अंजाम से पहले टूटते चुनावी वादे

सियासी रहनुमा बनना ही सियासत नहीं है। जनता के चुने गए प्रतिनिधियों में समाज को सही दिशा देने तथा सकारात्मक परिवर्तन लाने के लिए खुद मजबूती से फैसले लेने की कूवत भी होनी चाहिए…

हमारे देश में सियासत, मायानगरी तथा क्रिकेट तीनों विषय सबसे ज्यादा चर्चा का केंद्र रहते हैं। तीनों ही प्रोफैशन को देश में सबसे अधिक लोकप्रियता हासिल है। आमजन से लेकर न्यूज चैनलों तक नेता, अभिनेता तथा राजनीति ही बहस का मुद्दा होती है। हालांकि देश सेना व अन्य तमाम सुरक्षा एंजेसियों की निरंतर सतर्कता के बल पर महफूज है। खिलाड़ी विश्व खेलपटल पर पदक जीतकर देश का गौरव बढ़ा रहे हैं। किसान देश की 135 करोड़ आबादी को खाद्य व दुग्ध पदार्थ मुहैया करवा रहे हैं। भयंकर महामारी कोविड-19 से निपटने में डॉक्टर देवदूत साबित हुए हैं। लेकिन देश की लोकंतात्रिक व्यवस्था में हमारे हुक्मरानों को ही सर्वोच्च माना जाता है। देश में कोई अवसर विशेष या किसी युद्ध का विजय दिवस हो, आमतौर पर मुख्य अतिथि हमारे माननीय ही होते हैं। क्रिकेट को ‘जेंटलमैन खेल’ का खिताब हासिल है। सिनेमा को समाज का आईना माना जाता है, मगर भारतीय संस्कृति, देशभक्ति व किसानों पर फिल्में बनना अब गुजरे जमाने की बात हो चुकी है। सियासत एक ऐसा खेल है जिसमें रिटायरमेंट की आयुसीमा या कोई शिक्षा मापदंड निर्धारित नहीं है। इसलिए युवावर्ग की दिलचस्पी ज्यादातर क्रिकेट, बालीवुड तथा राजनीति की तरफ रहती है। कई छात्र नेता शिक्षण संस्थानों से ही अपने सियासी सफर का आगाज कर लेते हैं।

 चुनावी मौसम में सियासी दलों के प्रत्याशी सत्ता पर काबिज होने के लिए अपनी तकरीरों या घोषणापत्रों द्वारा मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए कई लोकलुभावन वायदे करते हैं, जिनमें देश के करोड़ों युवाओं को रोजगार उपलब्ध कराना, शिक्षण संस्थान व स्वास्थ्य केंद्र खोलना, महंगाई से निजात, भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन, कई नदियों पर पुलों व बांधों का निर्माण, पहाड़ों पर टे्रन चढ़ाना, सड़कों के जाल बिछाना, बेसहारा गौवंश को आश्रय, किसानों को कर्जमाफी के ख्वाब दिखाना तथा कुछ मुफ्तखोरी की योजनाओं की घोषणा आदि। बढ़ती नशाखोरी का उन्मूलन कई सियासी दलों का मुख्य मुद्दा होता है, मगर चुनाव किसी भी स्तर के हों, शराब सबसे अहम किरदार निभाती है। कई बार देश में शहीद सैनिकों की शहादत के अवसर पर हमारे लीडर भावुक अंदाज में उन शहीदों के नाम पर कई घोषणाएं कर देते हैं, मगर मुद्दत गुजर जाने के बाद भी वादे धरे रह जाते हैं, जिसके चलते कई शहीदों के परिवार मायूस होकर शहीदों के मेडल तक लौटाने को मजबूर हो जाते हैं। चूंकि सियासत मौके के अनुसार आंसू बहाने में माहिर होती है, मगर सियासत का असली खेल चुनावी जीत के बाद शुरू होता है, जब सियासी रसूख के आगे कई व्यवस्थाएं बौनी साबित हो जाती हैं। देश के कई नेताओं के नाम के साथ बाहुबली, माफिया व डॉन जैसे शब्द जुड़ जाते हैं। आज देश के करोड़ों युवा हमारे जनप्रतिनिधियों व मायानगरी के अदाकारों तथा अपने आश्रमों में लोगों को अध्यात्म का उपदेश देने वाले धर्म गुरुओं को अपना रोल मॉडल मानते हैं, मगर आलम यह है कि सियासत के सिकंदर कई नेता व सिल्वर स्क्रीन के अदाकार तथा लोगों को ज्ञान का पाठ पढ़ाने वाले बाबा खुद कई संगीन अपराधों के मामलों में देश की जेलों में बंद हैं तथा कई नामजद हैं। कवायद भारत को विश्व गुरु बनाने की होती है।

