पर्यावरण बचाओ, जीडीपी बढ़ाओ

जरूरत इस बात की है कि हम अपने समग्र पर्यावरण की रक्षा करें, जिससे उत्तराखंड में जंगल का जलना, गंगा के पानी का प्रदूषित होना इत्यादि न हो। देश का पर्यावरण स्वच्छ और स्निग्ध हो ताकि देश के अमीर देश में ही रहकर अपनी पूंजी का निवेश देश में ही करने को लालायित हों और देश के जीडीपी को बढ़ाने में सहायक बने। वर्तमान पॉलिसी जिसमें हम परियोजनाओं को बढ़ाने के लिए पर्यावरण को नष्ट कर रहे हैं, यह देश के विपरीत साबित होगी, क्योंकि पर्यावरण नष्ट होने से इन परियोजनाओं के लगने के बावजूद जीडीपी नहीं बढ़ेगी…

उत्तराखंड के जंगलों में भीषण आग लगी हुई है। भारत समेत सम्पूर्ण धरती का तापमान बढ़ रहा है। अगले वर्षों में इस प्रकार की आपदाएं बढेंगी। इन विध्वंसक प्राकृतिक घटनाओं के कारण पर्यटन और निवेश दोनों में गिरावट आती है। घरेलू निवेशक उन स्थानों को रहने के लिए चुनते हैं जहां उनको स्वच्छ पर्यावरण, साफ पानी और साफ हवा मिले। इसलिए अपने देश से तमाम अमीर लोग अपनी पूंजी लेकर विदेशों में जाकर बस रहे हैं। यहां निवेश कम हो रहा है और हमारी जीडीपी पिछले 6 वर्षों में लगातार गिर रही है। लेकिन सरकार पर्यावरण और निवेश दोनों की चिंता न करते हुए बड़ी योजनाओं को त्वरित स्वीकृतियां देने का प्रयास कर रही है और इन स्वीकृतियों को देने में पर्यावरण की अनदेखी कर रही है। सरकार समझ रही है कि बड़ी योजनाएं लगेंगी तो आर्थिक विकास चल निकलेगा। लेकिन बड़ी योजनाओं द्वारा स्वयं निवेश के बावजूद उनके द्वारा की जाने वाली पर्यावरण की हानि से कुल निवेश घट रहा है। जैसे सरकार ने थर्मल पावर प्लांट द्वारा जहरीली गैसों के उत्सर्जन के मानकों को ढीला कर दिया है। इससे देश में बिजली का उत्पादन तो सस्ता हो जाएगा, लेकिन साथ-साथ हवा प्रदूषित होगी। बिजली सस्ती होने से उद्योग लग सकते हैं, लेकिन प्रदूषण के विस्तार के कारण अमीर लोग यहां से बाहर जाने को मजबूर होंगे। इन दोनों विपरीत प्रभाव में अमीरों का बाहर जाना ज्यादा प्रभावी है। इसलिए विकास दर घट रही है। किसी बड़ी इकाई को लगाने के लिए पर्यावरण मंत्रालय से पर्यावरण स्वीकृति लेनी होती है।

इस स्वीकृति को हासिल करने के लिए उद्यमी को पर्यावरण प्रभाव आकलन रपट प्रस्तुत करनी पड़ती है। इसके बाद पर्यावरण मंत्रालय की कमेटी निर्णय करती है कि परियोजना को स्वीकृति दी जाए या नहीं? वर्तमान में इन कानूनों में सरकार ने कई परिवर्तन प्रस्तावित किए हैं। जैसे पर्यावरण प्रभाव आकलन के बाद जनसुनवाई करने की जरूरत को कई परियोजनाओं के लिए निरस्त करने का प्रस्ताव है। कई पुरानी परियोजनाएं बिना पर्यावरण स्वीकृति के चल रही हैं। उन्हें पोस्ट फैक्टो यानी चालू होने के बाद भी पर्यावरण स्वीकृति देने की व्यवस्था की जा रही है। सिंचाई और नदियों की ड्रेजिंग के लिए पर्यावरण स्वीकृति की जरूरत को समाप्त किया जा रहा है। इन सब क़दमों के पीछे सरकार का मंतव्य है कि इस प्रकार की परियोजनाएं शीघ्र लागू हों और देश का आर्थिक विकास बढ़े। लेकिन इन परियोजनाओं के पर्यावरण प्रभाव आकलन को ढीला करने से देश का जल और वायु प्रदूषित होंगे। अपने देश के अमीर विदेश को चले जाएंगे, जैसा कि पिछले छह वर्षों से तेजी से हो रहा है और हमारी जीडीपी बढ़ने के स्थान पर गिरेगी जो पिछले छह वर्षों के रिकार्ड से ज्ञात होता है। हमें ध्यान देना चाहिए कि ताजमहल, वाराणसी, समुद्र तटों पर बीच, पहाड़ों पर बर्फ इत्यादि उपलब्धियों के बावजूद अपने देश में विदेशी पर्यटकों का आगमन बहुत ही कम संख्या में होता है क्योंकि यहां का सामाजिक और भौतिक पर्यावरण अनुकूल नहीं है। ट्यूनीशिया और मालद्वीप जैसे छोटे-छोटे देश हमारे समकक्ष अपनी प्राकृतिक उपलब्धयों से 100 गुना रकम अर्जित कर रहे हैं। इस परिप्रेक्ष्य में पर्यावरण प्रभाव आकलन को और सख्त बनाना चाहिए। मैं आपके सामने राष्ट्रीय जलमार्ग एक जो कि वाराणसी से हल्दिया तक बनाया जा रहा है, का उदाहरण प्रस्तुत करना चाहूंगा। इस जलमार्ग को बनाने के पीछे आधार यह था कि जलमार्ग से माल की ढुलाई का खर्च 1.06 रुपए प्रति टन प्रति किलोमीटर लगेगा जबकि रेल से इसका खर्च 1.36 रुपए प्रति टन प्रति किलोमीटर लगता है। लेकिन साथ-साथ जलमार्ग से वाराणसी से हल्दिया की दूरी 1300 किलोमीटर पड़ती है जबकि रेल से 800 किलोमीटर।

