अलगाववाद और केजरीवाल

लगता है इस बार के चुनावों में केजरीवाल ने फिर इधर-उधर सांठगांठ करनी शुरू कर दी, जिसके कारण कुमार विश्वास को उस बंद हो चुके अध्याय को फिर से खोलना पड़ा। यह पहली बार पता चला कि पिछली बार सत्ता के लिए केजरीवाल कितनी दूर तक जाने को तैयार थे। यदि केजरीवाल अलगाववादियों के बलबूते चुनाव जीत जाते और वे अलग देश के लिए आंदोलन खड़ा करते तो? उस ‘तो’ का उत्तर कुमार विश्वास ने दिया है कि तब केजरीवाल स्वतंत्र देश के प्रधानमंत्री बनने को भी तैयार थे। इस पृष्ठभूमि में केजरीवाल के क्रियाकलापों की जांच करवाना अनिवार्य लगता है। कम से कम पुराने टैलीफोन रिकार्ड तो मिल ही जाएंगे कि उन दिनों केजरीवाल की कनाडा और अमेरिका में किस-किस से बात होती थी? जिस बैठक की चर्चा कुमार विश्वास कर रहे हैं, उस बैठक में कौन-कौन लोग हाजिर थे? भविष्य में कई रहस्यों पर से पर्दा उठ सकता है…

भारतीय राजनीति में अलगाववाद से जुड़े लोगों को कुछ राजनीतिज्ञ भी शह देते रहते हैं या फिर अपने राजनीतिक हितों के लिए उनकी सहायता लेते हैं। ऐसे आरोप लगते रहते हैं। जब राजनीतिज्ञ अलगाववादियों से सहायता लेते हैं तो ज़ाहिर है वे प्रत्यक्ष या परोक्ष आतंक के क्षेत्र में की गई उनकी वारदातों को नजरअंदाज भी करते हैं। जम्मू-कश्मीर में इस प्रकार की घटनाएं ज्यादा होती हैं और इसे वहां का सामान्य जन जानता भी है। लेकिन ऐसे राजनीतिज्ञों को प्रशासन पकड़ता नहीं था क्योंकि राजनीतिक प्रशासन यही राजनीतिज्ञ चलाते हैं। पूर्वोत्तर भारत में आतंकवादी-राजनीतिज्ञ गठजोड़ के अनेक उदाहरण हैं। महाराष्ट्र में दाऊद इब्राहिम के लोगों के अनेक राजनीतिज्ञों से संबंध थे। दोनों पक्ष अपने-अपने तरीके से एक-दूसरे की सहायता करते थे या करते हैं। लेकिन दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल पर अलगाववादियों से केवल संबंध होने के ही नहीं, बल्कि स्वतंत्र पंजाब के प्रधानमंत्री बनने का सपना पालने वाले जो आरोप लगे हैं, उसने सभी को चौंका दिया है। यह आरोप किसी विरोधी राजनीतिक दल ने नहीं लगाए।

यदि ऐसा होता तो इसे राजनीतिक दुर्भावनापूर्ण कह कर ख़ारिज किया जा सकता था। लेकिन यह आरोप उन्हीं की पार्टी के वरिष्ठ नेता कुमार विश्वास ने लगाए हैं, जिसे इतनी आसानी से ख़ारिज नहीं किया जा सकता। कुमार विश्वास केजरीवाल के अंतरंग साथियों में से रहे हैं। कई बार ऐसा भी होता है कि कोई व्यक्ति केवल प्रसिद्धि पाने के लिए किसी बड़े व्यक्ति पर आधारहीन आरोप लगा देता है। ऐसे मामलों में भी आरोपों को ख़ारिज किया जाता है और किया भी जाना चाहिए। लेकिन कुमार विश्वास का ऐसा मामला नहीं है। वे पहले ही अपने बलबूते राजनीति और भारतीय साहित्य का जाना-पहचाना चेहरा हैं। इसलिए इन आरोपों को केवल प्रसिद्धि पाने की चाहत कह कर भी नहीं टाला जा सकता। ये आरोप देश की सुरक्षा और अखंडता से जुड़े हुए हैं। शायद विषय की संवेदनशीलता को देखते हुए ही पंजाब के मुख्यमंत्री ने केन्द्र सरकार से आग्रह किया है कि इन आरोपों की गंभीरता से जांच करवाना जरूरी है।