 हमारे सियासतदानों की गलत नीतियों के कारण लोग आंदोलनों पर आमादा हो जाते हैं। लोगों की तन्कीदगी, विरोध प्रदर्शन सरकारों के खिलाफ होते हैं, मगर देशव्यापी एहतजाज से उपजी परेशानियों का खामियाजा आम लोग भुगतते हैं। शांत व सादगी भरे मिजाज वाले राज्य हिमाचल प्रदेश की सियासी आबोहवा भी अपनी समृद्ध सांस्कृतिक विशेषताओं की तरह देश के बाकि राज्यों से कहीं अलग रहीं है। 15 अप्रैल 1948 को राज्य के वजूद में आने के बाद से ही प्रदेश के बेहतरीन शीर्ष सियासी नेतृत्व तथा सियासत का खुद एक अलग इतिहास रहा है, मगर कुछ समय से राज्य में भू-माफिया, वन माफिया, खनन माफिया, नशा माफिया जैसे लोगों की बढ़ती आपराधिक गतिविधियों की सक्रियता से देवभूमि की छवि धूमिल हो रही है। सियासी सरपरस्ती के बिना किसी माफिया की पैदाइश नहीं होती। वर्तमान में लोग कोरोना वायरस के संक्रमण से त्रस्त हैं। वहीं देश के सिस्टम में भ्रष्टाचार व घूसखोरी का वायरस भी व्यापक रूप ले रहा है। देश की उन्नति व आत्मनिर्भरता के लिए गुरबत, चरम पर बेरोजगारी, भीषण महंगाई, आरक्षण, किसानों की समस्याएं, भ्रष्टाचार व नशाखोरी से निजात दिलाने वाले बुनियादी मुद्दों पर सियासी रायशुमारी की जरूरत है। देश की अर्थव्यवस्था पर भी कोरोना महामारी का साया पड़ चुका है। कई युवाओं का निजी क्षेत्रों की कंपनियों में रोजगार छिन चुका है। देश के अन्नदाता किसान सड़कों पर आंदोलित हैं।

 देश की आंतरिक सुरक्षा में शहादत देने वाले पैरामिलिट्री फोर्सेज के जवान तथा कर्मचारी वर्ग पुरानी पेंशन बहाली के लिए संघर्षरत हैं। ऐसे हालात में हमारे माननीयों को अपनी वीआईपी सुरक्षा, करोड़ों रुपए की सरकारी सुविधाओं जैसी चीजों में कटौती करके देशहित में प्रेरक नेतृत्व के व्यक्तिगत उदाहरण पेश करके जनहित, जनसेवा व नैतिकता के सियासी सिद्धांतों पर काम करना चाहिए। देश में सादगी से सियासत की नुमाइंदगी करके मिसालें कायम करने वाले कई शीर्ष दिग्गज राजनीतिज्ञ हुए, जिन पर सियासी व्यवस्था व देश नाज करता है। इसलिए सियासी रहनुमा बनना ही सियासत नहीं है। जनता के चुने गए प्रतिनिधियों में समाज को सही दिशा देने तथा सकारात्मक परिवर्तन लाने के लिए खुद मजबूती से फैसले लेने की कूवत भी होनी चाहिए। कोई सियासी लीडर या सियासी जमात देश से बड़े नहीं होते। आवाम अपना कीमती वोट देकर सियासी रहनुमाओं को जम्हूरियत की बुलंदी पर पहुंचाकर सियासी शहंशाह बना देती है, मगर राजनीति में आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों का वर्चस्व, मजहबी लबादा ओढ़ना, राष्ट्रवाद की भावना के बजाय जातिवाद व परिवारवाद को तरजीह देना लोकतंत्र को कमजोर साबित करते हैं।

संपर्क :

प्रताप सिंह पटियाल

लेखक बिलासपुर से हैं