क्रांतिकारी बदलाव की आहट है यह कानून

संस्था के निदेशक जितेंद्र वर्मा का कहना है कि अधिकारियों का यह कहना तर्कसंगत नहीं है कि इस कानून से अवैध कब्जों की प्रवृत्ति बढ़ेगी क्योंकि एफआरए में बिल्कुल स्पष्ट है कि जिस भूमि पर वर्ष 2005 से पहले का कब्जा है, उन्हीं दावों को स्वीकृतियां मिलेंगी, बाद का कोई भी दावा मान्य नहीं होगा…

वन अधिकार अधिनियम 2006 हिमाचल प्रदेश में एक ऐसे वृक्ष की तरह है जो अपनी संपूर्णता के साथ तो खड़ा हुआ है, पर फल देने में असमर्थ है। साधारण शब्दों में कहें तो  ‘वन अधिकार अधिनियम’ एक जनवरी 2008 से  प्रदेश में लागू है और इसका आधारभूत ढांचा भी खड़ा हो चुका है, पर  प्रदेश की जनता इस कानून के लाभों से अभी तक वंचित है। इस कानून के पक्षधरों का मानना है कि इसके प्रावधानों के लागू होने से जनजातीय क्षेत्र के निवासियों के साथ-साथ परंपरागत वन निवासी (ओटीडीएफ) श्रेणी के लोगों के जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन आएगा, वहीं दूसरे पक्ष का कहना है कि प्रदेश की अमूल्य वन संपदा के लिए इससे अधिक घातक कानून कोई और नहीं हो सकता है। किसी भी निष्कर्ष पर पहुंचने से पूर्व हमें इस कानून को समझना होगा।

‘वन अधिकार अधिनियम’ (एफआरए) जनजातीय व ओटीडीएफ श्रेणी के समुदाय जो वनों पर आश्रित हैं, वनभूमि में उनके पारंपरिक अधिकार को मान्यता दिलाता है। कानून को समझने के लिए इसे पात्रता, अधिकार व प्रक्रिया के तहत विभक्त कर सकते हैं। इस कानून के तहत वो लोग पात्र हैं जो वनों में रहते हैं या जीविका के लिए वन या वन भूमि पर निर्भर हैं। इन पात्र व्यक्तियों को यह साबित करना होता है कि वह अनुसूचित जनजाति से हैं या फिर पिछली तीन पीढि़यों (75 वर्ष) से परंपरागत रूप से वहां निवास कर रहे हैं। उपरोक्त वर्णित दोनों श्रेणियों के व्यक्ति या परिवार को 4 हेक्टेयर (लगभग 50 बीघा) तक वन भूमि के उपयोग का अधिकार  इस कानून के तहत मिलता है, बशर्ते उस भूमि पर उनका कब्जा 13 दिसंबर 2005 से पूर्व का हो। इसके साथ वन संसाधनों के संरक्षण, लघु वन उत्पाद, जल निकायों, चरागाहों के उपयोग व वन्य जीवन के संरक्षण का अधिकार सामुदायिक तौर पर मिलता है।

एफआरए के तहत वन भूमि पर अधिकार के लिए व्यक्तिगत या सामुदायिक दावों को स्वीकार किया जाता है। इसके लिए तीन स्तरीय समितियों का गठन किया गया है। सबसे पहले  मुहाल स्तर पर वनाधिकार समिति (एफआरसी)  जिसका गठन ग्राम सभा द्वारा किया जाता है। दूसरा उपमंडल अधिकारी की अध्यक्षता में उपमंडल स्तरीय समिति (एसडीएलसी) तथा जिलाधीश की अध्यक्षता में  जिलास्तरीय समिति  (डीएलसी)। वन भूमि पर व्यक्तिगत या सामूहिक दावों को एफआरसी के समक्ष रखा जाता है जो जांच के पश्चात इन दावों को ग्रामसभा में प्रस्तुत करती है। ग्रामसभा इन दावों को एसडीएलसी को भेज देती है जो पड़ताल के पश्चात डीएलसी को भेजती है। डीएलसी की स्वीकृति मिलने पर व्यक्ति को उस जमीन का मालिकाना हक मिल जाता है।