 इसलिए एक टन माल को हल्दिया से वाराणसी तक जल मार्ग से लाने का वास्तविक खर्च 1370 रुपए प्रति टन पड़ता है, जबकि रेल से 1080 रुपए प्रति टन। लेकिन सरकारी अधिकारियों को बड़ी-बड़ी योजनाएं ज्यादा पसंद हैं। इसलिए इस सीधी सी बात को नजरअंदाज करते हुए इस जलमार्ग का निर्माण हो रहा है। 4500 करोड़ की परियोजना भारी खर्च होने के बावजूद इक्के-दुक्के जहाज ही चल रहे हैं। लेकिन गंगा की ड्रेजिंग की जा रही है जिससे गंगा की तलहटी में रहने वाले जीव-जंतु जैसे, कछुए, डालफिन, केंचुए और अन्य जीव प्रभावित हो रहे हैं। पानी प्रदूषित हो रहा है। यदि जहाज चले तो जहाजों के बाहर के जहरीले पेंट से पानी भी जहरीला होगा। जहाजों से उत्सर्जित कार्बन पानी में सोख लिया जाएगा जिससे भी पानी की गुणवत्ता का हृस होगा। इस प्रकार जलमार्ग निर्माण के इन पर्यावर्णीय दुष्प्रभावों को अनदेखा करके इस परियोजना को लागू किया गया है। इस परियोजना की सफलता पर संदेह  है, चूंकि इसका भाड़ा अधिक आता है। और यदि यह सफल हो भी गई तो इसके पर्यावर्णीय दुष्प्रभाव इतने ज्यादा होंगे कि वाराणसी और कोलकता जैसे स्थानों पर जो पर्यटक आते हैं वे भी कम हो जाएंगे। ऐसे में देश की जीडीपी बढ़ने के स्थान पर घटेगी। इसके अतिरिक्त यदि हमारी वायु प्रदूषित हो गई, नदियां प्रदूषित हो गईं और पीने का पानी प्रदूषित हो गया तो जन स्वास्थ में भी भारी गिरावट आती है और उससे भी पुनः हमारी जीडीपी गिरती है। जैसे यदि कोई कर्मी प्रदूषित हवा के कारण बीमार पड़ता है तो वह अनुत्पादक हो जाता है।

सरकार द्वारा यह प्रयास किया जा रहा है कि पर्यावरण स्वीकृति, जंगल काटने की स्वीकृति, वन्य जीव स्वीकृति, तटीय क्षेत्रों की स्वीकृति और प्रदूषण की स्वीकृति सबको एक साथ उपलब्ध करा दिया जाए। यह प्रयास सही दिशा में है। इससे उद्यमी को राहत मिलेगी। किसी परियोजना को स्थापित करने के लिए उद्यमी को तमाम अलग-अलग जगह भटकने की जरूरत नहीं होगी। सरकार के द्वारा सौर ऊर्जा को जो बढ़ावा दिया गया है जिसके लिए भारत को वैश्विक एजेंसियों द्वारा सम्मानित किया गया है, वह भी सराहनीय है। लेकिन ये कदम पर्याप्त नहीं हैं। जरूरत इस बात की है कि हम अपने समग्र पर्यावरण की रक्षा करें, जिससे उत्तराखंड में जंगल का जलना, गंगा के पानी का प्रदूषित होना इत्यादि न हो। देश का पर्यावरण स्वच्छ और स्निग्ध हो ताकि देश के अमीर देश में ही रहकर अपनी पूंजी का निवेश देश में ही करने को लालायित हों और देश के जीडीपी को बढ़ाने में सहायक बने। वर्तमान पॉलिसी जिसमें हम परियोजनाओं को बढ़ाने के लिए पर्यावरण को नष्ट कर रहे हैं, यह देश के विपरीत साबित होगी, क्योंकि पर्यावरण नष्ट होने से इन परियोजनाओं के लगने के बावजूद जीडीपी नहीं बढे़गी, चूंकि अमीर लोग स्वच्छ पर्यावरण की लालसा में अपनी पूंजी के साथ विदेश रवाना हो जाएंगे।

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भरत झुनझुनवाला

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