कब मिलेगा अनुसूचित जनजाति का दर्जा

इन मापदंडों के आधार पर जिन समुदायों में आदिम लक्षण, भौगोलिक अलगाव, विशिष्ट संस्कृति, बाहरी समुदायों के साथ संपर्क में संकोच तथा आर्थिक रूप से पिछड़ापन हो उन्हें इस सूची में शामिल करने की सिफारिश की गई है। लेकिन लोकुर समिति द्वारा निर्दिष्ट सभी शर्तों पर खरा उतरने के बाद भी हाटी समुदाय अनुसूचित जनजाति का दजऱ्ा प्राप्त नहीं कर पाया है…

पूर्वजों से विरासत में मिली अमूल्य संस्कृति का संरक्षण और संवर्धन हमारा कर्त्तव्य है। हमारी सुप्राचीन लोक परंपराएं ही हमें विश्व पटल पर पहचान दिलाती हैं। आधुनिकता की दौड़ में गतिशील आज का समाज धीरे-धीरे पुरातन संस्कृति से दूर होता जा रहा है। ग्रामीण परिवेश में भी शहरी चकाचौंध पसरने लगी है। आज के दौर में गांव के लोगों की बोली-भाषा, पहनावा, रीति-रिवाज, खानपान, रहन-सहन और परंपराओं के निर्वहन में पाश्चात्य संस्कृति की झलक स्पष्ट देखी जा सकती है। बावजूद इसके जि़ला सिरमौर का हाटी समुदाय इक्कीसवीं शताब्दी में भी अपनी सांस्कृतिक धरोहर को संरक्षित रखने में सफल रहा है। हिमाचल प्रदेश के जि़ला सिरमौर का गिरीपार क्षेत्र अपनी प्राचीन सांस्कृतिक एवं धार्मिक परंपरा के कारण हमेशा ही चर्चा में रहा है।

 जि़ला सिरमौर का गिरीपार क्षेत्र तथा उत्तराखंड का जौनसार बावर क्षेत्र 1835 ईस्वी तक तत्कालीन सिरमौर रियासत में शामिल थे। माना जाता है कि इन दोनों क्षेत्रों के निवासी एक ही पूर्वज के वंशज हैं। गिरीपार क्षेत्र के निवासियों को हाटी तथा जौनसार बावर क्षेत्र के बाशिंदों को जौनसारा कहकर संबोधित किया जाता है। हाटी और जौनसारा समुदाय के लोगों की परंपराएं, रीति-रिवाज़, भाषा, संस्कृति, आहार-व्यवहार, रहन-सहन, खानपान, मान्यताएं एवं भौगोलिक परिस्थितियां लगभग एक समान हैं। लेकिन अनुसूचित जनजाति आदेश (संशोधन) विधेयक 1967 इन दोनों क्षेत्रों को अलग-अलग मानता है। समान भौगोलिक एवं सांस्कृतिक पृष्ठभूमि वाले इन दोनों क्षेत्रों में से जौनसार बावर इलाके के लोगों को भारत के संविधान ने उनकी पहचान देकर जौनसारा समुदाय को अनुसूचित जनजाति का दजऱ्ा दे दिया, परंतु गिरीपार क्षेत्र का हाटी समुदाय इससे वंचित रह गया। यह समुदाय आज भी विभिन्न मंचों से अपने अस्तित्व को पहचान दिलवाने के लिए आवाज़ उठा रहा है। हाटियों का गिरीपार क्षेत्र प्रदेश के अन्य भागों से अलग-थलग है। इस भूखंड की प्रमुख नदी गिरि इसे सिरमौर के अन्य भागों, शिमला तथा सोलन से पृथक करती है।

