छोटे उद्योगों का कठिन सफर

सरकार ने छोटे उद्योगों को सरल ऋण उपलब्ध कराने पर जोर दिया है जो कि सामान्य परिस्थितियों में सही बैठता। लेकिन जिस समय छोटे उद्योगों द्वारा बनाया गया माल बाजार में बिक ही नहीं रहा है, उस समय उनके द्वारा ऋण लेकर कठिन समय पार करने के बाद उनके ऊपर ऋण का अतिरिक्त बोझ आ पड़ेगा और वे ऋण के बोझ से उबर ही नहीं पाएंगे। यूं ही मरने के स्थान पर वे ऋण के बोझ से दब कर मरेंगे। इसलिए ऋण पर सबसिडी देने के स्थान पर उसी रकम को सीधे नगद सबसिडी के रूप में देना चाहिए। सरकार को अपनी नीतियों का पुनरावलोकन करके छोटे उद्योगों को राहत देनी चाहिए…

वैश्विक सलाहकारी कंपनी मैकेंजी ने अक्तूबर 2020 के एक अध्ययन में कहा था कि यूरोप के छोटे उद्योगों का स्वयं का अनुमान है कि आधे आने वाले 12 माह में बंद हो जाएंगे। भारत की परिस्थिति ज्यादा दुष्कर है क्योंकि हमारे छोटे उद्योगों ने लॉकडाउन के साथ-साथ नोटबंदी और जीएसटी की मार भी खाई है। ई-कॉमर्स और बड़ी कंपनियों ने छोटे उद्योगों के बाजार पर कब्ज़ा कर लिया है। अतः प्रश्न उठता है कि छोटे उद्योगों को जीवित रखा ही क्यों जाए? उन्हें मर क्यों न जाने दिया जाए? यदि बड़े उद्योग माल का कम कीमत में उत्पादन कर सकते हैं तो उसे छोटे उद्योगों से उत्पादन करने से लाभ क्या है? विषय यह है कि छोटे उद्योग यद्यपि माल महंगा बनाते हैं, परंतु वे हमारे भविष्य के उद्यमियों के इनक्यूबेटर अथवा लेबोरेटरी भी हैं। आज का छोटा उद्यमी कल बड़ा हो सकता है। धीरुभाई अंबानी किसी समय छोटे उद्यमी थे। यदि उनके छोटे उद्योग को पनपने का अवसर नहीं मिलता तो वे कभी बड़े भी नहीं होते। साथ ही ये भारी संख्या में रोजगार सृजित करते हैं। रोजगार उत्पन्न होने से जनता की सृजनात्मक क्षमता उत्पादक कार्यों में समाहित हो जाती है। यदि हमारे युवाओं को रोजगार नहीं मिला तो वे अंततः आपराधिक गतिविधियों में लिप्त होंगे जो हो भी रहा है। औरंगाबाद (महाराष्ट्र) के विश्वविद्यालय के प्रोफेसर की मानें तो उनके एमए पढ़े छात्र भी अब एटीएम तोड़ने जैसे कार्यों में लिप्त हो गए हैं, चूंकि वे बेरोजगार हैं। बड़ी संख्या में लोगों के अपराध में लिप्त होने से सुरक्षा का खर्च बढ़ता है, देश पर पुलिस का खर्च बढ़ता है, नागरिकों में असुरक्षा की भावना विकसित होती है और सामाजिक तथा पारिवारिक ढांचा विघटित होता है।

देश में असुरक्षित वातावरण के कारण विदेशी कंपनियां भी निवेश करने से कतराती हैं। इसलिए यदि हम छोटे उद्योगों से बने माल के ऊंचे दाम को सहन करें तो इस भार के बावजूद आर्थिक विकास हासिल होता है चूंकि अपराध कम होते हैं और सामाजिक वातावरण आर्थिक गतिविधियों के विस्तार और निवेश के अनुकूल स्थापित हो जाता है। इसके विपरीत यदि हम बड़े उद्योगों से उत्पादन कराएं, तो बेरोजगारी और अपराध दोनों बढ़ते हैं। यद्यपि बाजार में सस्ता माल उपलब्ध होता है, परंतु अर्थव्यवस्था कमजोर पड़ती है क्योंकि अपराध बढ़ते हैं। इसके अतिरिक्त बेरोजगारों को न्यूनतम सुरक्षा देने को मनरेगा जैसे कार्यक्रमों पर सरकार को खर्च भी अधिक करना पड़ता है। मेरा आकलन है कि मनरेगा पर खर्च की गई रकम मूल रूप से अनुत्पादक कार्यों में लगती है। वही रकम यदि छोटे उद्योगों को समर्थन देने में लगाई जाए तो उत्पादन बढे़गा। अतएव केवल बड़े उद्योगों के सहारे आर्थिक विकास की नीति विफल होने की संभावना ज्यादा है। पिछले 6 वर्षों में हमारी आर्थिक विकास दर गिरने का यह एक बड़ा कारण दिखता है। छोटे उद्योगों को जीवित रखने के लिए हमें पहला कार्य यह करना होगा कि उनकी उत्पादन लागत कम आए। इसके लिए ऋण देने के अतिरिक्त ठोस कदम उठाने होंगे। यूरोपीय यूनियन की छोटे उद्योगों की गाइड बुक में सुझाव दिया गया है कि छोटे उद्योगों को ट्रेनिंग, रिसर्च एवं सूचना उपलब्ध कराने के लिए उनके गुट अथवा क्लस्टर बनाने चाहिए और इन क्लस्टरों का संचालन छोटे उद्योगों के अपने संगठनों के हाथ में दे देना चाहिए। जैसे वाराणसी में यदि बुनकरों को समर्थन देना है तो वाराणसी के बुनकरों के संगठन के माध्यम से उन्हें ट्रेनिंग, रिसर्च और सूचना उपलब्ध कराई जाए।

