप में प्रोत्साहित करना चाहिए, जिसमें खुद किसान ही उद्योग लगा कर लाभान्वित हो सकता है। बड़े पैमाने पर बायो-गैस निर्माण करके उसे सिलेंडर पैक भी किया जा सकता है। इससे निःसंदेह पेट्रोलियम बिल भी कम होगा और बेसहारा पशुधन की समस्या भी हल होगी। बेसहारा पशुधन भी खेती को उजाड़ रहा है और किसान के लिए समस्या बन गया है। ‘बाहरी सामग्री निवेश पर न्यूनतम निर्भरता वाली टिकाऊ खेती’ जैसे कई सफल प्रयोग हो रहे हैं। जैविक कृषि की पद्धतियां विकसित हो रही हैं…

भारतवर्ष में आधे से ज्यादा किसान सीमांत किसान हैं जिनकी जोत एक हैक्टेयर से कम है। कृषि 60 फीसदी के लगभग आबादी को रोजगार दे रही है, अर्थात सीमांत जोत वाले बहुसंख्यक किसानों को लाभकारी बनाना देश में रोजी-रोटी की समस्या के समाधान में बहुत महत्त्वपूर्ण कार्य है। किसानी को लाभकारी बनाने के दो पक्ष हैं। एक पक्ष है कृषि उपज को सही कीमत दिलाना, और दूसरा पक्ष है किसानी की लागत को कम करना। उपज की सही कीमत के लिए किसान संघर्षरत हैं। सरकारें भी अपनी-अपनी समझ के अनुसार इस दिशा में कार्य करती दिखना चाहती हैं, किंतु लागत को कम करने की बात की आज के समय में काफी अनदेखी हो रही है। कृषि ज्यादा से ज्यादा बाहरी सामग्री निवेश (इनपुट) पर निर्भर होती जा रही है।

अंधाधुंध मशीनीकरण ने भी किसानी को एक ओर कम मेहनत वाला बनाया है तो दूसरी ओर अधिक खर्चीला भी बना दिया है। कृषि क्षेत्र की कमाई उद्योग क्षेत्र और ऊर्जा क्षेत्र में चली जा रही है। हालांकि मशीनीकरण की दिशा बैल आधारित करके इसे सस्ता और आत्मनिर्भर बनाया जा सकता है। बैल तो किसान ही पालेगा, इसलिए उसको बेचने और खरीदने का पैसा किसान के ही पास जाएगा। बैल से चलने वाले छोटे-छोटे कृषि उपकरणों को बना कर कृषि को सुविधाजनक भी बनाया जा सकता है। ऐसे उपकरणों के निर्माण में उद्योग जगत को भी कार्य मिलेगा ही। ट्रैक्टर आधारित कृषि छोटे किसान के लिए किसी भी तरह लाभकारी नहीं हो सकती। छोटे किसान के लिए तो ऐसी कृषि पद्धति सही है जिसमें अधिकांश वस्तुएं जो कृषि में लगेंगी, वे किसान की खेती से या वन क्षेत्रों से ही प्राप्त हो जानी चाहिएं। छोटा किसान यदि बैल रखता है तो एक तरफ  उसे कृषि कार्य के लिए ऊर्जा उपलब्ध होगी, दूसरी ओर खेत के लिए खाद भी मिलेगी। गोमूत्र से भी उपयोगी खाद बना कर रासायनिक खादों से मुक्ति पाई जा सकती है जिससे एक ओर रासायनिक खाद पर खर्च बचेगा, तो दूसरी ओर भूमि की उपजाऊ शक्ति का संचय भी होगा।