 इसके उत्तर में बर्फ  से आच्छादित चूड़धार की चोटी है तथा पूर्व में टौंस नदी इसे उत्तराखंड के जौनसार बावर से अलग करती है। लगभग 1300 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में विस्तृत गिरीपार क्षेत्र जि़ला सिरमौर के कुल क्षेत्रफल के लगभग 45 प्रतिशत भूभाग का प्रतिनिधित्व करता है। गिरीपार क्षेत्र के अंतर्गत तीन तहसीलें संगड़ाह, शिलाई तथा राजगढ़ और तीन ही उप-तहसीलें नौहराधार, रोनहाट व कमरऊ शामिल हैं। यहां की कुल आबादी लगभग पौने तीन से तीन लाख के मध्य है जो जि़ले की कुल आबादी का लगभग 50 फीसदी है। गिरीपार क्षेत्र के निवासियों को हाटी कहकर पुकारा जाता है। ऐतिहासिक स्रोतों और स्थानीय लोगों से प्राप्त जानकारी के अनुसार इस दुर्गम क्षेत्र के लोग अपने खेतों से होने वाली पैदावार को पीठ पर लादकर सीमावर्ती बाज़ारों में जाकर अस्थायी मंडी (हाट) लगाकर बेचा करते थे। इस क्षेत्र के लोग कोई एक दिन निश्चित कर लेते थे और पूरी तैयारी के साथ विक्रय योग्य सामान तथा रास्ते के लिए भोजन बांधकर अपने साथ ले जाया करते थे। इनके क़ाफिले में खच्चर तथा घोड़े भी सामान ढोने के लिए शामिल किए जाते थे। इनमें से कुछ लोग विक्रय के लिए पहले से संचित सोना (हाटक, सोने का संस्कृत नाम) भी ले जाते थे। वे इस सोने को बेचकर आवश्यक वस्तुएं खरीद कर अपने घर लाया करते थे। मैदानी क्षेत्रों के व्यापारी तथा लोग इस अस्थायी हाट लगाने वाले लोगों को हाटी कहकर पुकारा करते थे। जि़ला सिरमौर के मुख्यालय नाहन में जहां यह लोग विश्राम करते थे उस स्थान को हाटी विश्राम तथा जहां पानी पीते थे उस बावड़ी को हाटी बावड़ी कहा जाता था, जिसे आज भी देखा जा सकता है। सदियों से जि़ला सिरमौर अदरक की पैदावार में अग्रणी रहा है। गिरीपार के निवासी अदरक से मूल्यवर्धन उत्पाद सोंठ बनाने में माहिर हैं।

 रियासती काल में यहां के निवासी सोंठ पीठ पर लादकर दिल्ली तथा अन्य मैदानी मंडियों में बेचा करते थे। उस काल में एक मण (40 किलोग्राम) अदरक का मूल्य एक तोला सोना होता था, जिसे हाटक कहा जाता था। उस समय के हाटक आज भी गिरीपार व जौनसारी लोगों के पास सुरक्षित हैं। अपनी फसलों के बदले हाटी समुदाय के लोग वर्ष भर के लिए गुड़, सीरा, कपड़े, नमक इत्यादि अपने घरों के लिए लाया करते थे। हाटी समुदाय विकट परिस्थितियों के बावजूद आज प्रगति के पथ पर अग्रसर है, फिर भी कहीं न कहीं अपने अस्तित्व और पहचान को लेकर चिंतित है। सन् 1967 में उत्तराखंड के जौनसारा समुदाय को भारत सरकार द्वारा अनुसूचित जनजाति घोषित किया गया था, लेकिन समान परिस्थितियां होने के बावजूद हाटी समुदाय इससे वंचित रह गया। जून 1965 में बीएन लोकुर की अध्यक्षता में बनाई गई समिति में किसी भी समुदाय को अनुसूचित जनजाति का दजऱ्ा प्रदान करने के लिए कुछ मापदंड निर्धारित किए गए थे। इन मापदंडों के आधार पर जिन समुदायों में आदिम लक्षण, भौगोलिक अलगाव, विशिष्ट संस्कृति, बाहरी समुदायों के साथ संपर्क में संकोच तथा आर्थिक रूप से पिछड़ापन हो उन्हें इस सूची में शामिल करने की सिफारिश की गई है। लेकिन लोकुर समिति द्वारा निर्दिष्ट सभी शर्तों पर खरा उतरने के बाद भी हाटी समुदाय अनुसूचित जनजाति का दजऱ्ा प्राप्त नहीं कर पाया है। अब इस समुदाय में यही सवाल उभर रहा है कि उन्हें कब यह दर्जा दिया जाएगा।