वन अधिकार अधिनियम पिछले 13 वर्षों से लागू है। सामुदायिक दावों के तहत  जलविद्युत प्रोजेक्ट, सड़क, सामुदायिक भवन  जैसे कार्यों  में मिली स्वीकृतियों को छोड़ दिया जाए तो व्यक्तिगत दावों के इक्का-दुक्का मामलों में ही एफआरए के तहत स्वीकृति मिली है। व्यक्तिगत दावों की हजारों फाइलें आज भी एसडीएलसी और डीएलसी में घूम रही हैं और यह स्थिति तब है जब इस कानून के तहत सारी प्रक्रिया समयबद्ध है। बावजूद इसके प्रदेश भर में इस कानून के तहत कोई कार्यवाही नहीं की जा रही है। प्रदेश के जनजातीय क्षेत्रों की बात करें तो किन्नौर में एफआरए के प्रति जागरूकता स्पष्ट नज़र आती है। सामुदायिक दावों के विपरीत यहां व्यक्तिगत दावे भी काफी संख्या में किए गए है।  लाहौल-स्पीति के काजा उपमंडल में व्यक्तिगत दावों को स्वीकृतियां मिली हैं, पर चंबा में एफआरए के प्रति जागरूकता का अभाव स्पष्ट नजर आता है। चंबा के  डलहौजी उपमंडल के लक्कड़ मंडी में मिली 53 स्वीकृतियों को अपवाद मान लिया जाए तो  जिला चंबा में भी व्यक्तिगत दावे सरकारी दफ्तरों में धूल फांकते ही नजर आएंगे।

गैर सरकारी संस्था सेंटर फॉर सस्टेनेबल डेवेलपमेंट ने जब प्रदेश में एफआरए की स्थिति को लेकर सर्वेक्षण किया तो पाया कि इस कानून के तहत व्यक्तिगत दावों की स्वीकृतियों के न मिलने का मुख्य कारण प्रदेश के अधिकारियों के बीच इस धारणा का बन जाना है कि प्रदेश में आज के समय में कोई वनवासी (फारेस्ट डवेलर्स) की परिभाषा में नहीं आता है। झारखंड, छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश जैसे राज्यों के लिए तो यह कानून उपयुक्त है क्योंकि वहां पर्याप्त भूमि सुधार नहीं हुए हैं, पर हिमाचल के लिए यह कानून व्यावहारिक नहीं है जहां पहले से ही कृषि सुधार कानून लागू हो चुके हैं, जिनके चलते लोगों को काफी जमीनें मिल चुकी हैं। उनके अनुसार एफआरए को अक्षरशः लागू कर दिया जाता है तो एक तरफ  वनों का विनाश हो जाएगा, दूसरी तरफ अवैध रूप से वन भूमि को कब्जाने की प्रवृत्ति बढ़ेगी। संस्था के निदेशक जितेंद्र वर्मा का कहना है कि अधिकारियों का यह कहना तर्कसंगत नहीं है कि इस कानून से अवैध कब्जों की प्रवृत्ति बढ़ेगी क्योंकि एफआरए में बिल्कुल स्पष्ट है कि जिस भूमि पर वर्ष 2005 से पहले का कब्जा है, उन्हीं दावों को स्वीकृतियां मिलेंगी, बाद का कोई भी दावा मान्य नहीं होगा। उनके अनुसार यह तर्क भी निराधार है कि इस कानून से जंगलों का विनाश हो जाएगा क्योंकि जो लोग कब्जा कर चुके हैं, वे लोग तो उस जमीन को पहले से ही उपयोग में ला रहे हैं, कानूनी स्वीकृति मिलने से उन्हें केवल जमीन का मालिकाना हक ही मिलेगा, भविष्य में वह उस जमीन को बेच नहीं सकते हैं।

प्रख्यात पर्यावरणविद कुलभूषण उपमन्यु का मानना है कि हिमाचल के परिपे्रक्ष्य में इस कानून में कुछ बदलावों की आवश्यकता है। 50 बीघा की सीमा को घटाकर पांच बीघा किया जाना चाहिए। जिस व्यक्ति के पास पहले से पांच बीघा से अधिक जमीन है, उसे इस कानून के तहत जमीन नहीं मिलनी चाहिए। जिन परिवारों के पास पांच बीघा से कम  भूमि है, उनकी जमीन को पांच बीघा तक  पूरा किया जाना चाहिए। व्यक्तिगत अधिकारों के बजाय जंगल पर सामुदायिक अधिकारों पर ज्यादा बल  दिया जाना चाहिए और इस कानून के तहत जंगल पर सामुदायिक प्रबंधन और संरक्षण के अधिकार को अधिक मजबूत किया जाएगा तो न केवल जंगल बचेंगे, बल्कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था को भी मजबूती मिलेगी।