 उनके संगठन को सही ज्ञान होता है कि किस प्रकार की तकनीक की जरूरत है और किस प्रकार की ट्रेनिंग कामयाब होगी। यदि यही कार्य किसी एनजीओ अथवा किसी सरकारी तंत्र के माध्यम से कराया जाता है तो उन्हें जमीनी स्थिति का ज्ञान नहीं होता है और उनके द्वारा चलाए गए कार्यक्रम वैसे होते हैं जैसे तेल पर पानी के रंग बिखरते हैं। तमाम एनजीओ ऐसी योजनाओं में अपनी रोटी सेंक रहे हैं। चिकने पन्नों पर रपटें लिखी जाती हैं, लेकिन छोटे उद्योग मरते ही जाते हैं। इस दिशा में भारत सरकार की नीति विपरीत दिशा में दिख रही है। छोटे उद्योगों के परिसंघ के सचिव अनिल भरद्वाज के अनुसार सरकार द्वारा छोटे उद्योगों की समस्याओं के निवारण के लिए जो बोर्ड बनाया गया है, उसमें पूर्व में छोटे उद्योगों के संगठनों के प्रतिनिधियों को पर्याप्त स्थान दिया जाता था। बीते दिनों में सरकार ने इस बोर्ड में केवल अधिकारी और नेताओं की नियुक्ति की है और छोटे उद्योगों के संगठनों की सदस्यता पूर्णतया समाप्त कर दी है। यानी जिसके हित के लिए ये बोर्ड बनाए गए हैं, वे ही इन बोर्डों में अनुपस्थित हैं। इस नीति को बदलना चाहिए। दूसरा काम सरकार को छोटे उद्योगों को इस कठिन समय में वित्तीय सहायता देने पर विचार करना चाहिए। भारत सरकार के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ  पब्लिक फाइनेंस एंड पालिसी के अप्रैल 2020 के एक अध्ययन में बताया गया है कि ब्राजील, कनाडा और न्यूजीलैंड में छोटे उद्योगों द्वारा अपने श्रमिकों को दिए जाने वाले वेतन का एक अंश कुछ समय के लिए सबसिडी के रूप में दिया गया है जिससे कि छोटे उद्योग भी जीवित रहें और और उनमें कार्यरत श्रमिक भी अपना जीवन निर्वाह कर सकें। यहां भी भारत सरकार की नीति विपरीत दिशा में है।

सरकार ने छोटे उद्योगों को सरल ऋण उपलब्ध कराने पर जोर दिया है जो कि सामान्य परिस्थितियों में सही बैठता। लेकिन जिस समय छोटे उद्योगों द्वारा बनाया गया माल बाजार में बिक ही नहीं रहा है, उस समय उनके द्वारा ऋण लेकर कठिन समय पार करने के बाद उनके ऊपर ऋण का अतिरिक्त बोझ आ पड़ेगा और वे ऋण के बोझ से उबर ही नहीं पाएंगे। यूं ही मरने के स्थान पर वे ऋण के बोझ से दब कर मरेंगे। इसलिए ऋण पर सबसिडी देने के स्थान पर उसी रकम को सीधे नगद सबसिडी के रूप में देना चाहिए। छोटे उद्योगों द्वारा अकसर आयातित कच्चे माल का उपयोग करके माल तैयार किया जाता है और फिर उसको बाजार में बेचा जाता है अथवा निर्यात किया जाता है। इनमें से एक कच्चा माल प्लास्टिक है। सरकार ने प्लास्टिक पर आयात कर बढ़ा दिए हैं जिसके कारण कच्ची प्लास्टिक का दाम अपने देश में बढ़ गया है और विशेषज्ञों के अनुसार प्लास्टिक का माल बनाने वाले छोटे उद्योग बंद प्रायः हो गए हैं। यही परिस्थिति अन्य कच्चे माल की हो सकती है। ऐसे कच्चे माल पर आयात कर घटाना चाहिए। सरकार को अपनी नीतियों का पुनरावलोकन करके छोटे उद्योगों को राहत पहुंचाना चाहिए अन्यथा न तो भविष्य में धीरुभाई जैसे उद्यमी बनेंगे, न ही आर्थिक विकास हासिल होगा।

डा. भरत झुनझुनवाला

आर्थिक विश्लेषक

ई-मेलः bharatjj@gmail.com