 कुमार विश्वास का कहना है कि केजरीवाल ने उनके मना करने के बावजूद 2017 के पंजाब विधानसभा चुनावों में अलगाववादी आतंकवादियों के साथ बैठकें कीं ताकि इन समूहों से चुनाव जीतने के लिए सहायता ली जाए। चिंता की बात यह है कि केजरीवाल ने स्पष्ट रूप से इस प्रकार की बैठकें आयोजित करने के आरोप का खंडन नहीं किया। इसके बजाय उन्होंने मूल मुद्दे से हटकर किसी भी तरह बच निकलने के प्रयास शुरू कर दिए। केजरीवाल का कहना है कि वे दुनिया के पहले ऐसे आतंकवादी हैं जो सड़कें बनाते हैं, स्कूल बनाते हैं, अस्पताल बनाते हैं, बिजली मुफ़्त देते हैं इत्यादि। यानी सवाल चना जवाब गंदम। कुमार विश्वास का आरोप स्पष्ट, तीखा और सीधा है कि केजरीवाल ने इस प्रकार की बैठक में हिस्सा लिया था। केजरीवाल को भी इसका स्पष्ट और सीधा हां या न में उत्तर देना है। लेकिन वे उत्तर देने से बचते रहे हैं। यह कोई छुपा रहस्य नहीं है कि 2017 के पंजाब विधानसभा चुनावों में अमेरिका और कनाडा में बैठे अलगाववादी केजरीवाल की मदद कर रहे थे। इसको और साफ-साफ भाषा में सकारात्मक तरीके से कहना हो तो कहा जा सकता है कि पंजाब में अपने षड्यंत्र की पूर्ति के लिए अलगाववादी केजरीवाल को ‘यूज’ कर रहे थे। लेकिन यह व्यापार एकतरफा नहीं था।

केजरीवाल पंजाब की सत्ता हथियाने के लिए उन अलगाववादी-आतंकवादियों को यूज कर रहे थे। कनाडा और अमेरिका में बैठे अलगाववादियों का मानना था कि जब तक पंजाब की सत्ता पर प्रकाश सिंह बादल क़ाबिज़ हैं तब तक पंजाब में उनके पैर नहीं जम सकते। लेकिन वे यह भी जानते थे कि वे अपने बलबूते बादल को सत्ता से बाहर नहीं कर सकते क्योंकि विदेशों में रह रहे इन अलगाववादियों का पंजाब में कोई आधार नहीं है। उनको लगता था जो काम वे स्वयं नहीं कर सकते, वह काम केजरीवाल अपनी आम आदमी पार्टी के नाम पर कर सकता है। इसलिए उन्होंने केजरीवाल की पार्टी की पैसे से ही नहीं बल्कि स्वयं पंजाब में आकर मदद करनी शुरू कर दी। यह मानने का कोई कारण नहीं है कि केजरीवाल पंजाब के अलगाववादियों की इस रणनीति से वाकिफ नहीं थे । वे इसे बख़ूबी समझते थे लेकिन वे यह भी जानते थे कि अपने बलबूते वे भी प्रकाश सिंह बादल को सत्ता से बाहर नहीं कर सकते। यह ठीक है कि बादल सरकार के खिलाफ नशों के व्यापार को लेकर व्यापक जन असंतोष था, लेकिन इस जन आक्रोश का लाभ केजरीवाल की पार्टी की ओर आ जाएगा, इसकी कोई गारंटी नहीं थी। उसको लगता था यदि विदेशों में बैठे पंजाब के अलगाववादी उसकी धन और जन से मदद कर देंगे तो वे पंजाब में जीत सकते हैं। इसलिए वे अपने तरीके से अलगाववादियों को ‘यूज’ कर रहे थे। जो केजरीवाल अन्ना हज़ारे को यूज कर सकता है, उसके लिए विदेश स्थित अलगाववादियों को यूज कर लेना मुश्किल नहीं था।

 दोनों पक्ष अपनी-अपनी राह पर बैठे थे। लेकिन दुर्भाग्य से एक दिन लुधियाना में एक पूर्व आतंकवादी के घर में केजरीवाल के रात भर रहने का भांडा फूट गया और पंजाब चौकन्ना हो गया। उस चौकन्ना हो जाने के कारण ही आम आदमी पार्टी सरकार बनाते-बनाते मात्र बीस सीटों पर सिमट गई। तब शायद चुनाव समाप्त हो गए और इस प्रकरण का भी अंत हो गया। लेकिन लगता है इस बार के चुनावों में केजरीवाल ने फिर इधर-उधर सांठगांठ करनी शुरू कर दी, जिसके कारण कुमार विश्वास को उस बंद हो चुके अध्याय को फिर से खोलना पड़ा। यह पहली बार पता चला कि पिछली बार सत्ता के लिए केजरीवाल कितनी दूर तक जाने को तैयार थे। यदि केजरीवाल अलगाववादियों के बलबूते चुनाव जीत जाते और वे अलग देश के लिए आंदोलन खड़ा करते तो? उस ‘तो’ का उत्तर कुमार विश्वास ने दिया है कि तब केजरीवाल स्वतंत्र देश के प्रधानमंत्री बनने को भी तैयार थे। इस पृष्ठभूमि में केजरीवाल के क्रियाकलापों की जांच करवाना अनिवार्य लगता है। कम से कम पुराने टैलीफोन रिकार्ड तो मिल ही जाएंगे कि उन दिनों केजरीवाल की कनाडा और अमेरिका में किस-किस से बात होती थी? जिस बैठक की चर्चा कुमार विश्वास कर रहे हैं, उस बैठक में कौन कौन लोग हाजि़र थे? आने वाले दिनों में हो सकता है कई संवेदनशील रहस्यों पर से पर्दाफाश हो। सत्ता की लालसा आदमी को कहां तक पहुंचा देती है, इसका ख़ुलासा निष्पक्ष जांच से ही हो सकता है।

कुलदीप चंद अग्निहोत्री

वरिष्ठ स्तंभकार

ईमेलः kuldeepagnihotri@gmail.com