रासायनिक खादों से भूमि की उर्वरा शक्ति धीरे-धीरे क्षय हो रही है। इसके अलावा रासायनिक स्प्रे से बीमारी नियंत्रण भी खतरनाक सीमा तक स्वास्थ्य के लिए हानिकारक सिद्ध हो रहा है और खर्चीला भी। इसलिए रासायनिक और ट्रैक्टर निर्भर मशीनी खेती को बैल आधारित तकनीकों और जहां तक संभव हो, वहां तक हर्बल दवाइयों के विकास के आधार पर स्वावलंबन और आत्मनिर्भरता की ओर मोड़ना चाहिए, जिससे छोटे किसान को खेती के लिए कर्ज लेने की जरूरत ही न पड़े। जैसे-जैसे खेती आत्मनिर्भर बनेगी, किसान का लाभ बढ़ता जाएगा और खेती से इतर अन्य घरेलू जरूरतों के लिए भी कर्ज की मजबूरियां कम होती जाएंगी। बैल से खेती को पिछड़ा न माना जाए, बल्कि पर्यावरण-मित्र, जलवायु नियंत्रण में सहयोगी, स्वास्थ्य-मित्र मानकर प्रोत्साहित किया जाए। ट्रैक्टर की तरह ही बैल पालन पर सबसिडी दी जाए।

गोबर से बायो-गैस बना कर वैकल्पिक ऊर्जा के क्षेत्र में भी आशातीत विकास संभव हो सकता है। बायो-गैस निर्माण को ऊर्जा उद्योग घोषित करके लघु-कुटीर उद्योग के रूप में प्रोत्साहित करना चाहिए, जिसमें खुद किसान ही उद्योग लगा कर लाभान्वित हो सकता है। बड़े पैमाने पर बायो-गैस निर्माण करके उसे सिलेंडर पैक भी किया जा सकता है। इससे निःसंदेह पेट्रोलियम बिल भी कम होगा और बेसहारा पशुधन की समस्या भी हल होगी। बेसहारा पशुधन भी खेती को उजाड़ रहा है और किसान के लिए समस्या बन गया है। ‘बाहरी सामग्री निवेश पर न्यूनतम निर्भरता वाली टिकाऊ खेती’ जैसे कई सफल प्रयोग हो रहे हैं। जैविक कृषि की कई पद्धतियां विकसित हो रही हैं। आवश्यकता है उन्हें प्रोत्साहित करने और वैज्ञानिक रूप से सिद्ध करने की, ताकि प्रगति सुनिश्चित और टिकाऊ बन सके। कई प्रदेशों में इस दिशा में कार्य भी शुरू हुआ है, उसका अनुदर्शन और प्रचार-प्रसार होना चाहिए। तुलनात्मक आंकड़े संग्रह करके परिणाम सिद्ध किए जाने चाहिए, ताकि किसी भी नए इच्छुक को भय न लगे और पद्धति का मानकीकरण किया जा सके।

सभी कृषि विश्वविद्यालयों में इस दिशा में शोध, उपकरण विकास और प्रशिक्षण कार्य आरंभ होने चाहिएं। इस कृषि के लिए भारतीय मूल की नस्लों का बड़ा महत्त्व माना गया है। इसलिए देसी साहिवाल, थारपारकर, सिंधी, गीर आदि नस्लों को पुनर्जीवित और संवर्धन का कार्य किया जाना चाहिए, जो दूध भी अच्छा देती हैं। इन नस्लों के दूध में यूरोपीय नस्लों के मुकाबले अधिक गुणवत्ता है और स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हिस्टेडीन जैसे पदार्थों का अभाव है। भारत की पारंपरिक कृषि पद्धति इसी दिशा में थी, इसलिए किसान को अपनी भूली परंपरा को विकसित करने में ज्यादा परेशानी नहीं होनी चाहिए, यदि इसे वैज्ञानिक आधार पर मानकीकरण करते हुए प्रचारित किया जाए। कई संगठन इसके लिए कार्यरत हैं। उनके अनुभव भी प्रयोग किए जाने चाहिए। सबसे जरूरी बात है छोटे किसानों के ऐसे संगठन जो इन प्रयोगों को अपने भविष्य के लिए मार्गदर्शक मानकर कार्यरत हों और आत्मनिर्भर टिकाऊ कृषि को अपने आत्म-सम्मान के साथ जोड़ कर देख सकते हों।