हिंदुत्व की सार्थक व्याख्या

उन्होंने एक बार पुणे में भाषण देते हुए हिंदुत्व के बारे कहा था, ‘मैं  हिंदू  हूं, ये मैं कैसे भूल सकता हूं? किसी को भूलना भी नहीं चाहिए। मेरा हिंदुत्व सीमित नहीं है, संकुचित नहीं है, मेरा हिंदुत्व हरिजन के लिए मंदिर के दरवाजे बंद नहीं कर सकता है। मेरा हिंदुत्व अंतरजातीय. अंतरप्रांतीय और अंतरराष्ट्रीय विवाहों का विरोध नहीं करता है। हिंदुत्व सचमुच बहुत विशाल है।’ वाजपेयी जी द्वारा यह हिंदुत्व की एक सुदृढ़ परिभाषा मानी जा सकती है। हिंदुत्व पर विवादित टिप्पणी का उम्दा जवाब भी है…

पूर्व विदेश मंत्री की किताब ‘सनराइज ओवर अयोध्या-नेशनहुड इन अवर टाइम्स’ में हिंदुत्व को आईएस और बोको हरम जैसे आतंकी संगठनों के समकक्ष रखे जाने के साथ ही ‘हिंदुत्व’ को लेकर एक नई बहस छिड़ गई है। इस विवदित किताब के लेखक कानूनविद भी माने जाते हैं। हिंदू, हिंदुत्व और हिंदूवाद जैसे शब्दों और इसके उपयोग के बारे में 1904 से लेकर 1994 के बीच कई न्यायिक व्यवस्थाएं हैं, लेकिन अभी भी एक वर्ग समय-समय पर हिंदुत्व को जीवन शैली के रूप में परिभाषित करने और इस शब्द के उपयोग के संदर्भ के बारे में संबंध न्यायिक व्यवस्था पर पुनर्विचार करने का अनुरोध न्यायालय से कर रहा है। हिंदुत्व शब्द के प्रति किसी न किसी तरह की अदावत रखने वाले संगठन या लोग चाहते हैं कि इस शब्द के इस्तेमाल पर ही पाबंदी लगाई जाए। सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस जगदीश शरण वर्मा की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय बेंच ने 11 दिसंबर 1995 को अपने फैसले में कहा था कि हिंदुत्व या हिंदूवाद एक जीवन शैली है। इससे पहले 14 जनवरी 1966 को तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश पीबी गजेन्द्रगडकर की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान बेंच ने अहमदाबाद के स्वामीनारायण मंदिर के संदर्भ में अपने फैसले में हिंदू धर्म के बारे में विस्तार से चर्चा की थी। इस संविधान पीठ ने स्वामीनारायण मंदिर से संबंधित शास्त्री यज्ञपुरुषादजी और अन्य बनाम मूलदास ब्रुदर्दास  मुलदास ब्रदर दास वैश्य और अन्य केस में सुनाए गए फैसले में कहा था कि इस चर्चा से यही संकेत मिलता है कि शब्द हिंदू, हिंदुत्व और हिंदूवाद का कोई निश्चित अर्थ नहीं निकाला जा सकता है। साथ ही भारतीय संस्कृति और विरासत को अलग रखते हुए इसके अर्थ को सिर्फ धर्म तक सीमित नहीं किया जा सकता। इसमें यह भी संकेत दिया गया था कि हिंदुत्व का संबंध इस उपमहाद्वीप के लोगों की जीवन शैली से अधिक संबंधित है। संविधान पीठ ने यह भी कहा था कि जब हम हिंदू धर्म के बारे में सोचते हैं तो हम हिंदू धर्म को परिभाषित या पर्याप्त रूप से इसकी व्याख्या करना असंभव नहीं, मगर बहुत मुश्किल पाते हैं। दूसरे धर्मों की तरह हिंदू धर्म किसी देवदूत का दावा नहीं करता, यह किसी एक ईश्वर की पूजा नहीं करता, किसी धर्म सिद्धांत को नहीं अपनाया, यह किसी के भी दर्शन की अवधारणा में विश्वास नहीं करता, यह किसी भी अन्य संप्रदाय का पालन नहीं करता, वास्तव में ऐसा नहीं लगता कि यह किसी भी धर्म के संकीर्ण  पारंपरिक सिद्धांतों को मानता है।

 मोटे तौर पर इसे जीवन की शैली से ज्यादा कुछ नहीं कहा जा सकता। सुप्रीम कोर्ट ने संविधान पीठ के इस तरह के फैसलों के मद्देनजर कहा था कि इसमें संदेह नहीं है कि हिंदू धर्म या हिंदुत्व शब्दों को भारत की संस्कृति से इतर सिर्फ हिंदू धार्मिक रीतियों तक सीमित करना या ऐसा समझना जरूरी नहीं है। कोर्ट का स्पष्ट मत रहा है कि जब तक भाषण में इन शब्दों के प्रयोग का मतलब इसके विपरीत नजर नहीं आए, ये शब्द भारतीय जनता की जीवन शैली का ही संकेत देते हैं और इन शब्दों के प्रयोग का मतलब हिंदू धर्म को अपनी आस्था के रूप में मानने वाले व्यक्तियों तक सीमित रखना नहीं है। 1994 में न्यायमूर्ति एसपी भरूचा ने अपनी और न्यायमूर्ति एएम अहमदी की ओर से अलग राय में कहा था, ‘हिंदू धर्म एक सहिष्णु विश्वास है। यही सहिष्णुता है जिसने सभी समुदायों को इस धरती पर फलने-फूलने के अवसर दिए।’ अयोध्या मामले में भी इन न्यायाधीशों ने अपनी राय में कहा था कि सामान्यतः हिंदुत्व को जीवन शैली या सोचने के तरीके के रूप में लिया जाता है और इसे धार्मिक हिंदू कट्टरवाद के समकक्ष नहीं रखा जा सकता और न ही ऐसा समझा जाएगा। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि सांप्रदायिकता को बढ़ावा देने के लिए इन अभिव्यक्तियों का इस्तेमाल इनके सही मायने नहीं बदल सकता है। किसी भी भाषण में इन शब्दों का उपयोग करके किसी भी तरह की शरारत करने के प्रयास पर अंकुश लगाना होगा। न्यायिक फैसलों में हिंदूवाद की उदारता और सहिष्णुता की विशेषता को मान्यता के बावजूद अनुचित लाभ के लिए इसका उपयोग बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है। न्यायिक व्यवस्थाओं के बावजूद किसी न किसी रूप में हिंदुत्व शब्द को विवाद का केन्द्र बिन्दु बनाने का प्रयास किया जा रहा है।

 इस विवादित पुस्तक में हिंदुत्व को एंटी राष्ट्र संगठनों  के समकक्ष रखने का प्रयास भी इसी की कड़ी लगता है। हिंदुत्व एक ऐसा शब्द है जो संपूर्ण मानवजाति के लिए आज भी असामान्य स्फूर्ति तथा चैतन्य का स्रोत बना हुआ है। इसी हिंदुत्व के असंदिग्ध स्वरूप तथा आशय का ज्ञान प्राप्त करने का प्रयास आज हम करने जा रहे हैं। हिंदुत्व कोई समान शब्द नहीं है। यह एक परंपरा है। एक इतिहास है। यह इतिहास केवल धार्मिक अथवा आध्यात्मिक इतिहास नहीं है। अनेक बार हिंदुत्व शब्द को उसी के समान किसी अन्य शब्द के समतुल्य मानकर बड़ी भूल की जाती है। हिंदुत्व शब्द का निश्चित आशय ज्ञात करने के लिए पहले हम लोगों को यह समझना आवश्यक है कि हिंदू किसे कहते हैं। हिंदू धर्म ये जुड़ा यह शब्द हिंदुत्व से ही उपजा, उसी का एक रूप है, उसी का एक अंश है, इसलिए हिंदुत्व शब्द की स्पष्ट कल्पना करना संभव नहीं होता, तो हिंदू धर्म शब्द भी हम लोगों के लिए अनिश्चित बन जाएगा। केवल आर्य ही स्वयं को सिंधु कहलाते, ऐसा नहीं था। उनके पड़ोसी राष्ट्र भी उन्हें इसी नाम से जानते थे। इसे साबित करने के लिए कई प्रमाण उपलब्ध हैं। संस्कृत के ‘स’ अक्षर का हिंदू तथा अहिंदू प्राकृत भाषाओं में ‘ह’ ऐसा अपभ्रंश हो जाता है। सप्ताह को हम लोग हफ्ता कहते हैं। इतिहास के प्रारंभिक काल में भी हम लोग सिंधु अथवा हिंदू राष्ट्र के अंग माने जाते हैं। स्थान का स्तान हो गया। हिंद और स्तान मिलकर हिंदुस्तान बन गया। हिंद से ही हिंदू, हिंदी, हिंदवी, हुंदू, हंदू, इंदू, इंडीज, इंडिया और इंडियन आदि शब्द निकले हैं। 1892 में चंद्रनाथ बसु की किताब ‘हिंदुत्व’ प्रकाशित हुई।

 हिंदुत्व शब्द का संभावित सबसे पहला प्रचलित उपयोग इसी किताब में हुआ। जून 1909 के दौरान भारतीय चिकित्सा सेवा के अधिकारी यूएन मुखर्जी द्वारा लिखे गए ‘हिंदू ः डाइंग रेस’ पत्रों की एक पूरी श्रृंखला एक समाचार पत्र में छपी। इन पत्रों में बताया गया था कि कैसे गैर हिंदू  शासकों के देशों पर कब्जा करने से वहां के नागरिकों पर खतरा बढ़ा। बाल गंगाधर तिलक ने भी 1884 में पहली बार हिंदुइज़्म से अलग हिंदुत्व की परिकल्पना पेश की। उन्होंने बार-बार ब्रिटिश सरकार से अपील की कि धार्मिक तटस्थता की नीति त्यागकर जातीय प्रतिबंधों को कठोरता से लागू करे। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जब दसवीं कक्षा में थे, तब उन्होंने एक कविता लिखी थी जिसके शब्द कुछ इस प्रकार थे, ‘हिंदू तन मन हिंदू जीवन रग रग हिंदू मेरा परिचय।’ उन्होंने एक बार पुणे में भाषण देते हुए हिंदुत्व के बारे कहा था, ‘मैं  हिंदू  हूं, ये मैं कैसे भूल सकता हूं? किसी को भूलना भी नहीं चाहिए। मेरा हिंदुत्व सीमित नहीं है, संकुचित नहीं है, मेरा हिंदुत्व हरिजन के लिए मंदिर के दरवाजे बंद नहीं कर सकता है। मेरा हिंदुत्व अंतरजातीय. अंतरप्रांतीय और अंतरराष्ट्रीय विवाहों का विरोध नहीं करता है। हिंदुत्व सचमुच बहुत विशाल है।’ वाजपेयी जी द्वारा यह हिंदुत्व की एक सुदृढ़ परिभाषा मानी जा सकती है। राष्ट्रपिता द्वारा असमंजस की स्थिति में गीता ज्ञान से मार्गदर्शन लेना हिंदुत्व पर विवादित टिप्पणी का उम्दा जवाब है।

डा. वरिंदर भाटिया

कालेज प्रिंसीपल

ईमेल : hellobhatiaji@gmail.com